कलाओं को गांधी ने किस तरह से प्रेरित किया इसको लेकर एक छोटा सा लेख लिखा है कलाकार-लेखक राजेश्वर त्रिवेदी ने-मॉडरेटर
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गांधी ने भी अन्य लोगों की तरह एक सीधे,सरल और बेहद विनय पूर्ण ढंग से कला को आत्म की अभिव्यक्ति कहकर संबोधित किया है। विभिन्न कलाओं को लेकर उन्होंने कोई विस्तृत विमर्श भले ही न किये हो पर वे मनुष्य को स्वंय को जानने के लिए इसके सहाचर्य की बात ज़रूर करते रहें। वे इस बात को स्वीकारते थे की मनुष्य कलाओं के सहाचर्य को अन्य बातों की तरह ही अपने में कायम रखें तभी उसका खुद से एक तरह का संबंध बन सकता है। यह संबंध मनुष्य का विवेक, आचरण और उसके अपने सहज होने का है। उनके सौंदर्य बोध को लेकर कई तरह की बातें प्रचलन में रहीं हैं। कुछ लोग उनके कला बोध को बेहद अल्प मानते रहे हैं,तो कुछ लोगों के लिए गांधी का कला व सौंदर्य दर्शन पूर्णतः प्रकृति से उपजा सच था। एक ऐसे वातावरण में जब देश बहुत बड़े संकट के दौर का सामना कर रहा था,वहां कलाएं किसी भी तरह से अनिवार्यता कि तरह तो कतई नहीं थी,मगर,मगर दुनिया को सत्य और अहिंसा कि राह पर चलने के लिए प्रेरित करने वाले गांधी का आकर्षण वैश्विक पटल पर पिछले लगभग सौ सालों से बरकरार रहा है। इसी आकर्षण की परिणति छोटे कद के विशाल गांधी के कर्म और जीवनचरित के असंख्य पहलूओं बहु-तेरे रूपों में दर्शाती रही है उनमें कलाओं का भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है।
यह एक सर्वज्ञात पहलू है की स्वतंत्रता आंदोलन के उस भीषण दौर में गांधी की प्रतिबद्धता और प्राथमिकता सिर्फ और सिर्फ स्वतंत्रता ही थी। गांधी अपने अभिष्ठ की ओर अग्रसर थे। भारतीय स्वाधिनता आंदोलन ने सभी को अपने आगोश में ले लिया था। हर तरफ़ इसका स्पष्ट प्रभाव था। ऐसे में दृश्य कलाओं में विशेष रूप से चित्र-कला भी इससे अछूती नहीं रही। कला के अनेक माध्यमों में शिल्प वह चित्र रचे जा रहे थे। १९०१ में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित शांति निकेतन शिक्षा और कला के क्षेत्र की एक अनुपम धरोहर की तरह आज भी अपने विस्तृत स्वरूप में विद्यमान है, भारतीय स्वाधिनता आंदोलन के उस दौर में शांति निकेतन का अपना एक विशेष स्थान रहा है। महात्मा गांधी ने अनेक अवसरों पर शांति निकेतन का प्रवास किया। वे गुरुदेव रवींद्र की इस साकार कल्पना से बेहद प्रभावित थे। शांति निकेतन संगीत व साहित्य के साथ कलाओं का घर बना। भारतीय कला में स्वदेशी के विचारों के प्रबल समर्थक चित्रकार व कला शिक्षक अवनिंद्रनाथ टैगोर जो शांति निकेतन में कला शिक्षक थे, ने नंदलाल बोस, जामिनी रॉय व रामकिंकर बैज सहित भविष्य के अनेक ऐसे कलाकारों की पीढ़ी तैयार की जो आधुनिक भारत के कला इतिहास में सबसे अलग नज़र आते हैं।
