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ज़िम्मेदारी की पत्रकारिता में बाज़ार बाद में आता है

‘जनसत्ता’ के संपादक ओम थानवी हमारे दौर के सबसे सजग और बौद्धिक संपादक है. उनके लिए पत्रकारिता ऐसा प्रोफेशन है जिसमें मिशन का भाव पीछे नहीं छूटता. पत्रकारिता को वे केवल व्यवसाय नहीं बल्कि सामाजिक ज़िम्मेदारी के तौर पर देखते हैं. आइये उनसे अनूप कुमार तिवारी की यह विचारोत्तेजक बातचीत पढते हैं, जिसमें आज की हिंदी पत्रकारिता के संकटों की चर्चा भी है और भविष्य को लेकर चिंता भी- जानकी पुल.

प्रश्न- आज के दौर में पत्रकारिता जगत में अखबारों में संपादक की भूमिका को आप किस नजरिये से देखते हैं?
ओम थानवी- असल में सबसे जटिल पहलू यही है कि संपादक की स्थिति दृश्य में उतनी प्रभावशाली नहीं है जितनी होनी चाहिए. बल्कि कई दफा संपादक दृश्य में नज़र ही नहीं आते हैं. जो नज़र आते हैं उनके पास उतने अधिकार नहीं हैं, जितने होने चाहिए. कुछ संपादक ऐसे हैं जिन्होंने अपने अधिकारों को अपनी मर्ज़ी से अपने फायदे के लिए या संस्था के प्रबंध के दबाव में या उस प्रबंध को खुश करने के लिए खुद छोड़ दिया है. संपादक अखबार की धुरी ही नहीं होता है वह अखबार या पत्रि़क की पूरी कल्पना का नियामक भी होता है. उसके स्वरुप को, जो संपादक खुद तय करता है, उस पर नियंत्रण भी संपादक का ही होता है. लेकिन होता है जब मैं कहता हूँ तो इसका मतलब है कि होना चाहिए.
प्रश्न- हिंदी समाचारपत्रों में संपादक के महत्व में आए ह्रास के प्रमुख कारण कौन से हैं?
ओम थानवी- इसके कई कारण हैं. एक तो बाज़ार पत्रकारिता पर हावी हुआ है. असल में पत्र-पत्रिकाओं के प्रबंध ने यह महसूस किया कि संपादक बहुत प्रासंगिक नहीं रहे. संपादक को अगर पूरा महत्व दिया जाए तो वह जिस किस्म की पत्रिका या अखबार निकालेगा प्रबंध उससे खुश नहीं होगा. प्रबंध ने या मालिकों ने कई जगह तो इसका उपाय यह किया कि संपादन अपने हाथ में ले लिया. करने वाले दूसरे पेशेवर लोग हैं लेकिन नाम मालिक का है. कोई भी एक आदमी यह दावा नहीं कर सकता कि उस अखबार की कल्पना के लिए वह ज़िम्मेदार है या पूरे अखबार पर उसका नियंत्रण है. ऐसे कुछ अखबार हैं जिनके कई संस्करण देश में निकलते हैं. वे अलग-अलग संस्करणों के लिए अलग-अलग संपादक रखते हैं. लेकिन वे सारे संपादक किसी एक प्रधान संपादक को रिपोर्ट नहीं करते. यानी अखबार की पूरी कल्पना और नियंत्रण एक व्यक्ति के हाथ में नहीं है और जो अलग-अलग संस्करणों के संपादक हैं वे सीधे मालिक को रिपोर्ट करते हैं. तो इस अर्थ में काबू मालिक का हो गया, एक संपादक का नहीं रहा, अलग-अलग संस्करणों के सम्पादक रहने के बावजूद. एक कारण जो मैं सोचता हूँ- टीवी यानी दृश्य माध्यम ज्यादा लोकप्रिय हुआ है और हमारे भारत जैसे देश में बहुत ज़ल्दी लोकप्रिय हुआ. वह असरदार भी साबित हुआ. उसकी वजह यह है कि टीवी देखने के लिए पढ़ा-लिखा होना ज़रूरी नहीं है, अखबार पढ़ने के लिए ज़रूरी है. हमारे यहाँ निरक्षरता काफी है. ऐसा नहीं है कि लोगों में समझ नहीं है. लेकिन बड़ी तादाद में लोग ऐसे हैं जो अखबार नहीं पढ़ सकते और अखबार को रोज खरीदना भी पड़ता है. तो टीवी के प्रचार ने अखबारों की परिस्थिति को प्रभावित किया. टीवी में कोई संपादक नहीं होता, सारा का सारा नियंत्रण मालिक का होता है. कल्पना मालिक की होती है, ख़बरों की रूपरेखा, अलग-अलग कार्यक्रमों का चुनाव, सारा बंदोबस्त मालिक करता है. कहीं किसी समाचार बुलेटिन में भी संपादक का नाम नहीं आता. अखबार में कानूनन ज़रूरी है, लेकिन २४ घंटे ख़बरें देने वाले चैनल के लिए देश में ऐसा कोई क़ानून नहीं है जो यह अपेक्षा करे कि आप उस आदमी का नाम बताइए जो इन सारी ख़बरों के चयन के लिए ज़िम्मेदार है. मेरा मानना है कि इसकी वजह से भी अखबारों पर इसकी छाया आई.
प्रश्न- नाममात्र का कहें तो भी संपादकों की नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है. उसके निर्वाह में चलताऊ रवैया क्यों अपनाया जाता है?
ओम थानवी- संपादक जहाँ पर हैं, वे किस तरह के संपादक हैं इसको देखने की ज़रूरत है. वे मालिक को खुश करने वाले संपादक हैं या अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास करने वाले. अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास रखने वाले संपादक भी हैं, पर कुछ के साथ परिस्थितियां ऐसी हैं कि मालिक उनके ऊपर ज्यादा हावी हैं. उनको अनुबंध पर काम करना है. वह अनुबंध मियादी है. उस मियाद को पूरा होने के बाद उनको नहीं मालूम कि मालिक का रवैया क्या होगा? तो उनका काम-काज उस पर निर्भर करता है. वे भी एक मियादी रोज़गार की तरह काम करेंगे तो उनका ध्यान उसी पर रहेगा कि रोज़गार कायम रहे.उसमें मालिक की इच्छा के अनुरूप अखबार निकालने की व्यवस्था उन पर हावी रहती है.
प्रश्न- उदारीकरण के बाद हिंदी अखबारों में में हुए परिवर्तन को आप किस दृष्टि से देखते हैं?
ओम थानवी- उदारीकरण के बाद अखबारों में पैसा आया है. विदेश से भी पैसा आया है और तकनीक बहुत उन्नत हो गई है. अखबारों की छपाई बहुत सुधरी है. अखबारों का प्रस्तुतिकरण, अखबारों के पन्ने की रूपरेखा, उनका कलेवर, उनका रंग-बिरंगा प्रकाशन और कम्प्यूटरों के प्रयोग से सामग्री को तैयार करने की सुविधा और वक्त, इन सब में काफी सुधार हुआ है. पर ये सारे तकनीकी सुधार हैं. प्रस्तुतिकरण बेहतर होने का मतलब यह नहीं होता कि सामग्री भी बेहतर हो गई. अब हकीकत यह है कि पत्र-पत्रिकाओं की छपाई अच्छी हुई है, साधन बढ़े हैं लेकिन उनका स्तर घटा है. क्योंकि कोई भी तकनीक, कोई भी कंप्यूटर आपको लिखना नहीं सिखा सकता.
प्रश्न- साज-सज्जा और प्रस्तुतिकरण तो ठीक हो गया है, लेकिन कथ्य, सूचनाओं की गति और गंभीरता में लगातार गिरावट आई है. इसके क्या कारण हैं?
ओम थानवी- हाँ, स्तर गिर गया है. वे चीज़ें नहीं आईं, वे सरोकार नहीं रहे, पत्रकारों में लिखने की वह हिम्मत नहीं रही, संपादकों में इतनी हिम्मत नहीं रही कि अपने पत्रकारों को इतनी छूट दे सकें. इन चीज़ों का तकनीक से कोई ताल्लुक ही नहीं है. आप एक बहुत अच्छा टेपरेकॉर्डर देकर अपने रिपोर्टर को खुश कर सकते हैं, लेकिन वह उसका इस्तेमाल क्या करेगा और इस्तेमाल की कितनी छूट आप उसको देंगे, इसकी गारंटी नई परिस्थिति में मिलती है.
प्रश्न- पत्रकारिता कर्म में हालांकि सम्पूर्ण जैसी कोई चीज़ नहीं होती, बावजूद इसके लगभग पूरे अखबार की कसौटी क्या हो सकती है?
ओम थानवी- देखिए, अखबार में अगर समाज के प्रति एक ज़िम्मेदारी का भाव नहीं है तो फिर उसे पत्रकारिता का दर्ज़ा नहीं दिया जा सकता. वह व्यवसाय हो सकता है, प्रचार हो सकता है, कुछ भी हो सकता है, पर पत्रकारिता नहीं. एक प्रतिष्ठान अपने प्रचार के लिए भी पत्रिका निकालता है. हमारे यहाँ ऐसे राजनीतिक दल हुए हैं जिन्होंने अपने प्रचार के लिए अखबार निकाले हैं. और देशों में भी निकलते रहे हैं, उनको हम पत्रकारिता नहीं कहते हैं. यहाँ तक कि गांधी जी की पत्रकारिता को लेकर भी यह सवाल उठाया जाता है कि वह पत्रकारिता सचमुच थी भी? समाज में ढेरों चीज़ें हैं जिनकी तरफ वैचारिक स्तर पर और दूसरे स्तरों पर भी एक समझ को, कुछ जानकारियों को साझा करने की अपेक्षा रहती है. गाँधी जी राजनीति को, सामजिक संरचनाओं को, कूटनीति की पत्रकारिता कर सकते थे, लेकिन सिनेमा और खेल की पत्रकारिता नहीं कर सकते थे. इस मायने में उनका एक मकसद था, जिसे लेकर वह पत्रकारिता थी.. लेकिन जिस पत्रकारिता को मैं सामाजिक पत्रकारिता कहता हूँ, जैसा कि अपने आप में पत्रकारिता का मतलब ही है सामाजिक होना, उसमें समाज के विविध पहलुओं पर एक समझ का साझा करना ज़रूरी है. यह कहना कि पत्रकारिता सिर्फ सूचनाओं का व्यवसाय है, गलत है. पत्रकारिता आपकी जानकारी ही नहीं बढ़ाती, आपकी समझ भी बढ़ाती है और वह समझ एक तरफ ले जाने वाली या किसी एक दिशा में हांकने वाली समझ नहीं है. इसलिए किसी एक पार्टी के मुखपत्र को मैं पत्रकारिता में शरीक नहीं करूँगा क्योंकि उनका एक दूसरा उद्देश्य है. जबकि पत्रकारिता का उद्देश्य उससे कहीं अधिक व्यापक है. उस किस्म की पत्रकारिता हो तो कहा जायेगा कि पत्रकारिता अपना काम कर रही है. लेकिन आज के दौर में लोग कहते हैं कि पत्रकारिता तो व्यवसाय है, किसी ने उसमें पैसा लगा रखा है और पैसा उसे वापस कैसे मिले इसकी भी परवाह करना उसी का काम है. चूँकि यह हमारा रोजगार है और जिसकी वजह से उसके हितों को हम नहीं देखेंगे तो वह हमारे हितों को क्यों देखेगा? तो इस तरह का कुचक्र स्थापित किया गया है. तथ्य यह है कि जो भी इस व्यवसाय आया है उसे इस दुनिया में प्रवेश करते वक्त ही इस बात का अहसास होना चाहिए कि यह व्यवसाय तो है लेकिन और तरह के व्यवसायों से अलग है. जूते बेचने और सूचना को प्रकाशित कर अखबार बेचने में फर्क होना चाहिए. क्योंकि शब्द का माध्यम उस तरह का व्यवसाय हो ही नहीं सकता जिस तरह जूते बनाने और बेचने का व्यवसाय होता है.
प्रश्न- बहुत सारे हिंदी समाचारपत्र विभिन्न राजनीतिक दलों के मुखपत्र का काम कर रहे हैं. इन समाचारपत्रों का पत्रकारिता जगत में क्या अस्तित्व है?
ओम थानवी- राडिया कांड के बाद तो बड़े-बड़े पत्रों पर भी शक की ऊँगली उठने लगी है कि वह किसका हित साध रहे हैं. वह अपने मालिक का हित साध रहे हैं इसमें भी शक है. वह किसी एक व्यवसायी का हित साध रहे हैं जो उनके अखबार का मालिक नहीं है य उनके टीवी चैनल का मालिक नहीं है. किस तरह के समीकरण पत्रकारों और उद्यमियों के बीच में बन रहे हैं, बहुत खतरनाक किस्म की स्थिति सामने आई है.
