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राकेश रेणु की कुछ कविताएँ

चुप्पा कवि राकेश रेणु का कविता संग्रह भी इस मेले में मौजूद है ‘इसी से बचा जीवन’, जो लोकमित्र प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. शायद इस बात को राकेश जी भी न जानते हों कि सीतामढ़ी में रहते हुए अपने शहर के जिस बड़े लेखक-कवि की तरह मैं बनना चाहता था वे राकेश रेणु ही थे. आप उनकी कविताएँ पढ़िए- मॉडरेटर

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स्त्री एक
एक दाना दो
वह अनेक दाने देगी
अन्न के।
एक बीज दो
वह विशाल वृक्ष सिरजेगी
घनी छाया और फल के।
एक कुआँ खोदो
वह जल देगी शीतल
अनेक समय तक अनेक लोगों को
तृप्त करती।
धरती को कुछ भी दो
वह और बड़ा,
दोहरा-तिहरा करके लौटाएगी

धरती ने बनाया जीवन सरस,

रहने-सहने और प्रेम करने लायक

स्त्रियाँ क्या धरती जैसी होती हैं ?

स्त्री दो

यह जो जल है विशाल जलराशि का अँश
इसी ने रचा जीवन
इसी ने रची सृष्टि।
यह जो मिट्टी है, टुकड़ाभर है
ब्रह्मांड के अनेकानेक ग्रह नक्षत्रों में
इसी के तृणाँश हम।
यह जो हवा है
हमें रचती बहती है
हमारे भीतर–बाहर प्रवाहित।
ये जो बादल हैं
अकूत जलराशि लिए फिरते
अपने अंगोछे में
जल ने रचा इन्हें हमारे साथ-साथ

उन्होंने जल को

दोनों समवेत रचते हैं पृथ्वी-सृष्टि।

ये वन, अग्नि, अकास-बतास

सबने रचा हमें

प्रेम का अजस्र स्रोत हैं ये

रचते सबको जो भी संपर्क में आया इनके।
क्या पृथ्वी, जल,
अकास, बतास ने सीखा
सिरजना स्त्री से
याकि स्त्री ने सीखा इनसे ?
कौन आया पहले
पृथ्वी, जल, अकास, बतास
या कि स्त्री ?

 स्त्री तीन

वे जो महुये के फूल बीन रही थीं

फूल हरसिंगार के

प्रेम में निमग्न थीं

वे जो गोबर पाथ रही थीं

वे जो रोटी सेंक रही थीं

वे जो बिटियों को स्कूल भेज रही थीं

सब प्रेम में निमग्न थीं।

वे जो चुने हुए फूल एक-एक कर

पिरो रही थीं माला में

अर्पित कर रही थीं

उन्हें अपने आराध्य को

प्रेम में निमग्न थीं

स्त्रियाँ जो थीं, जहाँ थीं

प्रेम में निमग्न थीं

उन्होंने जो किया-

जब भी जैसे भी

प्रेम में निमग्न रहकर किया

स्त्रियों से बचा रहा प्रेम पृथ्वी पर

प्रेममय जो है

स्त्रियों ने रचा।

 

स्त्रीचार

 

वे जो चली जा रही हैं क़तारबद्ध,

गुनगुनाती, अंडे उठाए चीटियाँ

स्त्रियाँ हैं ।

वे जो निरंतर बैठी हैं

ऊष्मा सहेजती डिंब की

चिड़ियाँ, स्त्रियाँ हैं।

जो बाँट रही हैं चुग्गा

भूख और थकान से बेपरवाह

स्त्रियाँ हैं ।

जीभ से जो हटा रही हैं तरल दुःख

और भर रही हैं जीवन

चाटकर नवजात का तन

स्त्रियाँ हैं ।

जो उठाए ले जा रही हैं

एक-एक को

पालना बनाए मुँह को

स्त्रियाँ हैं।

 

स्त्रियाँ जहाँ कहीं हैं

प्रेम में निमग्न हैं

एक हाथ से थामे दलन का पहिया

दूसरे से सिरज रही दुनिया।

 