आधुनिक भारत की कला के पुनर्जागरण में बंगाल स्कूल के अग्रणीय योगदान से कला संसार भली-भांति परिचित हैं। शांति निकेतन के अपने एक प्रवास के दौरान गांधीजी की मुलाकात अवनिंद्र नाथ के शिष्य वह चित्रकार नंदलाल बोस से हुई । बोस ने गांधी जी को वहां के कला संकाय में प्रदर्शित कलाकृतियों से रूबरू करवाया। इन कलाकृतियों के प्रति गांधी के प्रश्नों के उत्तर नंदलाल बोस ने बहुत ही सहजता के साथ दिए। १९३८ में गांधी जी ने उन्हें हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन के मंच व पांडाल सज्जा के लिए आमंत्रित किया। नंदलाल बोस ने वहां चित्रकार रविशंकर रावल व कनु देसाई के मिलकर दो सौ चित्र तैयार किए थे। किसीने इस पर सही कहा है कि “महात्मा गांधी की अनेक परिकल्पनाओं को नंदलाल बोस ने अपनी कला के माध्यम से। साकार किया था। “
एक और अन्य प्रसंग आता है जब गांधी जी के भारत छोड़ो आन्दोलन के आव्हान पर शांतिनिकेतन के युवा चित्रकार “नारायण श्रीधर बेंद्रे” मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान पर अपने प्रसिद्ध चित्र भारत छोड़ो का चित्रण करने पहुंचे थे। गांधी एक प्रेरक और पथ प्रदर्शक थे, उनसे प्रेरणा पाने वालों में तात्कालिक कला संसार तब भी था,और अब तक भी है। उस दौर की कई ऐसी बातों का उल्लेख मिलता है जिनमें गांधी किसी कलाकृति या स्थापत्य को देखते हुए भावुक, विभोर या विस्मित हुए हैं। बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में जब महात्मा गांधी अपनी एक अंग्रेज अनुयाई “मुरिएल लेस्टर” के साथ यूरोप के अनेक देशों की यात्रा करते हुए इटली पहुंचते हैं। मुरिएल लेस्टर गांधी की इस यात्रा को एक पुस्तक “गांधी की मेजबानी” के रूप में अंकित किया है। उनकी इस किता़ब को पढ़ते हुए सादगी और कला का महात्मा गांधी के जीवन में क्या अर्थ था? उनकी इटली यात्रा के इस प्रसंग से यह समझा जा सकता है,जब वे वेटिकन के सिस्टीन चैपल में प्रार्थना करने के साथ उस स्थल के कलात्मक स्वरूप को महसूस करने के लिए गए थे। गांधी जी वेटिकन की दीर्घाओं को लेकर बहुत उत्साहित थे,जो विशेष रूप से उनके लिए खोली गई थी। वह वेटिकन के कला- संग्रह में उनकी बहुत रुचि लेते हैं। वह उन लंबे, सूने गलियारों को महसूस करते हैं। सिस्टीन चैपल उन्हें अपनी महिमा और विस्मय में तल्लीन कर लेता है। गांधी कहते हैं ” मैंने वहां ईसा की एक आकृति देखी,”वह विस्मित करती है। “मैं वहां से खुद को हटा नहीं सका।
गांधीजी वहां पुनर्जागरण कला और पश्चिम के कला इतिहास के सबसे प्रभावशाली भित्तिचित्रों को देखते हैं, जो ओल्ड टेस्टामेंट की गाथाओं से चित्रित थे। वे दुनियाभर के ईसाइयत के गढ़ माने जाने वाले वेटिकन की उन विशाल और कल्पनातीत दीर्घाओं को देखकर विस्मय और आश्चर्य से खुद को भरा पाते हैं, गांधी जी की आँखें आंसुओं से भर जाती है, जिनको “माइकल एंजेलो” जैसे महानतम कलाकार ने तीस सालों के अथक परिश्रम के बाद चित्रित किया था। गांधी माइकल एंजेलो के अथक श्रम और धैर्य और कल्पनाशीलता के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए वहां अपनी नियमित प्रार्थना में तल्लीन हो जाते हैं। संभवतः गांधी को पश्चिम के इस महान कलात्मक व धार्मिक आख्यान को देखते हुए हजारों सालों से भारत में मौजूद स्थापत्य का स्मरण भी हुआ हो!