प्रश्न- लगभग पूरे को ही यदि खास अर्थों में कहें तो आजकल पत्रकारिता जगत में सम्पूर्ण अख़बारों का अकाल सा क्यों है?
ओम थानवी- सम्पूर्णता का बोध और सम्पूर्णता की समझ यह संपादक के विवेक पर निर्भर करता है. अगर योग्य संपादक नहीं है या संपादकों को काम करने की छूट देने वाली स्थितियां अनुकूल नहीं हैं यही परिस्थितियां पैदा होंगी, जो अभी हैं.
प्रश्न- हिंदी अख़बारों में उत्तर-पूर्व या दक्षिण भारत की ख़बरों को लेकर उपेक्षा का भाव क्यों है?
ओम थानवी- पत्र-पत्रिकाएं सोचती हैं कि जहाँ पर हमारा प्रसार है वहां की चीज़ ही बिकेगी. अन्य स्थानों की ख़बरों के बारे में लोगों की दिलचस्पी आंशिक होगी. देश-विदेश के समाचार हिंदी अख़बारों में बहुत कम छापते हैं. अपने देश में भी उत्तर-पूर्व और दक्षिण के बारे में कम छपती है क्योंकि उनका प्रसार उन क्षेत्रों में नहीं है. जो हिंदी अखबार पूर्वोत्तर में छपता है उसमें पूर्वोत्तर की ही ख़बरें होती हैं क्योंकि उनको अपना बाज़ार वहीं मिलता है. इसी तरह से उत्तर भारत में अब तो यहाँ तक होने लगा है कि बड़े अखबारों ने यानी जो बड़े स्तर पर निकलने वाले अखबार थे उन्होंने जिला स्तर के संस्करण निकाले हैं. उन जिला स्तर के संस्करणों में उन जिलों की ख़बरें हावी होती हैं. आपको कई दफा दूसरे जिलों की ख़बरें भी पता नहीं चलती, राज्य और देश की बात अलग है, दूर-दराज़ के राज्यों की बात अलग है. वे बड़े अखबार जिलों के अखबार बनकर रह गए हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि व्यापार इस इलाके में ज्यादा चमकेगा. लोगों को अपने इलाके की ख़बरों के बारे में दिलचस्पी पहले होती है हालांकि आंशिक स्तर पर ही सच है. लोग दूसरी दुनिया के बारे में भी जानना चाहते हैं बशर्ते आप उनको सलीके से और जानकारी भी पेश करें. लेकिन वे इतनी चटपटी और निरर्थक स्थानीय जानकारी अखबार में ठूंस देते हैं, जो दिलचस्प और बिकाऊ भी होती है, जिसके बीच पाठक यह सोच भी नहीं पाता कि यह उसका अधिकार है कि वह और जगहों की ख़बरों की मांग करे. उसे इसका अहसास भी नहीं हो पाता कि उन ख़बरों के अभाव में किस तरह से उसकी समझ का विकास अवरुद्ध हो रहा है. वह रंग-बिरंगी, चटपटी, आकर्षक, लुभावनी, मनमोहक प्रस्तुति से ही मोहाविष्ट रहता है और अखबारों को भी लगता है कि इससे उनकी ज्यादा बिक्री होती है. ज़िम्मेदारी की पत्रकारिता में बाज़ार बाद में आता है.
प्रश्न- हिंदी अखबारों में अंग्रेजी भाषा के बढते दबदबे के मुख्य कारण कौन से हैं?
ओम थानवी- इसके पीछे मालिकों का यह दुराग्रह है कि बोलचाल की भाषा में अंग्रेजी शब्द ज्यादा आते हैं और वही बोलचाल की भाषा जैसी सुनी जाती है अख़बारों में लिखी जानी चाहिए. उसे ज्यादा लोग पढेंगे तो अखबार ज्यादा बिकेगा. मैं मानता हूँ कि यह एक तरह का मिथ है जो मालिकों ने गढ़ दिया है. बोलचाल की भाषा हमेशा बोलचाल की भाषा होती है और उसमें बोलते वक्त हम उतने सजग नहीं रहते. चूँकि हम पर अंग्रेजी राज का बोझ पुराना है और उस बोझ के चलते अंग्रेजी भाषा, उसकी शब्दावली हमारे यहाँ नौकरशाही स लेकर सड़क तक खूब चलन में है तो बोलचाल में अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल आ गया है. भाषा हमेशा हमसे एक ज़िम्मेदारी का व्यवहार मांगती है. लिखते वक्त मैं उन शब्दों का इस्तेमाल करने से बचता हूँ जो बोलचाल में मैं अनायास कर जाता हूँ. अनायास जो बोली गई भाषा है वह बहुत ज़िम्मेदारी की भाषा नहीं है, वह बोलचाल की भाषा है. उस भाषा को, मालिक लोग मानते हैं, अगर लिखी जायेगी तो हर कोई समझेगा. सामाजिक परिस्थितियों के दबाव में अनायास अंग्रेजी के शब्द जो मुँह से निकल गए हैं उनके मूल हिंदी शब्द भी वह समाज जानता है. यह सोचना कि अंग्रेजी शब्द का इस्तेमाल हो गया तो बाकी शब्दावली लोग भूल गए हैं, यह भूल है.