स्त्री  पाँच

जो राँधी जा रही थीं

सिंक रही थीं धीमी आँच में तवे पर

जो खुद रसोई थीं रसोई पकाती हुई

स्त्रियाँ थीं।

व्यंजन की तरह सजाए जाने से पहले

जिनने सजाया खुद को

अनचिन्ही आँखों से बस जाने के लिए

वे स्त्रियाँ थीं

शिशु के मुँह से लिपटी

या प्रेमी के सीने से दबी

जो बदन थीं, खालिश स्तन

स्त्रियाँ थीं

जो तोड़ी जा रही थीं

अपनी ही शाख से

वे स्त्रियाँ ही थीं।

वे कादो बना लेती थीं खुद को

और रोपती जाती थीं बिचड़े

अपने शरीर के खेत में।

साग टूंगते हुए वे बना लेती थीं

 

खुद को झोली

जमा करती जाती थीं

बैंगन, झिंगनी, साग, या कुछ भी

और ऐसे चलतीं जैसे गाभिन बकरी

जैसे छौने लिए जा रही कंगारु माँ

वो एक बड़ा आगार थीं

जो कभी खाली न होता था

देखना कठिन था

लेकिन उनका खालीपन

सूना कोना-आँतर!

 

स्त्रीछह

 

मैं स्त्री होना चाहता हूँ।

वह दुख समझना चाहता हूँ

जो उठाती हैं स्त्रियाँ

उनके प्रेमपगे आस्वाद को किरकिरा करने वाली

जानना चाहता हूँ

जनम से लेकर मृत्यु तक

हलाहल पीना चाहता हूँ

प्रतारणा और अपमान का

जो वो पीती हैं ताउम्र

महसूसना चाहता हूँ

नर और मादा के बीच में भेद का

कांटे की चुभन

नज़रों का चाकू कैसे बेधता है

कैसे जलाती है

लपलपाती जीभ की ज्वाला

स्त्रीमन की उपेक्षा की पुरुषवादी प्रवृत्ति

मैं स्त्री होना चाहता हूँ

 

उनकी सतत मुस्कुराहट

पनीली आँखों

कोमल तंतुओं का रचाव

और उत्स समझना चाहता हूँ

मैं स्त्री होना चाहता हूँ।  

 

संताप

 

हँसते-हँसते वह चीखने लगी

फिर चुप हो गई।

उसकी इठलाती कई-कई मुद्राएँ कैद हैं मोबाइल में

अब एक अदम्य दुख से अकड़ा जा रहा उसका तन

वह ठोक रही धरती का सीना अपनी हथेलियों से

न फटती है वो न कोई धार फूटती है।

 

उसकी चीख में शामिल है

सूनी मांग की पीड़ा

उस आदमी के जाने का दुख

बैल की तरह जुतने के बाद भी

जो बचा ना पाया अपने खेत।

उसकी चीख में शामिल

अबोध लड़की का दुख

हमारे समय की तमाम लड़कियों, औरतों की चीख

रौंद डाले गए जिनकी इच्छाओं

और संभावनाओं के इंद्रधनुष।

उनकी चीख में शामिल

मर्दाना अभिमान का दुख

धर्म और जात का दुख

प्रेम के तिरोहन का दुख।

 

उसकी चीख में शामिल

इस अकाल-काल का दुख।

 

अनुनय

 

उदास किसान के गान की तरह

शिशु की मुस्कान की तरह

खेतों में बरसात की तरह

नदियों में प्रवाह की तरह लौटो।

 

लौट आओ

जैसे लौटती है सुबह

अँधेरी रात के बाद

जैसे सूरज लौट आता है

सर्द और कठुआए मौसम में

जैसे जनवरी के बाद फरवरी लौटता है

फूस-माघ के बाद फागुन, वैसे ही

वसंत बन कर लौटो तुम !

 

लौट आओ

पेड़ों पर बौर की तरह

थनों में दूध की तरह

जैसे लौटता है साइबेरियाई पक्षी सात समुंदर पार से

प्रेम करने के लिए इसी धरा पर ।

प्रेमी की प्रार्थना की तरह

लहराती लहरों की तरह लौटो !

