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अनघ शर्मा की कहानी अब यहाँ से लौट कर किधर जायेंगे!

अनघ शर्मा युवा लेखकों में अपनी अलग आवाज़ रखते हैं। भाषा, कहन, किस्सागोई सबकी अपनी शैली है उनकी। यह उनकी नई कहानी है। पढ़कर बताइएगा- मॉडरेटर

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1

पिछली सर्दियों की बर्फ़ अब पिघलने लगी थी। पहाड़ का जो टुकड़ा काट कर पार्क बनाया गया था, उसके पिछवाड़े में जमी बर्फ़ की तह अब नीली से सफ़ेद होती जा रही थी। जब कुछ ही दिनों में ये बर्फ़ बिलकुल गायब हो जायेगी तब यहाँ आ कर कितने ही बच्चे खेलेंगे, उसने सोचा। जिस बेंच पर वह बैठी है वो बेहद ठंडी है। उसे लगा अगर थोड़ी देर और बैठी रही तो सारा खून जम कर लाल बर्फ़ की सिल्ली बन जायेगा और वह अकड़ कर मर जायेगी। जीने-मरने का भेद कहाँ बचा है उसके लिए? अब जो इस देह में है वह खुद वही है या कोई और उसे मालूम नहीं। ओस से भीगी घास में कोई कीड़ा चुपचाप चलता हुआ आया और उसके टखने पर काट गया। उसने चिहुंक कर पजामा उठाया और देखा टखने पर कई सारे छोटे-छोटे दाने उभर आये थे। जाने बीटाडीन पड़ी भी है या नहीं, वह बडबडाई और उठ खड़ी हुई। चलते-चलते उसने सिगरेट सुलगाई, गहरे कश खींचे और फिर मसल कर फेंक दी। सिगरेट पीने का ये तरीका उसने कैसे सीखा याद नहीं। वह बाहर आई पर अँधेरे में उजाले की हल्की लौ अभी फूटी नहीं थी। उसने घडी देखी, सुबह के पौने छ: ही बजे थे। अभी तो कोई सवारी भी नहीं मिलेगी उसने सोचा। उसे महसूस हुआ की पैर का दर्द बढ़ने लगा है। वह पास पड़ी एक बेंच पर बैठ गयी और आँखें मूँद लीं। सुबह की हवा पुरवैया है या कुछ और उसे इसका भी भान नहीं है। कितने सालों से उसके अन्दर एक शोला लपलपाता है और वह उसे निकाल बाहर फेंक ही नहीं पा रही। वह जानती है कि अक्सर आसमान से लपकता शोला हंस कर किसी न किसी पेड़ को अपने सीने पर लेना ही पड़ता है यही सोच कर वह इस शोले को अंदर रखे हुए है।

जब एक अलसाई सी रौशनी ने उसका चेहरा घेरना शुरू किया तो उसने आँखें खोल दीं। पार्क में लोगों की आमद-ओ-रफ़्तार बढ़ गयी थी। पुराने टहलने वाले, नए दौड़ने वाले, गोद में बच्चे लटकाये घूमती माएं, नकली हँसी हँसते बूढ़े जाने कब आ कर मुस्तैदी से अपनी-अपनी जगहों पर काबिज़ हो गये थे। पार्क के एक कोने में पागल सा एक आदमी रेडियो चला कर ऊँट-पटांग सी हरकतें कर रहा था। जाने लोगों को कैसा गम होता है कि वो पागल हो जाते हैं, उसने पागल को देखा और दूसरी सिगरेट सुलगा ली। कहीं से एक आवाज़ तैरते हुए उसके पास चली आई।

“ चम्पाsssss रीsssssssss चम्पा चाय ले जा।”

उसने पलट कर ऐसे देखा मानो ये आवाज़ उसे यहीं कहीं से दी हो किसी ने। पर ऐसा कौन है अब जो उसे आवाज़ लगाए, आवाज़ वाले सब मील के पत्थर तो जाने कहाँ पलट गए। उसने देखा ज़रा दूरी पर एक लड़की उनींदी सी टहल रही थी। उसकी चाल बाकी सब से अलग थी। इस लय में कुछ ऐसा अनमनापन था जो किसी ख़ुशगवार रात के जादू टूटने पर होता है। स्थगन का वो पल जिसे आप चाह कर भी टाल नहीं सकते, जब आप जान जाते हैं कि रात बीत गयी और अब आपको उसी रोज़मर्रा के खांचे की तरफ़ वापस लौटना पड़ेगा, जहाँ मेजों पर रखी फाइलें होंगी, घनघनाते फ़ोन होंगे, एक इंतज़ार होगा, एक लम्बी उदासी होगी… और भी न जाने क्या-क्या होगा? उसके नज़दीक दायीं तरफ़ दो हमउम्र लड़के तस्वीरें खींचने में लगे थे। किसी फूल की, किसी टूटे पत्ते की, कहीं घास में फंसी ओस की, तो कभी टूटी हुई डालियों की। क्या करते होंगे ये इन तस्वीरों का? खींच कर मिटा देते होंगे या सहेज कर रख लेते होंगे। उसके मन में एक बार को ये ख्याल आया कि उठ कर जाए और उनसे पूछे की जब वो तस्वीर खींचते हैं तो पत्ते से पूछते हैं कि गिरते वक़्त डर लगता है क्या? अधखिले टूटे फूल से कभी उन्होंने कभी पूछा है कि जब शाख़ से टूट कर अलग हुए थे तो जी भर आया था या नहीं? उसने उनके हँसते हुए चेहरे देख कर सोचा कि छोड़ो किसी टूटे हुए फूल के लिए किसी चेहरे की हंसी को क्यों रोकना? जब भी चुनने का मौका मिले तो बेझिझक किसी चेहरे की हंसी चुननी चाहिए भले ही वो किसी अजनबी की क्यों न हो। उसे क्यों इन्हें देख कर किसी शाख़ से टूटे, ज़मीन पर गिरे फूल की याद आई ऐसे? उसने जानते-बूझते इस सवाल से आँख फेर ली। सिगरेट का तीसरा और आख़िरी कश खींच कर उसने बाहर की तरफ़ चलना शुरू कर दिया।