इससे पहले गांधी एक बार अपनी युवा अवस्था में 1890 की अपनी पेरिस यात्रा में नात्रोदम कैथेड्रल की वास्तुकला और उसकी आंतरिक सज्जा को देखकर बेहद प्रभावित हुए थे। इस बात का उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया है। गांधी को भी अपने देश में मैजूद विरासत और कलात्मक परंपरा के विषय में वैसा ही भान था जो एक भारतीय मानस को अपनी वाचिक और मौखिक परंपरा से मिलता रहा है। गांधी के सत्याग्रह, अहिंसा, व्रत,आचरण, दांडी, स्वदेशी जैसे दर्शन, विचार,आग्रह व आंदोलन दुनियाभर के सृजनधर्मियों की प्रेरणा रहे हैं। भारतीय दृश्यकलाओं व शास्त्रीय संगीत में भी गांधी की महत्त्वपूर्ण मौजूदगी रही हैं। यह गांधी का ही आकर्षण था जो “कुमार गंधर्व” जैसे निर्गुणी गायक को स्वनिर्मित राग “गांधी मल्हार” गाने के लिए प्रेरित करता है, तो रविशंकर का सितार गांधी के लिए राग “मोहन कौंस” के सुर छेड़ता है। गांधीजी की प्रार्थना सभाओं में एम.एस सुब्बालक्ष्मी अपने गायन में गांधी के प्रिय भजनों को दोहराती थी।
यहां मुझे मूर्धन्य चित्रकार सैयद हैदर रज़ा का भी स्मरण होता है,जिनके अमूर्त चित्रों में गांधी शाब्दिक संदर्भों से परे सिर्फ रंगों से मुखरित होते हैं। रज़ा के रंगों में गांधी के मुख निकले अंतिम शब्द हे राम की गूँज है, इसके साथ ही इनमें सबको सम्मति, देने का आग्रह व पीरपराई जानने का निवेदन भी है। सत्य और शांति जैसी अनुभूति इनमें स्वतः शामिल हैं। रज़ा ने अपनी मृत्यु से कुछ समय पूर्व महात्मा गांधी को समर्पित चित्रों की एक श्रृंखला तैयार की थी। यहां यह स्पष्ट तौर पर प्रतीत होता है कि,गांधी संगीत में कहीं एक राग की ध्वनित हुए है तो किसी चित्र-कृति में विचार या विषय की तरह। मैं यहां विषय की अपेक्षा गांधी के विचारों की बात पर ज्यादा ज़ोर दूँगा ।
१९१५ में गांधी जी की दक्षिण अफ्रीका से भारत वापसी भारतवासियों के लिए एक बहुत बड़ी घटना की तरह थी। एक ऐसी घटना जिसके घटने का सारा देश इंतजार कर रहा था। गांधी घर लौटते हैं,इस बार वे अपने देशवासियों के लिए आज़ादी के संघर्ष की नई दास्तान लिखने का प्रण साथ लिए हुए थे। दक्षिण अफ्रीका में किए गए उनके “सत्याग्रह” की गूंज उनके पहुंचने से पहले ही हिंदुस्तान पहुंच चुकी थी। गांधी की देश वापसी ने तात्कालिक राजनीतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक चेतना को पुनर्जीवित करने का काम किया। गांधी के शुरुआती जीवन और राजनीतिक सफर पर बहुत ही विस्तार से लिखने वाले प्रसिद्ध लेखक “रामचंद्र गुहा”ने अपनी पुस्तक “गांधी भारत से पहले” में एक जगह गांधी के दक्षिण अफ्रीकी सत्याग्रह पर केंद्रित केवल पांच दृश्यों वाले एक तेलुगू नाटक का उल्लेख करते है। नाटक ने अपनी मातृभूमि में गांधी के विराट होते कद को लाज़वाब ढंग से दर्शाया गया था। वे कहते कि “गांधी का संघर्ष तेलुगू में इस तरह के जुनूनी नाटक लिखने का आधार बन सकता है यह अपने आप में बेहद उल्लेखनीय है।” आज़ादी के बाद भारतीय रंगमंच में नाटकों के माध्यम से गांधी के व्यक्तित्व उनके योगदान और विचारधारा को कई आयामों में प्रस्तुत किया गया।
