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बौद्धिकता से लबरेज़ दिल्ली की एक ‘पियाली’ शाम

सईद अयूब बहुत कल्पनाशील तरीके से पिछले कई सालों से साहित्यिक आयोजन करते रहे हैं. करीब एक महीने पहले जब उन्होंने बताया कि सीपी के एक रेस्तरां में पुरुषोत्तम अग्रवाल की कहानियों पर चर्चा करनी है तो लगा कि बात कुछ अधिक ही कल्पनाशील तो नहीं हो गई? लेकिन कल यानी 29 अप्रैल की शाम जब ‘पियाली’ रेस्तरां में हम बैठे तो तीन घंटे कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला. सच कहता हूँ इतने आयोजनों में शामिल हुआ हूँ लेकिन ऐसी बौद्धिक चर्चा में बहुत दिनों बाद शरीक होने का मौका मिला. इसके लिए सईद अयूब और भाई सौरव कुमार सिन्हा का शुक्रिया.

साहित्य में यह ऐसा दौर है जब किताबों के कंटेंट से अधिक उसकी बिक्री की चर्चा होती है. बात-बात में पाठकों को ध्यान में रखकर लिखने की बात होती है. ऐसे में पुरुषोत्तम अग्रवाल की कहानियां, उनका उपन्यास और उससे लोगों का जुड़ाव यह बताता है कि हिंदी समाज में बौद्धिकता के लिए अभी भी जगह बची हुई है. बची रहनी चाहिए. कल की गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ लेखिका अर्चना वर्मा ने अच्छी बात कही कि लोकप्रियता से मुंह नहीं चुराना चाहिए लेकिन बौद्धिकता की जगह बनी रहनी चाहिए. भले थोड़े ही सही लेकिन ऐसे पाठक अब भी हैं जो नाटकीयता और काव्यात्मकता से इतर विचार प्रधान लेखन पढना चाहते हैं. उस खिड़की  को खुले रहने देना चाहिए. इसी संदर्भ में उन्होंने पुरुषोत्तम अग्रवाल की कहानियों के बारे में चर्चा की.

सच में पिछले एक दशक में युवा लेखन की आंधी में हमने सबसे अधिक वैचारिकता से किनारा किया है. ऐसे में पुरुषोत्तम अग्रवाल की कहानियां एक इंटेलेक्चुअल लेखक की कहानियां हैं. ऐसे इंटेलेक्चुअल लेखक की जिनको पढ़ते हुए हमें आने वाले समय की आहटें सुनाई देती हैं. मुझे याद आता है एक बार प्रसिद्ध पत्रकार विनोद मेहता ने लिखा था कि हमारा काम केवल पाठकों की रूचि के नाम पर मनोरंजन परोसना ही नहीं होना चाहिए. बल्कि अच्छा लेखन, अच्छी पत्रकारिता वह होती है जो पाठकों की रूचि का विस्तार करे. अपने समय में सबसे अधिक बिकना और फिर रद्दी बन जाना क्या लेखन का यही उद्देश्य होना चाहिए? हमें इस सवाल के बारे में ठहरकर सोचना होगा.

पुरुषोत्तम अग्रवाल का रचनात्मक लेखन एक तरह से समकालीन लोकप्रियता का प्रतिपक्ष रचता है. वैचारिकता की परम्परा की याद दिलाता है. उनके नाकोहस(नेशनल कमीशन फॉर हर्ट सेंटीमेंट्स) कहानी का महत्व इस संदर्भ में समझा जा सकता है. लोक कथाओं की शैली में जिस तरह से उन्होंने एक अँधेरे समय का रूपक गढ़ा था आज वह सच होता प्रतीत होता जा रहा है. समाज में तार्किकता का स्पेस मिटता जा रहा है, हजार साल पुरानी जो साझी परम्पराएं थी उनको खंडित किया जा रहा है, बहुवचन को एक वचन में बदला जा रहा है. मुझे लगता है कि आजादी के बाद मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में के बाद इतना भयावह रूपक शायद ही किसी और रचनाकार ने रचा हो.  दुःख की बात है कि हिंदी के अधिकाँश वरिष्ठ लेखकों ने जैसे इस परिस्थिति के सामने सरेंडर कर दिया है. लेकिन पुरुषोत्तम अग्रवाल अपनी रचनाओं में प्रतिरोध की आवाज को बनाए हुए हैं.

हम यह कह सकते हैं कि पुरुषोत्तम जी आलोचक हैं, वे कहानियां क्यों लिखते हैं. मैं यहाँ अम्बर्तो इको का उदहारण देना चाहता हूँ. एक बड़े उत्तर आधुनिक आलोचक होने के साथ साथ वे ‘नेम ऑफ़ द रोज’ जैसे समकालीन उपन्यास के लेखक भी हैं. पुरुषोत्तम अग्रवाल भी हमारी भाषा के ऐसे ही इंटेलेक्चुअल हैं. और आज के हालात में ऐसे इंटेलेक्चुअल लेखक का होना बहुत जरूरी है जो इस जटिल समय का भाष्य हमारे सामने प्रस्तुत करे.

हिंदी लेखन-प्रकाशन के पैमाने कितने ही बदल जाएँ, उनमें बिक्री को लेकर कितनी प्रतिस्पर्धा हो जाए लेकिन पब्लिक इंटेलेक्चुअल का होना बहुत जरूरी है. नामवर सिंह के बाद जिनती भी संभावनाएं हिंदी में पब्लिक इंटेलेक्चुअल के रूप में दिखाई दी थीं सभी अकाल कवलित हो गई. लेकिन यह आश्वस्तिकारक है हमारे बीच पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसे विद्वान् हैं जिसके पास हर विधा में देने के लिए अभी बहुत बाक़ी है.

ऐसे लेखक अब कम होते जा रहे हैं जो समाज को देने के लिए लिखते हैं. समाज से लेने के लिए लिखने वालों की तादाद बढती गई है. शुक्र है कि पुरुषोत्तम अग्रवाल हमारे बीच लाईट हाउस की तरह बने हुए हैं.

कल की चर्चा में प्रेम भारद्वाज और भाई विवेक मिश्र ने बी अपने अपने दृष्टिकोण से मानीखेज बातें की. सिर्फ छः कहानी लिखकर पुरुषोत्तम अग्रवाल ने समकालीन हिंदी कहानी में एक बड़ा शिफ्ट पैदा किया है. कल की बातचीत ने इस बात से आश्वस्त किया.

एक बार फिर अविधा संस्था, भाई सईद अयूब और अपनी ही तरह जौन एलिया के शैदाई सुअरव कुमार सिन्हा के साथ सबसे बढ़कर ‘पियाली’ रेस्तरां का शुक्रिया. जिनके कारण बौद्धिकता से लबरेज एक शाम बिताने का मौका मिला. दुर्भाग्य से जिसके लिए आजकल स्पेस कम होता जा रहा है.

 
      

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