कमरा सारी रात का वैसा ही बिखरा पड़ा था जैसा वो छोड़ गयी थी। यहाँ और ऐसा था भी कौन जो उसकी अनुपस्थिति में उसके बिखराव की देखरेख करता। उसने मेज़ की दरारों को टटोल कर देखा पर दवा कहीं नहीं मिली, मगर इस उठा-पटक में उसके हाथ एक कागज़ आ गया। जाने कब का मुड़ा-तुड़ा लगभग चिंदी सा वो कागज़ पीला पड़ गया था, जिसे वह अब तक सहेज कर रखे हुए है। उसने कागज़ खोला, पढ़ा और वापस उसी दराज़ में डाल दिया।

“मैडम जी, उसे घर मत भेजिये। कह दीजिये की घर से कोई जवाब नहीं आया।”

उसे अब तक दवा नहीं मिली थी पर अब दर्द इतना नहीं था कि कोई दवा ली जाती। वो उठी और पलंग पर पसर गयी। जगह-जगह फैले सामान को समेटने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। आठ बजने को आये उसने सोचा और तकिये से मुँह ढक लिया। चाय की तलब ने ज़ोर मारना शुरू कर दिया था। खिड़की के बाहर नर्म हरे रंग वाले नाज़ुक पत्ते खिलने लगे थे। हरे में भी कितने रंग होते हैं, खुरदरा, चटकीला, कठोर, रेशमी, नरम हरा और भी जाने कितने। होली तक खिल कर ये चौड़े चटकीले पत्तों में बदल जायेंगे। बसंत की आमद कुछ और नए रंग घोल देगी पेड़ों पर, मौसम ज़रा देर खुशरंग हो जायेगा। कितना फ़र्क है खिड़की और चौखट के बाहर। चौखट के ऐन बाहर ज़ंजीरें हैं जिनके दोनों सिरे उसके पाँव पर आ कर ठहर जाते हैं। खिड़की के बाहर देखने भर से तो आज़ादी हासिल नहीं। जिस आज़ादी की तरतीब उसने बैठाई थी, उम्मीद लगाई थी, वो तो इतनी गुरेज़-पा है कि आज तक इस राह पर उसने पैर ही नहीं धरा। हवा की पेड़ों के साथ धींगा-मुश्ती मार्च के होने का पुरजोर सबूत थी। चाय की तलब ने एक बार फिर ज़ोर मारा,उसने आँखों के ऊपर बाँह धर ली मानो ऐसा करने से इस तलब से उसे छुटकारा मिल जायेगा।

2

“नाम क्या बताया तुमने? डॉक्टर ने पूछा।”

“पिछली बार भी पूछा गया था मुझसे।” उसने कहा

“पर तुमने पिछली बार भी कहाँ बताया था नाम दूसरे डॉक्टर साहब को। अब जब तक तुम यहाँ हो मैं ही तुम्हारी काउंसलर रहूंगी। वह डॉक्टर साहब ट्रांसफर हो कर चले गए यहाँ से। बताओ क्या नाम लिखूं फ़ाइल में।”

“भला नाम रखने में क्या है, डॉक्टर? मेरा नाम मारग्रेट हो सकता है, एलिज़ाबेथ हो सकता है। मज़े की बात तो ये है कि अगर एलिज़ाबेथ होता तो क्या इंग्लैंड के सब खाट-बिछौने मेरे नाम हो जाते वसीयत में। चम्पा होता तो क्या मुझ में से फूल झरते। मैरी हो सकता है। मैरी होता तो क्या मदर मैरी मान लेते मुझे आप लोग। आप जानती हैं न मदर मैरी कितनी पवित्र थीं और मैं??? किट्टी बुलाओ, कामना बुलाओ, आप जिस नाम से चाहो बुलाओ मुझे। किसी भी नाम में क्या बुराई है भई, हर नाम ख़ासा बढ़िया तो है। जो चाहें वह लिख लें अपनी तसल्ली के लिए।” वह बोली।

“तुम जानती हो पवित्रता और अपवित्रता मन के अपने बनाये भेद हैं। ऐसी कोई बेड़ी नहीं जिसे हौसला तोड़ नहीं सकता।” डॉक्टर ने बात बढ़ाने की गरज से कहा।

“ये पता है मुझे। पर हौसला किसी हाट-बाज़ार में मिलता नहीं न कि हफ़्ते के हफ़्ते जा कर ख़रीद लिया। आप जानती हैं कि मुझे कहाँ से लाया गया है?”

“हाँ जानती हूँ,  पता है मुझे कि तुम को कहाँ से रेस्क्यू किया था। देखो ये टेम्परेरी शेल्टर है। यहाँ बहुत लम्बे वक़्त तक किसी को रखा नहीं जा सकता। तुम्हें भी शिफ्ट करना ही होगा यहाँ से। घर जाने का मन बनाओ तो घर भिजवाया जा सकता है। वार्डन ने बताया कि बहुत कहने के बाद भी तुमने पुलिस को पता नहीं दिया।”

“पता दे दिया था। और जवाब क्या आना था ये भी मालूम था मुझे। अब आप जहाँ भेजना चाहो भेज दो मुझे।” उसने पलट के कहा।

