Home / Featured / क्या मार्क्सवाद ने सचमुच हिंदी साहित्य का भारी नुक़सान कर दिया?

क्या मार्क्सवाद ने सचमुच हिंदी साहित्य का भारी नुक़सान कर दिया?

हिंदी पत्रकारिता में दक्षिणपंथ की सबसे बौद्धिक आवाज़ों में एक अनंत विजय की किताब ‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ ऐसे दौर में प्रकाशित हुई है जब 2019 के लोकसभा चुनावों में वामपंथी दलों की बहुत बुरी हार हुई है, वामपंथ के दो सबसे पुराने गढ़ केरल और पश्चिम बंगाल लगभग ढह चुके हैं। इस तरह की टिप्पणियाँ पढ़ने में रोज़ आ रही हैं कि यह वामपंथ का अंत है, वह अप्रासंगिक हो चुका है, आदि, आदि। लेकिन सवाल यह है कि क्या मार्क्सवादी विचारधारा को केवल चुनावी राजनीति में प्रदर्शन के आधार पर ही आकलन किया जाना चाहिए? क्या साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में मार्क्सवादियों के योगदान को नकारा जा सकता है?

इस किताब को पढ़ते हुए मेरे मन में यह सवाल इसलिए उठा क्योंकि यह किताब और इसके लेख एक तरह से साहित्य, संस्कृति और मार्क्सवाद को ही केंद्र में रखकर लिखे गए हैं। किताब की शुरुआती लेख में अनंत विजय जी ने ज़रूर किताबी हवालों का सहारा लेते हुए माओ और फ़िदेल कास्त्रो की उस विराट छवि को दरकाने की कोशिश की है जो उनको इतिहास पुरुषों के रूप में स्थापित करने वाली है। लेकिन किताब एक शेष लेखों में साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में मार्क्सवाद के अंतर्विरोधों को दिखाना लेखक का उद्देश्य लगता है।

इसके अलावा, किताब में अधिकतर लेख 2014 के बाद देश में बौद्धिक जमात के प्रतिरोधी क़दमों की आलोचना करते हुए लिखी गई, अवार्ड वापसी, धर्मनिरपेक्षता की बहाली के लिए अलग अलग मौक़े पर उठाए गए क़दम, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़े सवालों पर लेखक ने आलोचक रूख अख़्तियार किया है। लेखक यह सवाल उठाते हैं कि वामपंथियों ने आपातकाल के दौर में चुप्पी क्यों साधे रखी और 2014 के बाद के फूल छाप के दौर में उन वामपंथी लेखकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की याद बार बार क्यों आती रही? अब यह सवाल है कि क्या अतीत के तथाकथित पापों की याद दिलाने से वर्तमान के पाप सही साबित हो जाते हैं? क्या हिंदी के मार्क्सवादी लेखकों को महज़ इस बात के लिए याद रखा जाना चाहिए कि उन्होंने क्या नहीं किया? लेखक ने इस किताब में एक लेख में इस बात पर अफ़सोस जताया है कि लेखक अपनी सामाजिक भूमिका को भूलते जा रहे हैं। लेकिन जब समाज में ग़लत होने पर लेखक पुरस्कार वापस करने लगते हैं तो अनंत जी को उसमें सामाजिकता नहीं दिखाई देती है। यह बदला हुआ सांस्कृतिक माहौल है जिसमें कन्हैया कुमार नामक युवा की सामाजिकता देशद्रोह बताई जाती है और एक केंद्रीय मंत्री की ग़ैर ज़िम्मेदाराना टिप्पणियों को देशभक्ति का पर्याय माना जाता है। अगर आप यह समझना चाहते हैं कि 2014 के बाद से किस तरह से एक ख़ास तरह के सांस्कृतिक परिदृश्य के निर्माण की कोशिश की जा रही है, एक विचारधारा से जुड़ाव के नाम पर हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ को ख़ारिज कर कुछ ख़ास तरह के लेखकों को स्थापित करने की कोशिश की जा रही है तो इसके लिए आपको अनंत विजय की किताब ‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए। मैं उस तरह के पाठकों में नहीं हूँ जो असहमत विचार के लोगों को नहीं पढ़कर अपने आपको ज्ञानी समझूँ, मैं असहमत लोगों को ध्यान से पढ़ता हूँ ताकि अपनी सहमति के बिंदुओं को लेकर और मज़बूत हो सकूँ।

