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सिनेमा की बदलती ज़मीन : भविष्य का सिनेमा:मिहिर पंड्या

मिहिर पांड्या सिनेमा पर जो लिखते बोलते हैं उससे उनकी उम्र की तरफ़ ध्यान नहीं जाता। हिंदी में इस विधा का उन्होंने पुनराविष्कार किया है। यह बात अलग से रेखांकित करनी पड़ती है कि वे 40 साल से कम उम्र के युवा हैं। 28 फ़रवरी को राजकमल प्रकाशन स्थापना दिवस के अवसर पर ‘भविष्य के स्वर’ के अंतर्गत बोलते हुए उन्होंने हमेशा की तरह कुछ नई बातें बताकर हम लोगों का ज्ञानवर्धन किया- मॉडरेटर

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कुछ समय पहले तक मुझे जहाँ भी ‘भविष्य का सिनेमा’ जैसे किसी विषय पर बोलने के लिए बुलाया जाता था तो मैं अपनी ये कल्पना सामने रखता था कि एक दिन ऐसा आयेगा जब सिनेमा भी किसी अन्य उत्पाद की तरह आपकी पसन्द पर हाथोंहाथ कस्टमाइज़ किया जा सकेगा। आपके हाथ में रिमोट होगा और किसी प्रेम कहानी के अन्त में अगर आप नायक-नायिका मिलते हुए देखना चाहते हैं तो उनका मिलन होगा, लेकिन अगर आपने दूसरा बटन दबाया तो उनके मिलने के पहले ही विलेन या खुद उनके घरवाले उनकी हत्या कर देंगे। जितना पैसा आप खर्चेंगे, उतनी मल्टिपल चॉइस आपको फ़िल्म में मिलेगी अपनी पसन्द की फ़िल्म बनाने के लिए।

कई साथियों को ये कल्पना रोमांचकारी लगती थी, कई को बहुत डरावनी।

लेकिन पिछले साल ‘नेटफ्लिक्स’ ने मेरी इस कल्पना को हक़ीक़त में बदल दिया। उन्होंने ‘ब्लैक मिरर’ नाम की अपनी बहुचर्चित वेब सीरीज़ में एक फ़िल्म रिलीज़ की ‘बैंडरस्नैच’, जिसमें आप फ़िल्म के दौरान रिमोट का बटन दबाकर ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के मल्टिपल चॉइस सवाल की तरह तय कर सकते हैं कि फ़लाना किरदार जि़न्दा रहेगा या अगले सीन में मर जाएगा।

‘नेटफ़्लिक्स’ ‘अमेज़न’ ‘हॉटस्टार’ और इनके जैसे कई अन्य स्थानीय खिलाड़ी पूरी दुनिया में डिज़िटल स्ट्रीमिंग की एक नई सिनेमाई दुनिया खड़ी कर चुके हैं, जिसने हमारी ‘सिनेमा’ की तमाम पारंपरिक परिभाषाओं को तोड़-फोड़कर रख दिया है। कुछ साल पहले ‘नेटफ़लिक्स’ जब भारत में आया, भारत के नई स्वतंत्र फ़िल्म निर्देशकों ने इसमें उजली संभावनाएं देखीं। और वो सच है भी। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि चुनिंदा फ़िल्म वितरकों और सिनेमा चेन मालिकों के चंगुल में फंसे मुख्यधारा हिन्दी सिनेमा की दुनिया में कई फ़िल्में बन ही नहीं पातीं, और बन पातीं तो रिलीज़ नहीं हो पातीं अगर ये नए स्ट्रीमिंग चैनल नहीं आये होते। वहाँ अभी तक सरकारी सेंसर की तलवार नहीं पहुँची है। सच बात है कि तीखी राजनैतिक टिप्पणियाँ करनेवाले खुद मेरे प्रिय निर्देशक दिबाकर बैनर्जी अपनी अंतिम दो फ़िल्में एक स्ट्रीमिंग चैनल की बैकिंग के चलते ही बना पाये हैं।