“उदयपुर या नैनीताल जहाँ के भी एन.जी.ओ. में व्यवस्था बन जायेगी वहाँ भेजा जायेगा फिर तुम्हें। वार्डन कह रही थी कि तुम रात भर जागती रहती हो। कई कई बार बाहर आ कर कॉरिडोर में टहलने लगती हो। अगली बार अगर उसने ऐसा कुछ कहा तो मुझे तुम्हारी रिपोर्ट में मेंशन करना पड़ेगा। थोड़ा मैडिटेशन किया करो, प्रार्थना किया करो।”

“एक समय के बाद प्रार्थनाएं चुक जाती हैं,खत्म हो जाती हैं।” उसने कहा और जाने के लिए उठ खड़ी हुई।

“तुमने लिखना क्यों छोड़ रखा है… मैंने सुना है कि पहले तो लिखा करती थीं तुम। अच्छी हैबिट्स को कल्टीवेट किया जाता है उन्हें छोड़ते नहीं हैं। मेरा सजेशन है कि दुबारा लिखना शुरू करो। तुम नाम नहीं बताना चाहती हो तो कोई बात नहीं फिर मैं अपनी मर्ज़ी से कुमुद लिख रहीं हूँ तुम्हारा नाम; बाद में जब भी कहोगी बदल दिया जाएगा, ये अभी बस थोड़े समय के लिए है।”

डॉक्टर ने देखा कि उसकी भावहीन, ठंडी आँखों में कुछ भी नहीं उभरा। बस नींद की छाया से भारी लग रहीं थीं वह आँखें। उसने एक उदास मुस्कान छोड़ी और बाहर निकल गयी।

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“मुझे बार-बार क्यों जाना पड़ता है वहाँ?” उसने लौट कर वार्डन से पूछा।

“ये स्टैण्डर्ड प्रोसेस है, प्रक्रिया है कि काउंसलर से कुछ दिनों तक मिलना पड़ेगा। अब पुराना डॉक्टर चला गया है तो तुमको इस नयी डॉक्टर के साथ शायद कुछ ज़्यादा सेशनस लेने होंगे।”

“कब तक?”

“जब तक डॉक्टर और पुलिस की टीम को ज़रूरी लगेगा। या तुम घर जाने को राज़ी हो जाओ।” वार्डन ने मेज़ पर रखी एक कॉपी उठाते हुए कहा और पढ़ना शुरू कर दिया।

“दोनों तरफ़ दरिया के

मुस्तैदी से खड़ा है साहिल हिफाज़त को …

न जुनूँ…

न माँझी…

न बादबाँ…

न कश्तियाँ ही उतरने देता है…

मुक़ाबिल किनारों पर सर पटक-पटक के दम तोड़ देता है पानी…

अजब तौर है यहाँ हिफाज़त का!!”

“ऐसी कौन सी जगह है जहाँ पानी सर नहीं पटक रहा। अपनी-अपनी मिट्टी में पानी हर जगह बंधा हुआ सर ही पटक रहा है। इन जगहों से निकल कर लोग तो वापस लौटना चाहते हैं अपने घरों में कि जैसा भी हो सर पटकने के लिए अपना घर तो है; धीरे-धीरे ही सही शायद कभी पूरी तरह ही अपना ले घर। तुम क्यों लौटना नहीं चाहतीं?”

“क्योंकि मैं घर ही से…” कहते कहते वह चुप हो गयी, जैसे कुछ याद आ गया हो। उसने घूम के वार्डन की तरफ़ देखा।

“क्या देख रही हो इतने गौर से?”

“देख रहीं हूँ कि आपके चेहरे में एक तरह कि कर्कशता है। ममता का लेश मात्र भी नहीं। उसने कहा।

“इस शेल्टर हाउस में जैसे केस आते हैं उन्हें डील करने में ये कर्कशता ही काम आती है, यहाँ अगर कोई ममता रखे तो जल्दी ही पागल हो जाये। दिमाग सही रखने के लिए दिल कड़ा करना ही पड़ता है।”

उसका मन हुआ कि वह वार्डन के गले लग कर रो ले, एक गुबार जो कहीं है उसके अन्दर उसे निकाल दे। पिछले कितने ही सालों से ऐसे ही भाव शून्य है वह।

“कल जब जाओ तो अपना लिखा हुआ ले जाना डॉक्टर पढ़ना चाहती हैं तुम्हारा लिखा।” वार्डन ने कहा।

3

उसकी नींद टूटी तो उसने खुद को पहले की तरह अकेला पाया। जाने कितना वक़्त बीता, उसने उठते हुए सोचा। उठने पर पैर दर्द से लहका तो उसने देखा की टखने पर निशान के पास सूजन आ गई थी। वह उठी और एक आले में रखी रूई और एक दूसरा मलहम उठाया तो कागज़ों के एक पुलिंदे से हाथ टकरा गया। कुछ फटे,गले,चीथड़े कागज़ एक रेशमी धागे में बंधे हुए थे। ये उसकी ही किसी कॉपी के  पन्ने थे, जिन्हें वह वहाँ से आते वक़्त फाड़ के अपने साथ ले आई थी। उसने सैकड़ों बार के पढ़े उन पन्नों को दुबारा खोल लिया। उनके के खुलने से सीलन की एक तेज़ गंध उस कमरे में घूम गई मानो उसे आगे बढ़ने से रोकने आई हो। उन पांच सात फटे हुए टुकड़ों में बस कुछ ही पन्नों की लिखाई साफ़ थी बाकी के पन्नों से अक्षर मिट गए थे। हर पन्ने पर एक अलग कहानी। जाने कैसे उसने किस चम्पा की कहानी लिखी थी। कौन थी ये चम्पा? ये मैं ही तो नहीं कहीं? मैं ही तो थी, न होती तो कौन लिख पाता।