 

लौट आओ

कि लौटना बुरा नहीं है

यदि लौटा जाए जीवन की तरह

हेय नहीं लौटना

यदि लौटा जाए गति और प्रवाह की तरह

न ही अपमानजनक है लौटना

यदि संजोये हो वह सृजन के अंकुर

लौटने से ही संभव हुई

ऋतुएँ, फसलें, जीवन, दिन-रात

लौटो लौटने में सिमटी हैं संभावनाएँ अनंत !

प्रतीक्षा- 

यह ध्यान की सबसे जरूरी स्थिति है
पर उतनी ही उपेक्षित
निज के तिरोहन
और समर्पण के उत्कर्ष की स्थिति
कुछ भी इतना महत्त्वपूर्ण नहीं
जितनी प्रतीक्षा
प्रियतम के संवाद की, संस्पर्श की
मुस्कान की प्रतीक्षा।

 

चुपचाप 

 

बूंदें गिर रही हैं बादल से

एकरस, धीरे-धीरे, चुपचाप।

पत्ते झरते हैं भीगी टहनियों से

पीले-गीले-अनचाहे, चुपचाप।

रात झर रही है पृथ्वी पर

रुआँसी, बादलों, पियराये पत्तों सी, चुपचाप।

अव्यक्त दुख से भरी

अश्रुपूरित नेत्रों से

विदा लेती है प्रेयसी, चुपचाप।

पीड़ित हृदय, भारी कदमों से

लौटता है पथिक, चुपचाप।

उम्मीद और सपनों भरा जीवन

इस तरह घटित होता है, चुपचाप।

 

 

विध्वंस

प्रथमेश गणेश ने दे मारी है सूँढ़

धरती के बृहद नगाड़े पर

और दसों दिशाओं में गूँजने लगी है

नगाड़े की आवाज़ – ढमढम ढमढम

आधी रात निकल पड़े हैं धर्मवीरों के झुण्ड

तरह तरह के रूप धरे

इस बृहद ढमढम की संगत में

मुख्य मार्गों को रौंदते

टेम्पो, ट्रकों, दैत्याकार वाहनों में

अपनी आवाज़ बहुगुणित करते

वे लाएँगे – लाकर मानेंगे

एक नया युग – धर्मयुग, पृथ्वी पर

निर्णायक है समय, साल

यहीं से आरंभ होना है नवयुग

तैयारी शुरू कर दी गई है समय रहते-

बस अभी, यहीं, इसी रात से।

 

इस युग में कुछ न होगा धर्म के सिवा

केवल एक रंग उगेगा

सूरज के साथ चलेगा एक रंग

पसर जाएगा आसमान में

छीनते हुए उसका नीलापन

पहाड़ों से छीन लेगा धूसर रंग

धरती से छीनी जा सकती है हरीतिमा

 

वे जो रंग न पाएँगे

उस एक पवित्र रंग में

ओढा दिया जाएगा उनपर

लाल रंग रक्तिम

धरती की उर्वरा बढाएँगे वे अपने रक्त से।

महाद्वीप के इस भूभाग की धरती

सुनेगी केवल एक गीत, एक लय, एक सुर में

ओढ़ेगी अब महज एक रंग

एक सा पहनेगी

बोलेगी एक सी भाषा में एक सी बात

मतभेद की कोई गुंजाइश नहीं रह जाएगी

गाएगी एक सुर में धर्मगान।

 

कोई दूसरा रंग, राग-लय-गान

बचा न रहेगा- बचने न पाएगा

धरती करेगी एक सुर में विलाप!

 

 

 

 

फैसला

 

एक बार कुत्तों की सभा लगी

और एक स्वर में

औपचारिक भौंक भरे स्वागत के बाद

प्रधान कुत्ते के इशारे पर प्रस्ताव रखा गया

कि तमाम मरियल- नामालूम से कमजोर कुत्तों को

देश से बाहर खदेड़ दिया जाए

वे हमारी जात के हो नहीं सकते

इतने मरियल-संड़ियल से

राष्ट्रीय विकास के महान लक्ष्य में

हो नहीं सकता इनका कोई योगदान

वैसे भी ये बाहर से आए घुसपैठिये हैं

हमारे हिस्से का खाएँगे और हमारी ऊँची कौम खराब करेंगे

हमारे संसाधनों पर बोझ हैं वे

घुस आए हैं हमारी बस्ती में पड़ोसी बस्तियों से

उन बस्तियों से जो हैं तो छोटे, कीट-फतिंगों से

कि जिनके बारे में कहा जाता है

विकास के पैमानों पर आगे हैं हम से

लेकिन हम उनकी परवाह क्यों करें?