रंगमंच की राष्ट्रीय आंदोलन में भूमिका के जो संदर्भ मिलते हैं उनमें अनेक भारतीय भाषाओं में मंचित हुई ऐसे अनेक नाटकों का उल्लेख मिलता है जिनकी प्रेरणा गांधी रहें हैं। हां “दीन बंधु मित्र” का बांग्ला में “नीलदर्पण” और “भारतेंदु हरीशचंद्र” खड़ी बोली में “भारत दुर्दशा” का उल्लेख राष्ट्रीय आंदोलन के बहुत शुरुआती मंचित नाटक कहे जा सकते हैं। रंगमंच के कालांतर में गांधी और उनकी विचारधारा को कई तरह से प्रश्नांकित किया गया। गांधी का जीवन और दर्शन कई रंगमंचीय प्रयोगों के साथ प्रकट हुआ। ऐसे भी कुछ उल्लेख मिलते जो इस बात को दर्शाते हैं कि सिनेमा जैसे माध्यम के प्रति महात्मा गांधी की कोई रुचि कभी नहीं रही। बावजूद इसके बहुत सारे फ़िल्मकारों ने गांधी के तात्कालिक भारतीय समाज पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर बहुत सारे सिनेमा को रचा। उन्होंने अपने जीवन में एक मात्र फिल्म १९४४ में “राम राज्य”नामक देखीं थीं वो भी आधी। किसी भी तरह से सिनेमा जैसा माध्यम उन्हें कभी भी आकर्षित नहीं कर सका। गांधी जब जब १९३१में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए के लिए इंग्लैंड गए तब मशहूर अभिनेता “चार्ली चैप्लिन” उनसे मिलने आए थे। गांधी ने उनकी अदाकारी के विषय में किसी से सुना था। चार्ली चैप्लिन ने अपनी आत्मकथा में गांधी जी से अपनी मुलाक़ात का उल्लेख किया है। यहां “रिचर्ड एटनबरो” की उस खूबसूरत फिल्म “गांधी” का का ज़िक्र लाजमी हैं जिसने आधुनिक दुनिया के सामने गांधी के मोहन दास से महात्मा बनने के सफ़र को बखूबी दर्शाया।
पिछले लगभग एक सदी की आधुनिक भारतीय दृश्यकलाओं (जिनमें चित्र कला,रंगमंच व सिनेमा भी शामिल हैं) की बात करें तो आप महसूस करते है कि ये सभी महात्मा गांधी के संपूर्ण दर्शन वर्णित उन उद्गारों के हवाले से अपनी खोज में सलंग्न है। मनुष्य को कलाओं के सहाचर्य में रहने के पक्षधर महात्मा गांधी की शिक्षा हमें यह भी याद दिलाती है कि परिवर्तन हमेशा व्यक्तगत स्तर पर ही शुरू होता है,और यह भी कि हम सभी मनुष्य शांतिपूर्ण सक्रियता के माध्यम से ही दुनिया को बदलने की क्षमता रखते है। लगातार कलाओं की शरण जाकर भी मनुष्य ने शांति और आत्मपरिवर्तन को महसूस किया है। हम इस बात को सहज ही महसूस कर सकते हैं कि गांधी ने अपने दर्शन से हमको जीवन जीने की कला से अवगत कराया है। हमारे जीवन और हमारी कलाओं में गांधी की मौजूदगी का एक स्थायी भाव निरंतर ध्वनित हो रहा है।
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