खुली खिड़की से आती हवा पिघली हुई बर्फ़ ही ताज़ी हरी खुश्बू उसके पास ले आई; उसके मन पर पड़ी धूल कहीं हल्की सी उड़ी और फिर बैठ गयी। उसे याद आया एक बार डॉक्टर ने उसका हाथ छू कर ऐसा ही कुछ कहा था।

“तुम्हारे शरीर से कोहरे की ठंडी गंध आती है। ऐसा लगता है मानो आस-पास कहीं घिसी हुई बर्फ़ रखी हो। ये गंध कई बार मुझे अस्थिर कर जाती है कुमुद। एक बात मन में है, कभी कभी बेचैनी में लगता है कि तुमसे कह दूं, फिर सोच कर डर जाती हूँ कि तुमको जाने कैसा लगे।”

“मैं लोगों के छूने के तरीके को पहचानती हूँ डॉक्टर। मैं जहाँ से आई हूँ वहाँ सबसे जल्दी स्पर्श और दर्द की भाषा सीख ली जाती है। उसने डॉक्टर की हथेली को अपनी कलाई से सरकाते हुए कहा।

“ठीक, फिर अगले हफ़्ते रूटीन सेशन पर मिलते हैं।” डॉक्टर ने कहा।

“अब और कितने सेशन चलेंगे। आप लोग बाक़ी लड़कियों के साथ तो इतने महीनों तक चलने वाले सेशन नहीं रखते।” उसने डॉक्टर के उतरे हुए चेहरे की तरफ़ देख कर कहा।

“तुमको पुलिस की टीम ने फ़्लैश ट्रेड के दलदल से रेस्क्यू किया था। इस तरह के केसेज़ में काउंसलिंग सेशंस लम्बे चलते हैं। अब तुम जाओ अगले हफ़्ते मिलेंगे।” डॉक्टर ने ज़रा खिसिया कर कहा।

उसने पलट कर कुछ कहा नही बस चुपचाप डॉक्टर के केबिन से बाहर निकल गयी।

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“नैनी झील में बहुत सालों पहले कई बच्चों के डूबने के बाद एक बड़ा जाल लगाया गया था; ताकि कोई गलती से उस किनारे की तरफ़ निकल जाए तो डूबे नहीं। अब वहाँ जाल नहीं है मैडम तो संभल कर जाइये उस तरफ़, देख-भाल के।”

ये एक आवाज़ कई बार उसके कानों तक आती और पलट जाती।

“क्या वो आवाज़ लगाने वाला जानता था कि वह बहुत पहले ही डूब चुकी है, उसके गले तक किसी दलदल का कीचड़ चिपक के सूख गया है, जो उसकी कोशिशों के बाद भी छूटता ही नहीं।”

खुली खिड़की की हलचल कुछ देर ठहरी रही फिर आवाज़ और उसमें कोई राब्ता न बनता देख वापस अपनी लय में लौट गई। उसने अपना सर पलंग से आधा लटका कर फ़र्श को देखा जहाँ एक दुःख उसके मन की परतों से निकल कर जमीन में सर गढ़ाये बैठा था। उस दुःख में कैसी रौशनी थी, नीले रंग से भरी हुई। उसने जाने कैसे जान लिया कि ठीक ऐसी नीली रौशनी उसके बचपन के सालों में घर की छत पर फ़रवरी की रातों में उतरती थी। उसने उठ कर खिड़की बंद कर दी तो कमरे में ज़रा देर को आई फ़रवरी की याद वापस लौट गयी। उसने झुक कर उस दुःख को उठाया और वापस मन की किसी दीवार पर टांग दिया।

4

“डॉक्टर, मुझे आजकल जाने क्यों सपने में एक किला दीखता है, चौड़ा और दूर तक फैला हुआ। हालांकि मैंने जयपुर,चित्तौडगढ़,मैसूर,बीजापुर,गोलकुंडा ऐसा कोई शहर नहीं देखा जिसमें कोई किला हो। सिवाय एक आगरा के। किला तो यहाँ भी कभी भीतर से नहीं देखा। देखा है तो इसकी बाहरी दीवार या परकोटे को। कभी इसके साये से निकलो तो ऐसा लगता है जैसे किसी सड़क पर खिंची काली परछाईं पार की हो। बड़े को,भव्य को लांघने सी कोई भावना उपजती ही नहीं अन्दर।”

“मन को हल्का रखो। हर सिचुएशन में सरंडर नहीं करना चाहिये, कभी अपने मन के साथ नेगोशिएट करो फिर देखो भावनाएं भी उपजेंगी। कैसा किला दीखता है… लाल पत्थर का? और क्या-क्या इमेजिन होता है उस किले के साथ?” डॉक्टर ने पूछा।

“जो किला मुझे दीखता है ये लाल पत्थर का नहीं है। ये अजब से सुनहरे रंग का है, जैसे रेत से लेपा गया हो, पेंट किया हो। इसकी दीवारों में से कोई गीत नहीं उठता बल्कि दुपहर की ख़ामोशी अधखुली आँखों से देखती है। जब-जब ये दुपहर अपनी आँख झपकती है मुझे किसी का पल-पल बनना और मिटना दीखता है डॉक्टर। जैसे प्यानो पर रखी ऊँगली से स्वर का निकलना और बदल जाना। कभी-कभी कोई बिना चेहरे के चला आता है मेरे पास। पर इन सब के उलट जब उसकी कहानी लिखने बैठती हूँ तो बस आस-पास बस आवाजें गूंजती हैं; बिना शक्ल, बिना बनावट की आवाजें। कभी कोई आवाज़ ऐसे सुनाई देती है मानो कहीं दूर किसी खंदक से गूँज कर उठ रही हो।”

“तुम जानती हो इस कहानी वाली लड़की को कुमुद, किस की कहानी कहती हो तुम?”