क्या हम मनुष्य हैं कि मानवता की बात करें?

मानवीय सूचकांकों से डरें?

वैसे भी भूख के सूचकांक में या स्वास्थ्य के सूचकांक में या फिर

शिक्षा के सूचकांक में या आमदनी और रोज़गार के सूचकांक में

जो हमें पीछे दिखाया जा रहा है साल-दर-साल

-कहा वज़ीरे दाख़िला कुत्ते ने-

यह एक साजिश का हिस्सा है विरोधियों का

प्रमुख विपक्षी दल ने जो है तो पर नहीं होने जैसा है

उसकी सांठगांठ है विदेशी कुत्ता शत्रुओं से

उसके नतीजतन हमें पिछड़ता दिखाया जा रहा है

ध्यान रहे हम विकास की दौड़ में हैं, बहुत आगे हैं

अब तो कह दिया है अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने, मित्र राष्ट्रों और मित्र कारपोरेटों ने भी

कि जल्दी ही सबसे आगे निकलने वाले हैं हम दुनियाभर में सबसे आगे

फिर हम क्यों डरें, क्यों परवा करें?

लिहाजा प्रस्ताव किया जाता है

प्रस्ताव क्या, फैसला किया जाता है

कि सभी मरियल, नामालूम से, कमजोर कुत्तों को

घुसपैठिया घोषित किया जाए

बंद कर दी जाए उन्हें मिलने वाली तमाम सुविधाएँ तत्काल प्रभाव से

और जल्दी से जल्दी उन्हें देश से बाहर किया जाए।

 

सभासद सभी कुत्तों ने

प्रस्ताव का समर्थन किया एक सुर से

तनिक गुर्राहट, तनिक भौंक के अनोखे, रोमाँचक मेल के साथ

मानो कह रहे हों- साधु! साधु!

 

ये जो हम देखते हैं

सड़कों, गलियों, मोहल्लों में

मरियल, कमजोर, अजनबी (?) कुत्ते को घेर

भौंकते, काटते, डाँटते और गाहे-बेगाहे जान से मारते कुत्तों के समूह

ये उसी बड़े फैसले पर अमल की तैयारी है

कुत्तों के कार्यकर्त्ता और राष्ट्र सेवक

चौकस हैं दिन-रात

अब कोई बाहरी रह नहीं पाएगा

कुत्ता राज में।

 

मैं तुम्हें प्यार करता हूँएक

मैं तुम्हें प्यार करता हूँ

क्योंकि तुम पृथ्वी से प्यार करती हो।

मैं तुममें बसता हूँ

क्योंकि तुम सभ्यताएँ सिरजती हो।

 

पृथ्वी का खारापन तुमसे

उसके आँचल के जल की मिठास तुम

तुमने सिरजे वृक्ष, वन, पर्वत, पवन

तुमने सिरजे जीव, जन

ओ स्त्री, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।

क्योंकि तुम पृथ्वी से प्यार करती हो।

 

भाषा की जड़ों में तुम हो।

हर विचार, हर दर्शन रूपायित तुमसे

हर खोज, हर शोध की वजह तुम हो

सभ्यता की कोमलतम भावनाएँ तुमसे

कुम्हार ने तुमसे सीखा सिरजना

मूर्तिकार की तुम प्रेरणा

चित्रकार के चित्रों में तुम हो

हर दुआ, दुलार तुमसे

नर्तकी का नर्तन तुम हो।

संगतकार का वादन

रचना का उत्कर्ष तुम हो।

 

मैं तुममें बसता हूँ

क्योंकि तुम सभ्यताएँ सिरजती हो।

 