प्रश्न- निकट भविष्य में अखबारों में अंग्रेजी के दबदबे से मुक्ति की क्या कोई सम्भावना है?
ओम थानवी- मुझे लगता है कि देर-सबेर इस पर फिर नए सिरे से सोच-विचार शुरु होगा, वर्ना ऐसी खिचड़ी, बल्कि कहना चाहिए ऐसी कीचड़ भाषा, चलन में आ जायेगी कि उस दलदल को देखकर लोग खुद सोचेंगे हम लोग गलत जगह आ पहुंचे हैं. हमारे पास बड़ी समृद्ध भाषा है. वास्तविकता यह है कि हिंदी हर मायने में अंग्रेजी से बेहतर भाषा है और हमारे पास बेहतर शब्दावली है. अंग्रेजी में ‘डायमंड जुबली’ के लिए कोश भी पर्यायवाची नहीं सुझाता. सिल्वर जुबली के लिए है रजत जयंती, स्वर्ण जयंती है, हीरक जयंती है साठ साल का होने पर. किंतु कोई पचहत्तर साल का हो तो हम लोग डायमंड जुबली मनाएं उसे हिंदी में क्या कहेंगे. कोई कहेगा कि जब शब्द नहीं है तो डायमंड जुबली लिखा जाना चाहिए. जबकि हमारे यहाँ जब लोग विवेक से सोच रहे थे तो उन्होंने ७५ साल के लिए ‘अमृत महोत्सव’ शब्द दिया. हमेशा अनुवाद की भाषा में क्यों सोचा जाए. हर प्रयोग के लिए कोष ही क्यों देखा जाए. आप उसका अर्थ देखें. तो नया शब्द सामने आएगा और कोश में जुड़ जायेगा. और इस तरह से कोश भी समृद्ध होगा. जैसा कि उपरोक्त उदाहरण है, जो चलन में है. लेकिन इसकी सम्भावना अब धीरे-धीरे कम होती जा रही है. लोग सोचते हैं कि ‘अमृत महोत्सव’ कौन समझेगा. लोग डायमंड जुबली समझेंगे.
प्रश्न- आज बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जिनकी ख़बरें लगभग न के बराबर होती हैं, जैसे विज्ञान, कला, चिकित्सा, संस्कृति आदि. इसके प्रमुख कारण क्या हैं?
ओम थानवी- जो सम्पादकीय विवेक पत्र-पत्रिकाओं के पीछे नज़र आना चाहिए, उसका लोप है. उसमें पहली बार संपादक को अगर साहित्य में दिलचस्पी है तो अखबार में साहित्य की ज़रूरत को भी वह समझेगा. हर चीज़ तो अखबार में बिकती नहीं है. जैसा कि मैंने कहा अखबार का काम समाज की समझ बढ़ाना है, ऐसी चीज़ें साझा करना भी है जो न बिकती हों. इसीलिए दूसरे व्यापार से यह अलग व्यापार है. तो विज्ञान की खबर, कृषि की खबर, अकाल की खबर, सूखे की खबर, ये सामाजिक ज़िम्मेदारी की चीज़ें हैं. इस ज़िम्मेदारी का बोध जब तक नहीं होता तब तक संपादक का ध्यान ही नहीं जायेगा.
प्रश्न- व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कुछ पत्रकारों द्वारा पत्रकारिता का दुरूपयोग इधर बड़े पैमाने पर किया गया है, राडिया प्रकरण इसका नवीनतम उदाहरण है. कहना न होगा कि इससे पत्रकारिता की वैधता भी प्रभावित हुई है. इन प्रकरणों को आप पत्रकारिता के सन्दर्भ में किस रूप में देखना चाहेंगे?