“नहीं… नहीं जानती, पर ऐसा लगता है ये बार-बार टाइम ट्रेवल करके किसी को ढूंढने आती है मेरे पास। मैं जिसकी कहानी कह रही हूँ वो कहती है कि उसने बार बार जन्म लिया है लेती रही है। वह मेरे पास बार-बार आती रही है और अब अँधेरे के एक छोटे से टुकड़े से निकल कर मेरे अंदर आ कर उसने अपनी जगह बना ली है।”

“क्या तुम उसे जानती हो कुमुद जिसे वह लड़की ढूंढ रही है?”

“नहीं, डॉक्टर।”

“मुझे ऐसा लगता है कुमुद कि ये उस ट्रॉमा का साइड एफेक्ट हो सकता जिसमें तुम कई सालों तक रहीं थीं।”

वह चुप रही उसने डॉक्टर की बात पर कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दी। उसने देखा कि डॉक्टर की मेज़ पर उसकी उसकी एक कॉपी रखी है।

“मैंने ही कहा था तुम्हारी वार्डन से कि तुम्हारी चीज़ों में से डायरी या कॉपी जो भी हो मुझे पढ़ने के लिए दे दें।” डॉक्टर ने उसकी आँखों में आये प्रश्न को देख कर कहा।

…………………………….

शाम रंग-बिरंगी रोशनी में भी बड़ी फीकी लग रही थी। डॉक्टर के कमरे में दूर कहीं किसी किनारे पर डूबते हुए सूरज की फीकी रोशनी आ कर ठहर गयी थी। डॉक्टर कितने ही सालों से लोगों की काउंसलिंग करती आ रही है पर आज तक कभी भी किसी मरीज़ के साथ ऐसा बंधन नहीं लगा, कभी किसी के साथ इस तरह का भावनात्मक बंधन नहीं हुआ जितना पिछले कुछ महीनों में इस लड़की से हो गया था। डॉक्टर ने उठ कर उसकी कॉपी खोली और पढ़ना शुरू कर दिया।

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मेरे हाथों की तरफ़ देखो। कुछ भी नहीं है इनमें, शून्य है। दोनों रिक्त हैं। हे! कस्सपा मैं सब छोड़ कर तुम्हारे पीछे-पीछे चली आई। सब तो त्याग दिया मैंने तुम्हारी अनुगामी बनने के लिए। तुम्हारे अनुराग में कस्सपा कुछ भी बचा नहीं मेरे अन्दर। देह की सब ऊर्जा तो रात-दिन तुम्हारे पैरों के चिन्हों पर चलते-चलते खो दी मैंने।

तुम कहते हो लौट जाओ, चली जाओ। कहाँ जाऊं मैं? शताब्दी जितना लम्बा पथ चल कर आई हूँ। पीछे मेरे अपने पाँव के चिन्ह भी नहीं बचे, किसका हाथ गह कर लौटूं?

“जाना तो होगा तुम्हें।”

“क्यों? साथ ले चलो अपने।”

“मैंने सब त्याग दिया है।”

“पर मेरा क्या कस्सपा?”

“लुम्बिनी शुद्धोधन के पास चली जाओ।”

“यूँ ओस से गीले हाथ लिए जिन पर कभी कुछ टिक ही न सके अब। इन पर वचन रखो कोई।”

“मेरा अगला अध्याय वहीं होगा। सिद्धार्थ से गौतम तक की यात्रा वहीं से होगी।”

“और मैं?”

“तुम अगले जन्म में चम्पा बन कर खिलोगी। मैं वचन देता हूँ जन्म से परिनिर्वाण तक तुम्हारे फूल अपने पास रखूँगा। जाओ अब विदा रही।”

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धूप बादलों के पेट में पलती रही…

फ़ीनिक्स सौ दफ़ा अपनी आग में जलता और पैदा हो जाता। हुमा आसमानों में गोल-गोल चक्कर काटता और फिर थक कर किसी के कन्धों पर उतर आता था। तुम जानते हो वो कंधे किसके थे? मेरे! पता है जिसके कंधे पर हुमा बैठता है उसे बादशाहत मिलती है। और मुझे क्या मिला? जन्मों की भटकन, आना-जाना और अब सिर्फ़ इंतज़ार। जल-जल कर राख हो जाना हमारे भाग में बदा है और हमारी राख से हमसा ही कोई दूसरा पैदा भी नहीं होता। समय ने हमें फ़ीनिक्स जैसी सहूलियत भी नहीं दी। ये जुलाई की कोई बादलों से घिरी शाम है। रुकी हुई मगर बरसने को तैयार। इस कमरे में जहाँ मैं हूँ वहां से आकाश साफ़ दिखाई दे रहा है, सलेटी बादलों से पटा हुआ। दूर कहीं से जमुना के बहने की आवाज़ मुझ तक आ रही है। नीचे हुमैरा अपने बच्चों की सालगिरह की तैयारी में है। दोनों में साल भर का अंतर ज़रूर है पर तारीख एक ही। इन दिनों के उदास मौसम में ये सालगिरह का मौका इस घर में थोड़ी ख़ुशी ले कर आएगा। पिछले कई सालों में जब से शाहिद गुमे मेरे और हुमैरा के बीच दरार ही है। यूँ भी कितने दिन हुए कोई ख़बर आये। अगर आई भी होगी तो इस कमरे में आने से पहले उसने कहीं बीच ही में दम तोड़ दिया होगा। इतने सालों में कहाँ-कहाँ नहीं जा कर ढूंढा उसे? जाने किस किस की चौखट पर जा कर माथा नहीं धरा, कितने ही पीर-फ़कीरों के दरवाज़ों पर सर झुकाया पर नतीजा उतना ही झूठा जैसे दिन में रात। अब तो इकहत्तर को बीते भी चार साल हुए। दिल्ली का दर ही बचा है खटखटाने को। कितना पैसा फूँक दिया मैंने इस के लिए, जाने कितना और लगेगा। पिछली बार भी मौंटी ने कुछ इंतजाम कर के दिया था। हुमैरा से कुछ मिलने की उम्मीद भी नहीं है। पहले भी टका सा जवाब दे चुकी है वो।

“अप्पी कुछ पैसे मिलेंगे?”