लेकिन ये अमेरिकी स्ट्रीमिंग कंपनियाँ यहाँ विकल्प देने नहीं आयी हैं। ये आपके-हमारे तमाम सिनेमाई विकल्पों को अपने भीतर समो लेने के लिए आयी हैं। गौर से देखें तो ‘नेटफ़्लिक्स’ के विविधताओं से भरे सिने संसार के पीछे तक़रीबन वही रणनीति काम कर रही है जो ‘फ़ेसबुक’ या ‘ट्विटर’ सोशल मीडिया पर हर व्यक्ति के लिए उसके अपने पर्सनली कस्टमाइज़ ‘ईको चेंबर’ बनाकर कर रहा है। ‘नेटफ्लिक्स’ का होमपेज किसी मल्टिप्लेक्स की तरह सबके लिए एकसा नहीं है, जहाँ सबके लिए एक ही बड़ी फ़िल्म रिलीज़ हो रही है। ‘नेटफ़लिक्स’ अपने एलगोरिथम का इस्तेमाल करते हुए हमारे सामने वही फ़िल्म रखेगी, जो उसके हिसाब से हमें देखनी चाहिए। बहुत तेज़ी से हमारी पसन्द को समझते हुए कब वो हमारी पसन्द को गढ़ने का काम करने लगती है, हम समझ भी नहीं पाते।

उनका नारा है ‘नेटफ़्लिक्स एंड चिल’, जहाँ नेटफ़्लिक्स सिनेमा देखने का एक और विकल्प भर नहीं, आपकी पूरी सिनेमाई दुनिया बन जाएगा। दूसरा, मालिकाना हक़ की लड़ाइयों में इन स्ट्रीमिंग नेटवर्क्स के लिए फ़िल्में लिखनेवालों, बनानेवालों के अधिकार घोर संकट में पड़ने का खतरा है। अभी तो हनीमून पीरियड चल रहा है और ये लड़ाइयाँ खुलकर सामने नहीं आयी हैं। फ़िल्ममेकर इसी से खुश हैं कि उन्हें कम से कम अपनी मर्ज़ी की फ़िल्म बनाने का मौका तो मिला।पर आप देखिए, ‘नेटफ़्लिक्स’ और ‘अमेज़न’ जैसे ब्रांड तो वेब सीरीज़ या फ़िल्म के पोस्टर पर फ़िल्म के निर्देशक का, लेखक का नाम तक नहीं आने देते हैं। इन नेटवर्क्स के लिए लिखनेवाले दोस्त बताते हैं कि कहा जाता है, हमारी पॉलिसी है कि फ़िल्म के पोस्टर पर फ़िल्म के अलावा सिर्फ़ एक ही नाम होगा − ‘नेटफ्लिक्स’ का।

तो आप कल्पना कर सकते हैं एक ऐसी दुनिया की, जहाँ हम सभी अपनी-अपनी दुनियाओं में बैठे अपनी-अपनी पसंद की फ़िल्में देख रहे होंगे। विविधता होगी, लेकिन खाँचों में बंटी विविधता। सिनेमा के साथ जुड़ा ‘सामुदायिक’ अनुभव ख़त्म हो जाएगा। हमारे हाथ में रिमोट होगा, और हम फ़िल्म के भीतर किसी खलनायक को मारकर खुद का ‘अमिताभ बच्चन’ होना का अनुभव करेंगे।

अब आप सोचिए, कि ये कल्पना आपको रोमांचकारी लगती है या डरावनी।

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अब पारंपरिक मुख्यधारा हिन्दी सिनेमा पर आते हैं।

अगर आप पिछले साल की बॉक्स ऑफ़िस पर सबसे कमाऊ हिन्दी फ़िल्मों की सूची देखें तो उसमें सबसे ऊपर तीन फ़िल्मों के नाम हैं।

वॉर

कबीर सिंह

उड़ी : दि सर्जिकल स्ट्राइक

लेकिन सबसे कमाऊ फ़िल्मों की ये सूची बताते हुए मैंने आपके साथ एक छल किया है। इस सूची में दरअसल साल 2020 में भारतीय बॉक्स ऑफ़िस पर सबसे ज़्यादा कमाई करनेवाली फ़िल्म का नाम शामिल ही नहीं है। जैसा 18 फ़रवरी को ‘दी हिन्दू’ अखबार में प्रकाशित एक रिपोर्ट से हमें जानकारी मिलती है, सभी भाषाओं में मिलाकर पिछले साल सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली फ़िल्म का नाम है − ‘एवेंजर्स : एंडगेम’, जिसने भारतीय बॉक्स ऑफ़िस पर साढ़े चार सौ करोड़ की कमाई की। किसी भी हिंदुस्तानी फ़िल्म से तक़रीबन 100 करोड़ ज़्यादा।