मैं तुम्हें प्यार करता हूँदो

जो कुछ सोंचू

लिखूँ कोई भी अक्षर

कोई शब्द

उसमें तुम दिखो

जो मैं लिखूँ नीम

तुम्हारी छवि उभर आए

जो कहूँ धान

बालियों की जगह

तुम्हारा चेहरा नज़र आए।

बांस के झुड़मुट में हँसती तुम दिखो जो कहूँ बांस

वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर से

तुम्हारा कम से कम एक

नाम रखना चाहता हूँ

कम अज कम उनचास

नाम तो हों तुम्हारे

और उनचास ही क्यों

उनचास अलग-अलग नाम हों।

अलग-अलग वर्णों से

मसलन उनचास पेड़

उनचास पक्षी

उनचास फूल

उतने ही प्रकार के अन्न

और उनचास स्थान हों या देश

या नदियाँ, पर्वत, घाटियाँ, झीलें

कम अज कम उनचास नक्षत्र तो हों

क्या इतने ग्रह होंगे ज्ञात नक्षत्रों के?

 

सभ्यता को रचने वाले

कितने लोगों के नाम याद हमें

कितने वैज्ञानिकों, संगीतज्ञों, कवियों, विचारकों के नाम

कम से कम उनचास तो होंगे ही न

यानी हर अक्षर से एक-एक?

सबको याद करना चाहता हूँ

देखना चाहता हूँ सबका चेहरा

प्रेमपगा तुम्हारे चेहरे में

किस अथाह प्रेम में उनने रची मनुष्यता

संस्कृति पृथ्वी की।

 

 

 

 

 

अप्सरा- एक

हमारी मनीषा की सबसे सुंदर कृति है वह

अनिंद्य सुंदरी, अक्षत यौवना

सदैव केलि-आतुर, अक्षत कुमारी

ऋषियों, राजर्षियों, राजभोगियों को सुलभ

पृथ्वी पर नहीं देवलोक में बसती है

जब चाहे विचरण कर सकती है पृथ्वी पर

उसके बारे में सुन-पढ़-जान कर

आह्लादित होती है पृथ्वी की प्रजा

 

कहते हैं मानवीय संवेदनाओं से मुक्त होती है वह

नहीं बांधता उसे प्रेमी अथवा संतति मोह

वह हमेशा गर्वोन्नत होती है

अपने सौंदर्य, शरीर सौष्ठव और सतत कामेच्छा से युक्त

 

पुरुष सत्तात्मक समाज में

भोग की अक्षत परंपरा है वह

लागू नहीं होते शील के

मध्यवर्गीय मानदंड उसपर

न उनके साथी पर

ऋषि बना रह सकता ऋषि, तत्ववेत्ता, समाज सुधारक, सिद्धांतकार

राजा केवल अपनी थकान मिटाता है,

वह फैसले सुना सकता दुराचार के खिलाफ

 

कौमार्य, यौवन

और सतत् कामेच्छा के सूत्र बेचने वाले

क्या तब भी मौजूद थे देवलोक में ?

 

अप्सरा- -दो

जहाँ चाहो उपलब्ध करा देंगे

घर, उपवन, वन में

अनादि काल से गोपनीय और दैवलोक के लिए आरक्षित रसायन

प्रजा हर्षित हो

परंपरा से गुप्त रसायन

वे उतार लाए हैं धरा पर

पृथ्वी पर बढ़ने लगी है संख्या उनकी

ऋषि, राजा, अप्सरा के साथ-साथ।

 

अप्सरा- तीन

 

हमारे समय में

वह तोड़ती है बेड़ियाँ

अपने अक्षत यौवन से

अनादि काल से मजबूत

पितृ सत्तात्मक व्यवस्था की बेड़ियाँ

वह मुक्त होती है

काम मार्ग से, योनि मार्ग से

वह मुक्त होती है

चराचर के समस्त बंधनों से

संबंधों से, समाज से, परंपरा से

 

वह मुक्त होती है अपनी

तरलता और सरलता से

अंतरित होती है नवीन काया में

नई व्यवस्थाएँ रचती है

निःसृत होती है काम मार्ग से

 