“क्यूँ?”

“दिल्ली जाना है।”

“दिल्ली क्या तुम्हारी कानों की लवों पर धरा है कि झट बुँदे उतार झूमर पहन लिए। पिछली बार ही कितनी जोड़-जुगत से तुम्हारा तीन हज़ार का उधार चुकाया था मैंने। इस आँगन में एक मिर्च की पौध तक नहीं और तुम रुपयों का पेड़ गढ़ा समझती हो यहाँ।”

“फिर भी।”

“फिर भी क्या चम्पा बीबी? लड़ाई में गायब लोग कभी मिले हैं भला। लड़ाई में औरत दो ही चीज़ों पर दावा करती है या तो सलामत लौटे पति पर या दरवाज़े पर आये तार पर। तीसरी किसी चीज़ पर दावे की कोई गुंजाईश नहीं। शाहिद से कोई तुम्हारा लम्बा राब्ता तो था नहीं। भूलो उसे, कहीं और घर बसाओ और मेरा पिंड छोड़ो। मौंटी के मुताल्लिक सोचो हर दूसरे दिन संदेसे भेज देता है। हर जुस्तजू कहीं पूरी होती है। तुम बादलों में फंसी धूप हो, अंदर ही अन्दर सब सुखा डालोगी।”

“पर दिल का क्या करूं?”

“दिल तुम्हार है जो चाहे करो।” कह कर हुमैरा चुप हो गई।

मैंने सालों-साल अपने दिल के तलवों पर सूती कपड़ा मला है,पर इसका ग़ुबार न कभी बैठा न ठंडा ही पड़ा। दिल बाजदफ़ा इतनी बड़ी चीज़ हो जाता है कि इसमें कई वीरान घाटियों के शांत सफ़ेद मौसम पिघलने लगते हैं, और उदासी के पेड़ हरे हो जाते हैं। दिल अपने एतराफ़ में मिट्टी का एक ढेला भर है जो ज़रा सी नमी से ही गीला हो पनप जाता है। पर मेरे सीने में जो पड़ा हुआ है वो कोयले का एक लपलपाता हुआ टुकड़ा है जो अन्दर-अन्दर सब जला रहा है।

##

पुन: की भावना बड़ी दुखदायी है, किसी भी चीज़ का बार बार घटना उसे दुर्घटना में तब्दील होने के ज़रा और पास ले आता है। जैसे बार-बार लगातार निचोड़ी हुई देह में जीवन नहीं बचा रहता। जैसे चंद्रमा रोज़-रोज़ निकल कर एक रात बिलकुल ही गुम हो जाता है। जैसे लगातार बहता झरना गर्मियों में अक्सर सूख ही जाता है। परिंदे किन किन घाटियों से उड़ान भर कर हर बरस शहर में आते हैं। हर साल इनकी गिनती कम हो जाती है। जिस रोज़ इन्हें ये रास्ता मन से याद हो जायेगा ये उकता जायेंगे और यहाँ आना छोड़ देंगे। बार-बार का ये आना-जाना खत्म हो जायेगा। साल भर का इंतज़ार किसी सूखी नदी सा, गले की चटकन सा कोने कोने में फैल जायेगा। ये परिंदे हमें बताते हैं कि यात्रा बाहर से भीतर को होनी चाहिए। जो पा लिया, जिसे जान लिया, जो घट गया उसे तुरंत ही मन में बंद कर रख छोड़ो। तस्वीर फ्रेम से बाहर आई तो ज़रूर ही धूल-मिट्टी से सन जायेगी। पर कुछ चीज़ें तुरंत ही मन के दरवाज़े से निकाल बाहर फेंक देनी चाहिये वरना धीरे-धीरे मन का रंग लाल से धूसर हो जाता है। दिन-रात के फेर में से कितने ही लोग तो मर के छूट पाते हैं, क्या इसका हिसाब किसी बही में रखा जाता है? कोई पूछता होगा समय से कि कौन बनाता है ये हिसाब? मैं कह पाऊँ तो कह दूं समय कि…

“मुझे ज़रा भी नहीं भाता तुम्हारा ये हिसाब।”

“क्या हिसाब?”

“ये भी कोई चीज़ हुई चौबीस खांचों में बाँट दो जिंदगी। पहले हिस्से को दिन बोलो और दूसरे को रात। ज़िंदगी तो दिन-रात के कोनों से कहीं बड़ी है। जिंदगी के दिन को तो बैंगनी और रात को हरा होना चाहिए। तुम्हारे दिन का रंग एक सफ़ेद तो दूजा काला। पर तुम केवल एक ही रंग देख पाये चमक का। तुमने धूप की पीली चादर के पीछे कितने स्याह, धुंधले, मटमैले अंधरे धकेल दिए। इनमें से कई का रंग तो वाकई बड़ा लाजवाब निकल सकता था। तुम किसी भी रौशनी के सामने होते ही उसके पीछे की सियाही को तुरंत भूल जाते हो। इसलिए कहते हैं याद को संभाल कर  रखिये, याद संभालिये, याददाश्त संभालिये। प्रेम और याद का इस स्याह सफ़ेद से बड़ा सीधा सम्बन्ध है। ठीक वैसे ही जैसे की ……

“जैसे की?”

“जैसे कि सुर्ख रंगों वाला प्रेम जो गहरे दाग छोड़ जाता है।”

“और शोख रंगों वाला?”