मैं वामपंथी नहीं हूँ लेकिन हिंदी का एक लेखक हूँ और इस नाते क्या मैं स्वयं को प्रेमचंद, मुक्तिबोध से लेकर वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल की परम्परा से अलग कर सकता हूँ? या प्रसाद, अज्ञेय से लेकर धर्मवीर भारती से लेकर नरेंद्र कोहली तक के साहित्य को इसलिए अपनी परम्परा का हिस्सा नहीं मानना चाहिए क्योंकि ये लेखक वामपंथी नहीं थे। अगर हिंदी में वामपंथ के आधार को मिटाने की कोशिश की गई तो ईमान से कहता हूँ गीता प्रेस के ढाँचे के अलावा कुछ और नहीं बच जाएगा।

किताब में एक बहसतलब लेख वह भी है जिसमें लेखक ने बहस के इस बिंदु को उठाया है कि हिंदी में धर्म, आध्यात्म को विषय बनाकर लिखने वालों को हाशिए पर क्यों रखा गया? यह एक गम्भीर सवाल है लेकिन इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए महज़ नरेंद्र कोहली को ही नहीं रामकुमार भ्रमर को भी देखा जाना चाहिए या ‘वयं रक्षामः’  के लेखक आचार्य चतुरसेन को भी। नरेंद्र कोहली की रामकथा का मॉडल आचार्य चतुरसेन से कितना प्रभावित है इसके  ऊपर भी बहस होनी चाहिए। साहित्य में वामपंथ के अर्धसत्य से कम अर्धसत्य दक्षिणपंथ में भी नहीं हैं। आज कितने दक्षिणपंथी हैं जो गुरुदत्त को पढ़ते हैं?

ख़ैर लेखक विचार के आधार पर दक्षिणपंथ की जितनी आलोचना कर लें लेकिन इस किताब के अच्छे लेखों में वह लेख भी है जिसमें वह नामवर सिंह के अकेलेपन को लेकर दिए गए बयान के संदर्भ में हिंदी के अस्सी पार लेखकों के अकेलेपन की चर्चा करते हैं। संयोग से उनमें से अधिकतर लेखक अब इस संसार में नहीं हैं।

अनंत जी ने विजय मोहन सिंह के उस इंटरव्यू की भी अपने एक लेख में अच्छी ख़बर ली है जिसमें विजमोहन जी ने ‘रागदरबारी’ उपन्यास की आलोचना की थी और जनकवि नागार्जुन के संदर्भ में काका हाथरसी को याद किया था। अनंत जी की यह बात मुझे अच्छी लगती है कि तमाम वैचारिक असहमतियों के बावजूद उनके लेखन के केंद्र में हिंदी के वही लेखक या साहित्य है जिसको वामपंथी के नाम से जाना जाता है। उनकी लेखन शैली उनके लिए आलोचनात्मक ज़रूर है लेकिन उसमें छिपा हुआ एक प्यार भी है जो नामवर जी, राजेंद्र यादव जी, अशोक वाजपेयी जी आदि के प्रति दिखाई दे जाता है। वे ख़ारिज करने वाली शैली में नहीं लिखते बल्कि बहस करने की शैली में तर्क रखते हैं। आज दक्षिणपंथ को ऐसे तर्क करने वाले लेखकों की ज़रूरत है जो वाद विवाद संवाद की परंपरा को आगे बढ़ाए। ख़ारिज करने वाली कट्टर परंपरा का हासिल कुछ नहीं होता।

यह किताब बहुत से सवाल उठाती है। ज़ाहिर है उनमें से कुछ सवाल ऐसे ज़रूर हैं जिनको लेकर वामपंथी संगठनों, लेखकों को विचार करना चाहिए। किसी भी तरह की कट्टरता का हासिल कुछ नहीं होता। जड़ता से निकलने का रास्ता आलोचनाओं को स्वीकार करने से भी निकलता है।

किताब का प्रकाशन वाणी प्रकाशन ने किया है।

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

पुतिन की नफ़रत, एलेना का देशप्रेम

इस साल डाक्यूमेंट्री ‘20 डेज़ इन मारियुपोल’ को ऑस्कर दिया गया है। इसी बहाने रूसी …

5 comments

  1. A. Charumati Ramdas

    अच्छी समीक्षा है…

  2. I am really loving the theme/design of your weblog.

    Do you ever run into any web browser compatibility problems?
    A handful of my blog audience have complained about my site not working correctly in Explorer but looks great in Chrome.
    Do you have any solutions to help fix this issue?

  3. Thank you a bunch for sharing this with all of us you really realize
    what you are speaking approximately! Bookmarked.
    Please also consult with my web site =). We may have a link exchange agreement between us

  1. Pingback: 방콕 돈키호테

  2. Pingback: news

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *