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रोजनामचा है, कल्पना है, अनुभव है!

हाल में ही रज़ा पुस्तकमाला के तहत वाणी प्रकाशन से युवा इतिहासकार-लेखक सदन झा की ललित गद्य की पुस्तक आई है ‘हाफ सेट चाय और कुछ यूँही’. प्रस्तुत है उसकी भूमिका और कुछ गद्यांश- मॉडरेटर

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किताब के बारे में:

एक रोजनामचा है. यहाँ कल्पना है, अनुभव है. दोस्तों के बीच खुद को बहलाने की कवायद है. गप्पबाजी है और अकेलेपन को बिसरा देने के लिए स्मृतियों कि गठरी है: मैली सी, जहां तहां से फटी हुई सी पर फिर भी ठहरी एक गठरी. दूसरी तरह से कहें तो यात्रा का नाम दिया जा सकता है: भटकाव की डोर थामे चलते चले जाने जैसा कुछ. लेकिन भटकाव का वेग कुछ ऐसा कि एक पगडंडी कहाँ दूसरी में मिलकर पौने तीन कदम पर ही जाने किस तरफ मुड़ जाय. किसी तय राह पर कुछ दूर तक निभा जाने को जैसे असमर्थ हों ये शब्द. पौने तीन या कभी कभी तो ढाई या फिर सवा कदम पर ही राह बदलने को अभिशप्त भटकते शब्द.

” हिंदी‌‌ में औपचारिकता का‌ ऐसा वर्चस्व सा है कि अनौपचारिकता अक्सर जगह नहीं पाता। सदन झा का गद्द यहां से वहां सहज भाव से जाने की विधा है।” अशोक वाजपेयी ।

वाणी प्रकाशन और रजा फाउंडेशन दिल्ली से 2018 में प्रकाशित यह किताब लघु कथाओं, यात्रा-डायरी और जिन्दगी के आम लम्हों पर की गयी टिप्पणियों का संग्रह है हाफ सेट चाय. यहाँ लन्दन की ब्रिटिश लाइब्रेरी की दुपहरिया है तो दरभंगा के नकटी गली का भय और स्कूल से वापस लौटाता बचपन भी, समसामयिक राजनैतिक वातावरण है तो स्मृतियों का अवकाश भी.

राजधानी 

1

2033 ई. राजस्थान में राष्ट्रीय राजमार्ग से बीस किलोमीटर दक्षिण, रात के सवा दो बजे उन दोनों की सांसें बहुत तेज चल रही थीं. फिर, उस एसी टेंट में सन्नाटा पसर गया. दोनों ही को गहरी नींद ने अपने आगोश में ले लिया।

यह सौ- सवा सौ किलोमीटर का टुकड़ा कभी निरापद और वीरान हुआ करता था, जहां रोड और हॉरर फिल्मों की प्लॉट तलाशते हुए हिंदी सिनेमा वाले कभी आया करते थे। यही जगह पिछले पांच सालों से ऐसे अनगिनत एसी तंबूओं और उनमें निढाल हुए इंजीनियरों, प्लानरों, ऑर्किटेक्ट, ब्यूरोक्रेट और खूबसूरत मर्दाने सेफ से अटा पड़ा है।

2 

निशा अभी-अभी तो मसूरी से निकली है और सीधे पीएमओ से उसे यहां भेज दिया गया, स्पेशल असाइनमेंट पर। निशीथ अभी-अभी तो स्विट्जरलैंड से हॉटल मैनेजमेंट का कोर्स कर लौटा और लीला ग्रुप ने अपने सेटअप की जिम्मेदारी देते हुए यहां भेज दिया।

दस साल में कितना कुछ बदल जाता है। पिछली बार, शारदापुर में छोटकी पीसिया की जइधी की शादी में एक क्षण देखा था। हाय-हेलो होकर रह गया था। नंबर और ईमेल एक्सचेंज भी नहीं कर पाया। कई दफे फेसबुक पेज पर जाकर भी फ्रेंड रिक्वेस्ट नहीं भेज पाया। आखिर दूसरे तरफ से भी तो पहल हो सकता था। पहल करने के मामले में निशी भी पुराने ख्याल की ही थी। कोल्ड फीट डेवलप कर लेती। और… उस भागम भाग माहौल में दोनों के पास यदि कुछ बचा रह गया तो महज एक जोड़ी नाम और दो जोड़ी आंखें। और आज वही नाम, वही आँखे एक दूसरे से मिल गये। अब सब कुछ शांत।

टेंट में आई पैड पर बहुत हल्के वॉल्यूम में अमजद अली का सरोद बजता रहा। निशी की यह अजीब सी आदत जो ठहरी, जहां जाती उसके ठीक उलट संगीत ले जाती। पहाड़ों पर डेजर्ट साउंडस्केप के साथ घूमती और रेगिस्तान में कश्मीर को तलाशा करती। जल तरंग और सरोद।

 

3 

टेंट कुछ ऊंचाई पर था। इंजीनियरों और आर्किटेक्टों से भी थोड़ा हटकर। सामने नीचे सौ-सवा सौ किलोमीटर का नजारा। नियॉन रोशनी में नहाई रात अब तनहा तो न थी। सामने जहाँ तक नजर जाती रोशनी ही रोशनी। दैत्याकार मशीन, सीमेंट, लोहे, प्रीफैब्रिकैटिड स्लैव, क्रेन, और असंख्य चीनी और बिहारी मजदूर। उधर, दूर इन मजदूरों की बस्ती से आती बिरहा की आवाज सरोद की धुन में मिल गयी थी।

‘चलु मन जहां वसइ प्रीतम हो, वैरागी यार

आठहि काठ केर खटिया हो, चौदिस लागल कहार…’

 

4 

एक सौ साल पहले कुछ ऐसा ही तो मंजर रहा होगा, जब दिल्ली की रायसीना की पहाड़ियां सज कर तैयार हुई होंगी।

 समय बदला, लोग बदले, तकनीक बदला। वही दिल्ली रहने लायक न रही। हवा और पानी भला कहां जात-पांत, पैसा, ओहदा माने। पहले-पहले तो गरीब-गुरबे अस्पताल जाते मिले। नेता, अफसर और प्रोफेसर निश्चिंत सोते रहे।

पर, जब हवा ही जहरीली हो तो किसकी सुने?

फिर, मीटिंग बुलाया गया।

5

रातों-रात अफ्सरों को जगाया गया। सबसे कंजरवेटिव अफसरों और सबसे रैडिकल प्लानरों को सुबह पौने सात बजे तक हॉल में आ जाना था। डिफेंस, रियल स्टेट, पर्यावरण साइंटिस्ट, मिट्टी के जानकार, पानी के एक्सपर्ट, मरीन बॉयोलोजिस्ट सभी को लाने का जिम्मा अलग-अलग सौंप दिया गया था।

उद्योगपतियों और मीडिया हॉउस के पॉंइंट मेन को अपने दरवाजे पर पौने पाँच बजे तैयार खड़ा रहना था जहाँ से उन्हें सबसे नजदीकी सैन्य हवाई अड्डे तक रोड से या हेलीकॉप्टर से ले जाने का प्रबंध कर दिया गया था। यहाँ तक कि ट्रैफिक कमिश्नरों को इत्तला दे दी गयी थी कि अपने महकमे के सबसे चुस्त अधिकारियों के साथ वे ऐसे खास ऐडरेसेज और हेलीपैड या एयर बेस के बीच के यातायात पर खुद निगरानी रखें। पर, किसी और से इसका जिक्र न करने की सख्त हिदायत भी साथ ही दिया गया था। पौने सात बजने से ढ़ाई मिनट पहले उस विशालकाय मीटिंग हॉल की सभी मेज पर हर कुर्सी भर चुकी थी। सभी के सामने एक और मात्र एक सफेद कागज का टुकड़ा और एक कलम रखा था।

पीरियड।

लेकिन एक ही पेज क्यों, लेटर पैड क्यों नहीं? नजरें और चेहरे खाली कुर्सी पर टिकी थी जो उस हैक्सागोनल हॉल के किसी भी कोने से साफ दिखता था। और, जिस कुर्सी से उस हॉल की हर कुर्सी पर बैठे आंखो की रंगत को पहचाना जा सकता था। यह एक अदभुत मीटिंग था। आज देश की सबसे विकट समस्या का हल ढूंढ़ना था। हवा के बारे में बातें करनी थी, जो बिगड़ चुकी थी। आज राजधानी को बदलने की योजना तय होनी थी। आज निशा, निशीथ और उनके जैसे असंख्य की जिंदगी की दिशा तय होनी थी।

आज ही के मीटिंग में रेगिस्तान की जमीन पर सरोद का बिरहा से मिलन तय होना था। आज ही तो तय होना था कि निशीथ की पीठ पर दायें से थोड़ा हटकर नाखून की एक इबारत हमेशा के लिए रह जाएगी।

एक खुरदरे टीस की तरह…

सदन झा सूरत स्थित सेंटर फॉर सोशल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.

 
      

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3 comments

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