कसती है मोहिनी, माया का पाश

देव, ऋषि, वृक्ष-वन, नदी से गुजरती है

वह कसती है मनुज को पाश में अपने

और मुक्त होती है परंपरा में।

 

 

 

उत्तर सत्य- एक

वह आदमी

आदमी नहीं।

उसका अतीत, अतीत नहीं

इतिहास, इतिहास नहीं।

 

वह स्त्री

स्त्री नहीं है

उसके हाथों में फूल

फूल नहीं,

सच, सच नहीं

टेलीविजन पर दिखे वह सच

पर्दे पर नाचे वह सच

मंच पर खड़ा,

नाच रहा सच

हाथ में कटार सा सच

मृत्यु सत्य है

‘रामनाम’ सत्य है

मौत का तरीका सच है

मारना / खदेड़ना – बतंगड़

वह सच नहीं

सच है कि वह सच को जिबह करने ले जा रहा था

आँकड़े सच नहीं

आत्महत्या करने वाले का बयान सच नहीं

सच एक मरीचिका है

सच उसकी उंगलियों में फंसा

टूंगर है

नचाता है वह जिसे

विजय-पर्व के ठीक पहले।

 

 

 

उत्तर सत्य- दो

 

हम शांतिप्रिय देश हैं

विविधता में एकता वाले

हम तेजी से आगे बढ़ रहे हैं

हम एक जनतांत्रिक देश हैं

 

हम खुशहाल हैं

हमने करोड़ों लोगों को रोजगार दिए

सबको दी शिक्षा, सुरक्षा और सेहत का प्रकाश

 

इतिहास का गौरव है हमारे साथ

वैज्ञानिक चेतना है हममें

मानवीय संवेदना से लबरेज़ हैं हम

दलित, स्त्रियाँ, वंचित, सब बराबर यहाँ

-संविधान देख लो

तर्क और विमर्श हमारी परपंरा का हिस्सा हैं

हम विचारों का सम्मान करते हैं

असहमति का आदर परंपरा हमारी

 

हमारी कथनी करनी एक-सी

कोई बनाव-दुराव नहीं हममें

पारदर्शी हैं हम, हमारा कार्य-व्यवहार

 

हमसे पहले कुछ नहीं था-

न जल, न वायु, न पृथ्वी, न आकाश

मध्यकाल एकदम नहीं था

इतिहास का उद्गम वहीं से होता है जहाँ हमने शोध कर बताया

हजारों साल पहले

हमने दिए दुरूह शल्य कौशल

आणविक शक्ति रही हमारे पास

हमने ही बनाए विमान, राकेट, मिसाइलें

पहले-पहल

हमने कहा केवल ध्रुव सत्य, किया सदैव सर्वश्रेष्ठ

सत्य से परे कुछ न था

श्रेष्ठता हमारी रही प्रश्नातीत !

 