ओम थानवी- अगर इस तरह से पत्रकारिता का पतन जारी रहा तो लोगों का विश्वास उठ जायेगा. अब तक हाल यह था कि लोग राजनेताओं से ऊब चुके थे, नौकरशाही से उन्हें कोई उम्मीद नहीं थी, यहाँ तक कि न्यायपालिका तक से मोहभंग जब-तब होने लगा था. लेकिन पत्रकारिता से लोगों को लगता था कि यह एक ऐसी दुनिया है जो ज़िम्मेदार है. विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका पर भी एक ऐसी संस्था है जो नज़र रखती है. लोगों का यह विश्वास खंडित हो गया है. यही स्थिति जारी रही तो पत्रकार लोगों के बीच उठने-बैठने के काबिल नहीं रहेंगे. जो सम्मान हासिल है, उसे खो देंगे. एक लोकतंत्र के लिए इससे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति शायद होगी.
प्रश्न- ‘जनसत्ता’ हिंदी का विशिष्ट अखबार माना जाता है. संपादन में आप किन बातों का विशिष्ट ध्यान देते हैं?
ओम थानवी- हमारी कोशिश यही रहती है कि परिस्थितियां जैसी भी हों उनके बीच हमको अपनी जगह बनानी चाहिए. हमारे पास लोग कम हैं, पैसा कम है, साधन कम हैं, लेकिन जो लोग हमारे साथ ‘जनसत्ता’ में काम करते हैं उनके पास अपनी समझ है. जैसा अखबार हम निकलते हैं हम जानते हैं उससे अच्छा अखबार निकाला जा सकता है. धीरे-धीरे कई मुश्किलें दूर हुई हैं. अखबार के पन्ने बढे हैं, अखबार की छापे आदि में भी सुधार हुआ है. अगर कुछ और ज़रूरी लोग हम जोड़ सके जो खेल, कृषि, संस्कृति, विश्व-जगत, कूटनीति आदि में निष्णात हों तो ‘जनसत्ता’ हिंदी में और ऊंची जगह पायेगा.
प्रश्न- आजकल बड़े और सुलझे पत्रकारों के नाम पर बहुत कम नाम जेहन में आते हैं, इसकी मुख्य वजह क्या है? पत्रकारिता की गंभीरता कम हुई है या पत्रकारों के सरोकार सीमित हुए हैं?
ओम थानवी- आम लोगों की दिलचस्पी टीवी की पत्रकारिता में ज्यादा है. वह आपको लुभाती है, उससे आपको पहचान मिलती है. लेकिन इस सबसे बड़ी बात यह है कि उसमें पैसा खूब मिलता है और इस स्थिति में जो छापे की पत्रकारिता है उसमें लोगों की दिलचस्पी घट जाती है. आपको ऐसा पत्रकार आसानी से नहीं मिलेगा जिसे अगर टीवी में ज्यादा पैसे मिले तो वह टीवी में जाने का लालच छोड़कर अखबार में टिके रहना पसंद करे. दूसरे, ज्यादा पढ़-लिखकर, ज्यादा पढ़ने का मतलब ज्यादा डिग्रियां हासिल करके नहीं, लेकिन विज्ञान की, समाज की, दुनिया की, खेल की, सिनेमा की, साहित्य की यानी विभिन्न विषयों की अच्छी जानकारी रखने वाले लोग और उसे अच्छी भाषा में व्यक्त कर सकने वाले लोग, पत्रकारिता में कम आ रहे हैं.
प्रश्न- उदारीकरण के दौर में दलित विमर्श और स्त्री विमर्श ज्वलंत मुद्दे के रूप में उभरे हैं. आपको क्या लगता है कि समाचारपत्रों में इन मुद्दों को जितना स्थान और अवसर मिलना चाहिए था, उतना मिला है?
ओम थानवी- बिलकुल नहीं. मेरा मानना है कि दलित विमर्श को तो कुछ जगह मिल जाती है लेकिन स्त्री विमर्श उससे भी संकुचित जगह पाता है. मुझे नहीं ख्याल पड़ता कि कितने अखबारों में स्त्रियां स्तंभ लिख रही हैं. हिंदी अखबारों में स्थिति बहुत विकट है. वैसे भी उनके ज़्यादातर स्तंभकार अंग्रेजी अखबारों के स्तंभकार हैं.
‘समयांतर’ से साभार
 
      

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