“शोख रंग तो यूँ भी उड़ ही जाते हैं।”

“तो फिर प्रेम कैसा हो ? सफ़ेद?”

“सफ़ेद रंग बहुत जल्दी गन्दा हो जाता है।”

“तो फिर कैसा हो?”

“स्याह”

“????”

“हम्म्म्म स्याह का रंग उतरने में,धूसर होने में बहुत वक़्त लगता है। स्याह की जिजीविषा बड़ी विकट होती है। बड़ा जीवट रंग होता है ये।”

“फिर भी ऐसा प्रेम तो बड़ा डरावना होगा।”

“नहीं तुम ऐसा क्यूँ मानते हो? इसे ऐसे मानो न।”

“कैसे?”

“ऐसे की जैसे हर घने काले बादल के नीचे चांदी का एक पतला बारीक तार छुपा होता है। वही तुम्हारी सिल्वर लाइन है। दूर तलक जाओ और अपनी सिल्वर लाइन को छू लो,परख लो और चमक का दरवाज़ा खोल लो अपने लिए। उथले पानी को जो चाहे पार कर ले पर किसी की चाह में गहरा समंदर पार कर के देखो।”

##

उसकी बंद आँखों में एक छत है जिसके ज़ीने के लाल पत्थर घिस-घिस कर नारंगी दिखने लगे हैं। इस घिसे-घिसाये ज़ीने की पहली सीढ़ी पर वो है और आख़िरी पर एक पुकार। कई बार वह सोचती है कि हिम्मत कर यहाँ से उठ के भाग ले। उसने कई बार चाहा कि वह किसी अँधेरी रात में या बादलों भरी किसी सुबह छत से छलांग लगा दे पर हर बार वो पुकार उसके पाँव ज़ीने की तरफ़ लौटा देती है। वह पलटी, करवट खाई, तकिये में मुँह ज़रा और गढ़ा दिया। उसने दिल की मेहराबदार जाली लगी सुरंगों में झाँक कर अन्दर देखा। बड़े-बड़े ओक बैरलों में बंद कर जैसे वाइन की उमर बढ़ाई जाती है ठीक वैसे ही कभी वहां उसके अरमान आँख बंद किये सो रहे थे। अब उन अरमानों की जगह चिंदी- चिंदी कागज़ों की कतरन पड़ी है। अब कितना मुश्किल दौर है, समय है… उसने सोचा ज़िंदगी और वो भी उसकी किसी शाख़ से टूटे पत्ते की तरह है। उसने धीरे-धीरे गर्दन ऊपर उठा ली, दिल की इन संकरी गलियों की तरफ़ देखने का कोई फायदा नहीं।

किसी ने नीचे आँगन में खड़े हो दुबारा हांक लगाईं।

“चम्पाsssss री चम्पा चाय ले जा… ओ री चम्पा… री चम्पा चाय ले जा ठंडी हो रही है…।”

वो मुंडेर से झांकती है तो कोई नहीं दीखता। कभी उसे ऐसा लगता कि उसने किसी के कानों में कुछ कहा। सुनने वाला उसकी बातें सुनता और हँसता रहता इतना की दीवारों में चटक आ जाये और उसके कान के पास आ कर कहता…

“कहाँ ओक बैरल की मैच्योर वाइन और कहाँ इस घर की चाय।”

और जब उसकी उसकी आँख खुलती तो न ही दीवारें चटकी होती और न सुनने वाला ही वहां होता।

………………………….

“ये कहानियाँ पूरी नहीं हैं। कहाँ है इनके आगे की कहानी, पूरी कहानी?” डॉक्टर ने पूछा।

“क्या ज़रूरी है किसी कहानी का पूरा होना, पूरा पढ़ना?, इतना ही सच समझ लो जितना बताया जा रहा हो। आधे-पूरे के फ़साद में क्या पड़ना। बीच धारे खड़े हो कर देखो ठीक बीचो-बीच, न इंच भर इधर न इंच भर उधर। जहाँ से दोनों किनारे बराबर दूरी पर हों।

“उससे क्या होगा कुमुद?”

“उससे ये होगा डॉक्टर कि जाने वाला जिस किनारे जाना चाहे उधर जा सकता है। उस पर किसी एक के नज़दीक होने का आरोप भी नहीं लगेगा, और वो जा उस किनारे पर खड़े किसी इंसान से बोल भी सकता है, ‘कि देखो मैंने तमाम मौके,  मार्के, आरईशें छोड़ कर तुम्हें चुना है। बिना बीच में गए चुनाव का जोखिम तो बना ही रहता है। आदमी जिस भी किनारे के नज़दीक होगा उसे छोड़ हमेशा दूसरे किनारे  के आकर्षण में फँसा रहेगा, भले से ही वो किनारा शुष्क हो, रेतीला हो, या दलदली ही क्यों न हो? ये मेरा अपना…………..।” कहते-कहते वह चुप हो गयी।

“ये तुम्हारा अपना अनुभव है, है न चम्पा??”

वह चौंकी…. चौंक कर डॉक्टर को देखा और अपने चुप के खोल में खो गयी। डॉक्टर ने आगे बढ़ कर उसकी पतली हथेली अपनी दोनों हथेलियों के बीच भर ली। उसने देखा की डॉक्टर की हथेलियों के नाखून बरसात के बाद उगने वाले गहरे हरे रंग की तरह के रंग में रंगे हुए थे। उन हथेलियों का बंधन यूँ तो बहुत कड़ा नही था पर फिर भी उसने अपना हाथ नहीं छुड़ाया। देर तक यूँ ही रहने के बाद उसने अपना हाथ खींचा और कहा…

“ये मेरा रास्ता नहीं… मेरा रास्ता कौन सा है ये भी नहीं मालूम।”

“रास्ते बनाये भी जाते हैं। एक ही जगह खड़ा कैसे रहा जा सकता है चम्पा?”