यहाँ मुख्यधारा हिन्दी सिनेमा की दूसरी बड़ी चुनौती छिपी है। हॉलीवुड एक-एक कर फर्स्ट वर्ल्ड के स्थानीय सिनेमा उद्योगों को लील चुका है, और भारतीय बॉक्स आफिस अब उसके लिए ‘लास्ट फ्रंटियर’ जैसा है। उसने हमारे सिनेमा पर दुतरफ़ा हमला बोला है। कॉन्सेप्ट बेस्ड फ़िल्मों के लिए उसने भारतीय दर्शक को ऐसे स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म उपलब्ध करवा दिये हैं कि दर्शक उन फ़िल्मों को देखने के लिए सिनेमाहॉल में शायद ना जाये। और दूसरी ओर ‘स्पेक्टेकल फ़िल्म’, जिसका असली मज़ा सिनेमाहॉल में ही लिया जा सकता है, उसे बनाने में वो उन्नत तकनीक और बड़ी पूंजी के चलते हिन्दी सिनेमा पर निरंतर भारी पड़ रहा है। पिछले साल हॉलीवुड सिनेमा की बॉक्स ऑफ़िस पर तरक्की की गति 31 प्रतिशत थी। किसी भी अन्य भारतीय भाषा के सिनेमा से कहीं ज़्यादा।

जैसा आप ऊपर लिखी फ़िल्मों के नाम देखकर समझ जायेंगे, हिन्दी सिनेमा ने इस चुनौती से मुकाबले के फ़ौरी समाधान खोजे हैं उग्र राष्ट्रवाद की भावनात्मक खुराक और भारतीय समाज में मौजूद तमाम गैर-बराबरियों का पोषण। लेकिन ये शॉर्टकट समाधान हैं, क्योंकि ये फॉर्मूले हैं और फॉर्मूला कोई भी सीखकर आपको उससे बड़ा पैसा और तकनीक लगाकर आसानी से हरा सकता है। जब तेलुगु सिनेमा से आयी ‘बाहुबली’ इस फॉर्मूलबद्ध हिन्दी सिनेमा को उसी के खेल में चारों खाने चित्त कर सकती है तो सोचिये हॉलीवुड को ये सफ़लता हासिल करने में क्यों देर लगती। आज 2020 में ये बाज़ी अब पलट चुकी है।

तो फ़िर हमारे ‘भविष्य के सिनेमा’ का रास्ता कहाँ से निकलेगा?

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मैंने जब आज से 15 साल पहले हिन्दी सिनेमा पर काम शुरु किया था, तो मैंने नोटिस किया कि मुम्बई को छोड़ दिल्ली शहर हिन्दी सिनेमा की कहानियों के नए घटनास्थल के रूप में उभर रहा है। इसकी वजहें तलाशते हुए हम उस निर्देशकों की पीढ़ी तक पहुँचे, जो उत्तर भारत के छोटे शहरों से पढ़ने के लिए दिल्ली आये और वाया दिल्ली पहुँचे मुम्बई। ऐसे में दिल्ली उन तमाम छोटे शहरों की कहानियों का घटनास्थल बन गया, जो मुम्बई जैसे महानगर में रखकर नहीं कही जा सकती थीं। दिल्ली में ही एक बंगाल धड़कने लगा, दिल्ली में ही एक पंजाब। दिल्ली में ही एक कानपुर धड़कने लगा और दिल्ली में ही एक झज्जर।

पर अभी बीते 3-4 सालों से मैं नोटिस कर रहा हूँ कि लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा की कहानियों ने अब दिल्ली को छोड़कर सीधे इन छोटे शहरों का रुख़ कर लिया है। मैं 2018 में नवभारत टाइम्स के लिए बीते साल की मेरी नज़र में सर्वश्रेष्ठ 7 फ़िल्मों की सूची बना रहा था और सूची बनाने के बाद मैंने नोटिस किया कि इसमें एक भी फ़िल्म मुम्बई या दिल्ली या कोलकाता की कहानी नहीं कहती है। मैं आपके सामने वो सूची रखता हूँ −