बदलते विश्व के बारे में

हम सो रहे होंगे

और हमारे सपने में होगी तितली

जब तितलियों के पँश काटे जाएँगे

हम मुस्करा रहे होंगे उनकी रंग-बिरंगी छटा पर

हम सो रहे होंगे

और निगल ली जाएगी पूरी दुनिया

संभवतः जागने पर भी करें हम अभिनय सोने का

क्योंकि शेष विश्व सो रहा होगा उस वक्त

और विश्वधर्म का निर्वाह होगा हमारा पुनीत कर्तव्य

हम सो रहे होंगे और यह होगा

कोई थकी-हारी महिला

निहारेगी दैत्याकार विज्ञापन मुख्य मार्ग पर

और फड़फड़ाएगी अपने मुर्गाबी पँश

हम सो रहे होंगे इस तरह

और किसी की प्रेयसी गुम जाएगी

अचानक किसी दिन किसी की पत्नी

किसी का पति गायब हो जाएगा

किसी का पिता अगली बार

उपग्रह भेजेगा सचित्र समाचार अंतरिक्ष से

नवीन संस्कृति की उपलब्धियों के –

ये जो गायब हो गए थे अचानक

लटके पाए गए अंतरिक्ष में  त्रिशंकु की तरह

उनकी तस्वीरों की प्रशंसा करेगी पृथ्वी की सत्ता

ड्राइंगरूम में सजाना चाहेंगे उसे लोग

और तिजारत  शुरू हो जाएगी

अतृप्त इच्छाओं वाले उलटे लटके लोगों की

हम सो रहे होंगे

और बदल दी जाएगी पूरी दुनिया

इस तरह हमारे सोते-सोते

बहुत देर हो चुकी होगी तब

नींद से जागेंगे जब हम

बचा रहेगा जीवन

सुबह-सुबह

जिस गर्मी से नींद खुली

वह उसकी हथेली में थी

बिटिया का हाथ मेरे चेहरे पर था

और गर्मी उसके स्पर्श में

वह गर्मी मुझे अच्छी लगी।

खटखटाहट के साथ जो पहला व्यक्ति मिला

दूधवाला था

उसके दूध और मुँह से

भाप उठ रहा था

एक सा

टटकेपन की उष्मा थी वहाँ

दूध की गर्मी मुझे दूधिये से निःसृत होती दीखी।

सूर्य का स्पर्श

बेहद कोमल था उस दिन

कठुआते जाड़े की सुबह वह ऐसे मिला

जैसे मिलती है प्रेयसी

अजब सी पुलक से थरथराती हुई

सूर्य की गर्मी मुझे अच्छी लगी।

अभी-अभी लौटा था वह गाँव से

गाँव की गंध बाकी थी उसमें

दोस्त के लगते हुए गले

मैंने जाना

कितनी उष्मा है उसमें

कितने जरूरी है दोस्त का साथ जीवन में

वृद्धा ने उतावलेपन से पूछा

माँ के स्वास्थ्य के बारे में

सब्जी वाले ने दी ताजा सब्जियाँ

और लौटा गया अतिरिक्त पैसे

अपरिचित ने दी बैठने की जगह बस में

रिकशे वाले ने पहुँचाया सही ठिकाने पर

दुकानदार पहचान कर मुस्कुराया और

गड़बड़ नहीं की तौल में

तीर की तरह लपलपाती निकलती थी उष्मा इनसे

और समा जाती भीतर

गरमाती हुई हृदय को।

केवल बची रहे यह गर्मी

बचा रहे अपनापन

बचा रहेगा जीवन

अपनी पूरी गरमाहट के साथ।

 

 

अब जबकि तुम चली गई हो माँ

कौन बताएगा तिलबा-चूरा के रोज

सुबह-सवेरे ठिठुरते हुए नहा कर

कौन सी ढेरी छूनी है चावल की
कि मकसद केवल धुआँ लगाना है तिल का
अलाव तापना नहीं
कि तिल-गुड खाने से गर्मी आती है शरीर में?

जाड़े के उन्हीं दिनों में
कौन रखेगा छुपा कर
खेसारी की साग मेरे लिए
कौन पहचानेगा तार उँगलियों पर
लाई बांधने से पहले
और लाई की तरह ही
कौन बांधे रख पाएगा पूरे परिवार को
एक सोंधी मिठास के साथ?
कौन बनाएगा खिलौने सूखी हुई डंठल से
मडुवा कटनी के दिनों में
कौन बताएगा
कि नहीं खाना चाहिए अमौरियाँ
सतुआनी से पहले किसी भी हाल में?

किस दिन खिलाते हैं पखेओ बैलों को
छठ के बाद
किस रोज़ होगी गोवर्धन पूजा
सुबह उठकर किस दिन
नहाना पड़ेगा बगैर बोले
कि बढोतरी होती है उपज और अनाज में
किस रोज़ घर लाने से गेहूँ की भुनी हुई बालियाँ
नहीं लगती बुरी नज़र
लहसुन लटकाने से गले में?

कौन बताएगा यह सब
अब जबकि तुम चली गई हो माँ?