ए डेथ इन दि गंज

न्यूटन

अनारकली ऑफ़ आरा

मुक्ति भवन

बरेली की बर्फ़ी

सीक्रेट सुपरस्टार

लिपस्टिक अंडर माय बुरका

अब अगर आप इन कहानियों का घटनास्थल देखें तो पूरे उत्तर भारत का एक नक्शा सा आपकी आँखों के सामने खिंच जाएगा, जिसके सिरे मैक्लुस्कीगंज से दंडकारण्य, आरा से बनारस, बरेली से बड़ौदा होते हुए भोपाल तक जाते हैं। इसी विविधताओं से भरे भारत के नक्शे में हमारे सिनेमा का भविष्य छिपा है।

ठीक इसी तरह पिछले महीने जब मैं हंस के लिए बीते साल रिलीज़ हुई तीन सबसे अच्छी फ़िल्मों पर लिखने की योजना बना रहा था तो ये तीन फ़िल्में तीन अलग शहरों की कहानियाँ ही नहीं, तीन भिन्न भाषाओं की फ़िल्में भी थीं। मलयालम से ‘कुम्बलांगी नाइट्स’, तमिल से ‘सुपर डीलक्स’ और असमिया से ‘आमिस’। तीनों में समानता − तीनों अपने कथ्य और कहन के तरीके को लेकर ऐसी निडरता और मौलिकता दिखा रही थीं जो मुझे बीते साल हिन्दी सिनेमा में नज़र नहीं आई। शायद इसके पीछे वो सत्ता से नाभिनालबद्ध बड़ी पूंजी है जो बॉलीवुड के निर्माताओं की ताक़त है, पर वही उसके रचनाकारों के पैर की बेड़ी बन जाती है।

पर इसी मौलिकता में, इसी अभय में हमारे सिनेमा के भविष्य का रास्ता छिपा है। अगर हमारा सिनेमा अपने दर्शक को ऐसी कहानियाँ दे, जिसमें उसका आत्म झलकता हो। उसकी बोली-बानी में उसके हिस्से की बात हो। ऐसी भाषा, ऐसा भाव जो उसकी ज़मीन का हो और जिसे किसी विदेशी सिनेमा से हासिल कर पाना असंभव हो। वही सिनेमा इस ग्लोबलाइज़्ड दौड़ में लम्बे समय तक टिका रह पाएगा।

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मैं आपके सामने तीन नाम लूँगा…

‘लैला और सात गीत’ − पुष्पेन्द्र सिंह

‘स्थलपुराण’ − अक्षय इंदीकर

‘ईब आले ऊ’ − प्रतीक वत्स

ठीक इस वक्त, जिस वक्त मैं यहाँ खड़ा आपसे बात कर रहा हूँ, तीन भारतीय फीचर फ़िल्में सिनेमा की दुनिया के सबसे ख़ास सालाना फ़िल्म समारोहों में से एक ‘बर्लिन फ़िल्म फ़ेस्टिवल’ में  चुनी गई हैं, और भारतीय सिनेमा का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। इनमें ‘लैला और सात गीत’ एक खो चुकी हिन्दी की पूर्वज गुज़री ज़बान में रची गई है, ‘स्थलपुराण’ की भाषा मराठी है और ‘ईब आले ऊ’ हिन्दी भाषा की फ़िल्म है। इनमें से ‘ईब आले ऊ’ मैंने देखी है और बहुत ही कम बजट में ज़्यादातर नॉन-एक्टर्स के साथ बनाई गई इस विस्मयकारी फ़िल्म में आज हमारी दिल्ली में जो हो रहा है, उसे समझने के बहुत सारे सूत्र छिपे हैं।

यही नहीं, इसके अलावा हमारे लिए बहुत बड़े सम्मान की बात है कि एक भारतीय निर्देशक को इस बार बर्लिन में ज्यूरी ड्यूटी के लिए चुना गया है। इन निर्देशक का नाम है रीमा दास, जिनकी पिछले सालों में आई दो बहुत प्यारी असमिया फ़िल्में ‘विलेज रॉकस्टार्स’ और ‘बुलबुल कैन सिंग’ भारतीय सिनेमा की पूंजी हैं।

यही भारतीय सिनेमा का असली वर्तमान है, जिसे हमें पहचानना चाहिए। और यही भारतीय सिनेमा का सबसे उजला भविष्य हो सकता है, है। अपने हिस्से की कहानियाँ कहने वाला, अपनी ज़मीन से गहरे जुड़ा। अपनी स्थानिकताओं में रचा-पगा। अपने दौर की गैर-बराबरियों से सीधे आँख से आँख मिलाकर बात करनेवाला।

 
      

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