माँ का अकेलापन

 

केवल वसंत नहीं

ॠतुचक्र गुजरता रहा उसकी हथेलियों से होकर

जिन हथेलियों ने दुलारा-संवारा भाई-बहनों को मेरे साथ-साथ

गोरैया सी उसकी हथेलियाँ

टंगी हैं बाहों की फैली कमाची पर

बिजूखे की तरह न जाने कब से

छूना चाहती हैं हथेलियाँ उन सबको

छूटते, दूर होते गए जो उनसे

अब रात-बेरात, दिन-दोपहर

भर उठता है बिजूखा अनिष्ट की आशंका

और अजीब-सी बेचैनी से

बिजूखा अकेलेपन से डरता है

माँ सुबह-सुबह बाबूजी को याद करती है

बिछड़ने की पीड़ा घनीभूत हो उठती है आलऔलादों की याद में

असीसती है सबको जागते-सोते

बिजूखा टटोलता-सहलाता है मेरा माथा

आधी रात, अल्लसुबह

माँ अकेलेपन से डरती है।

भय

एक दिन सब संगीत थम जाएगा

सभागारों के द्वार होंगे बंद

वीथियाँ सब सूनी होंगी

सारे संगीतज्ञ हतप्रभ और चुप

कवियों की धरी रह जाएँगी कविताएँ

धरे रह जाएँगे सब धर्मशास्त्र

धर्मगुरूओं की धरी रह जाएँगी सब साजिशें

शवों के अंबार में कठिन होगा

पहचानना प्रियतम का चेहरा

उस दिन पूरी सभ्यता बदल दी जाएगी दुनिया की

एक नया संसार शुरू होगा उस दिन

बर्बर और धर्मांधों का संसार

कापालिक हुक्मरानों का संसार

गिरगिट

मुहावरों में कई तरह से जाना जाता है इसे

परंपरा में यह भय उत्पन्न करता है

विज्ञान हालांकि अलग मत रखता है

परंपरा विज्ञान विरोधी है

लेकिन यह अलग विषय है।

अनाज में यह घुन की तरह नहीं लगता

चूहे की तरह नहीं कुतरता जरूरी कागजात

इसकी मौजूदगी में छुपा नहीं होता प्लेग का भय

कीड़ों-फतिंयों से सफाई करता घर की

बन न सका पूज्य

यह लघु-उदर-जीव

किसी लंबोदर का कृपापात्र नहीं परंपरा में

जो तुच्छ हैं, लघु हैं – हेय हैं परंपरा में

लेकिन यह अलग विषय है

परंपरा से सीखा हमने

कि जहर है इसका जल-मल गेहूँ की दाने जितना

मनुष्य के गूं-मूत के बारे में

क्या राय रखती है परंपरा

समाज के सबसे उपेक्षित लोगों की जमात-सा है यह

ठंड से ठिठुरता, शीतलहर की पेट भरता

मनुष्य का बेहतर मित्र हो सकता है निर्वाक

लेकिन मनुष्य में आस्था कैसे भरे यह

परंपरा से कैसे लड़े यह?

-कभी मजबूत होती होगी आस्था परंपरा से

विश्वास तोड़ती है अब यह

लेकिन यह अलग विषय है।

 

 
      

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2 comments

  1. शुभम अनिमेष

    सर, प्रणाम
    मैं कल आपके प्रोग्राम में था। जब SMP सर से मुलाकात हो रही थी।
    अभी तक आपके बारे में बस सुना ही था। कल आपको बहुत नजदीक से देखा।
    आपका थोड़ा सा कडक सा मिज़ाज़ और आकर्षित करने वाला व्यक्तित्व।
    मैं भी लिखता हूँ। मैं अपना कंटेंट आपको दिखाना चाहता था, आपकी समीक्षा चाहता था, लेकिन आप कुछ व्यस्त थे तो मैं नहीं मिला। पूरे समय प्रोग्राम में बैठा रहा उसके बाद भी वहां काफी देर रुका था। 🙏

  2. नीलोत्पल रमेश

    समकालीन कविता की सभी बारीकियाँ राकेश रेणु की कविताओं में विद्यमान हैं । स्त्री जीवन की विडंबना को इनकी कविताएं उजागर करने में पूरी तरह समर्थ हैं । एक साथ इतनी कविताओं को पढ़ना सुखद लगा । बधाई – राकेश रेणु जी को एवं प्रभात रंजन जी को!

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