“चम्पा… मैंने आपसे पहले भी कहा था कि नामों के हेर-फेर में क्या पड़ना।”

“मैं जानती हूँ यह तुम्हारा असल नाम है और ये जितनी कहानियाँ तुमने लिखी है यह भी तुम्हारे सब-कॉन्शियस में दबी तुम्हारी ही आवाजें हैं जो वहाँ से निकलना चाहती थीं, जो चाहती थीं कि कोई तुम्हें तलाशे, तुम किसी को ढूंढो, किसी को वहाँ अपने पास पाओ जिसका साथ पा कर बाहर निकला जा सके। अब जब तुम बाहर आ गयी हो वहाँ से तो तुमको हम लोगों के साथ कोऑपरेट करना चाहिये जिस से इस ट्रॉमा से एक दम उबार पाओ। पर तुम जितना ज़्यादा चुप रहोगी उतनी ही देर होगी इस जाल को काटने में। तुम्हारी रेस्क्यू टीम ने भी कहा था कि तुमने कभी भी कोऑपरेट नहीं किया उनके साथ। अपने पास्ट से रिलेटेड कोई भी बात नहीं बताई, ऐसा कोई भी डिटेल नहीं दिया जिससे उन्हें हेल्प करने में आसानी होती। क्या कभी कोई प्यार, अफ़ेयर या कोई ऐसा रिलेशनशिप हो जो खटकता हो, सालता हो तुम्हें, जिसके बारे तुम बात करना चाहो। क्या तुम अपने किसी रिलेशनशिप की वजह से वहाँ जा पहुँची थीं?”

“यातनाओं की डिटेलिंग कैसे की जा सकती है डॉक्टर? और हम प्यार के मामले में बड़े ख़ब्ती रहे हैं। जिन्होंने प्यार दिया हमें उन्हें हमने दिल से निकाल फेंका और बाकियों ने हमें इस काबिल ही नहीं समझा की प्यार किया जाए। प्यार में सबसे जल्दी खर्च होने वाली चीज़ प्यार ही है। भला चाक़ू की उल्टी सुस्त धार से कुछ नपा-तुला सधा हुआ कट सकता है? उँगलियों में रेंगने वाला बर्निंग सेंसेशन ज़रूरी नहीं कि प्यार का असर हो, उन्स हो। ये किसी बीमारी का पैगाम भी हो सकता है। क्या आपको नहीं लगता डॉक्टर कि मैं बीमार हूँ?? वैसे मुझे ये अंदेशा ही सटीक लगता है। आपको पता है? प्यार दिमाग में ठुकी हुई कुछ उल्टी नालों की वजह से उपजी हुई गड़बड़ है… चाकू की धार सीधी और पैनी होनी चाहिए वरना सही तौर पर कुछ नहीं काटा जा सकता… हकलाहट का कोई सम्बन्ध हलक या तालू की बनावट से नहीं। ये भी दिमाग में गलत तौर से ठुकी नाल के कारण है। कंटीली चम्पा के बारे में कोई जानता है, किसी ने सुना है इसके बारे में… सिर्फ इसी पर हरे रंग के फूल खिलते हैं, ये मेरे सपनों का फूल है हरे रंग का, पर मिलता ही नहीं। उँगलियों की जलन के लिए किसी डॉक्टर की राय लेनी चाहिए, उन्स या लगाव ऐसे गर्म नहीं होते, अगर कहीं हरे फूल मिलें तो ख़रीद लेना डॉक्टर। और रही बात तो आपकी रेस्क्यू टीम को क्या कहती उनके सवालों पर… कितने महीनों तक रेप होता रहा? कहाँ-कहाँ उठाया-बिठाया गया? क्या मुझे इस्तेमाल करने वाले अंडर-ऐज थे, क्या मेरे हम-उमर थे, बड़े थे, बूढ़े थे… सिंगल क्लाइंट आता था या कई लोग??? इन बातों के जवाब दिए जाते हैं कहीं? नीचता को कहाँ तक खींचा जा सकता है आपकी टीम को ख़ूब पता है।”

बीच बात में अचानक उसने पेट के पास से कपड़ा हटा के डॉक्टर के दिखाया…

“ये निशान देखो … मुझे कोई आईडिया नहीं कितना टाइम हुआ होगा, कितने दिन चढ़े, ये भी नहीं पता था कि किस से था? बस एक शाम किसी क्वेक या दाई से ………….. आगे तो आप जानती हो ही क्या हुआ होगा? क्या होता है ऐसी जगहों पर?”

डॉक्टर ने उसे देखा, लगा कि पर्दा सरक रहा है… पर वह बात करते-करते फिर उसी चुप की ज़मीन पर उतर आई जहाँ अक्सर उसे सहज महसूस होता था।

“मुझे यहाँ से कब तक भेजा सकता है?” उसने प्रश्न किया।

“जल्दी ही… कोशिश की जा रही है। एक बार एन.जी.ओ से पता चल जाए कि तुम्हारे लिए क्या अरेंजमेंट्स होंगे उसके तुरंत बाद ही प्रोसेस शुरू कर देंगे।” डॉक्टर ने उसे जवाब दिया।

5

“कुमुद

कैसी हो? सेटल डाउन हो गयीं? नई जगह कैसी लग रही है? यूँ तो ऑफिशियली हम को पता है कि वहाँ तुम्हारा कैसा अरेंजमेंट किया है। पर तुम भी अगर अपनी तरफ़ मुझे कुछ लिख कर भेजो दोगी तो मुझे फाइलिंग करने में आसानी होगी।

                                                     तुम्हारी डॉक्टर”

“प्यारी कुमुद

तुमने अभी तक किसी भी लैटर का रिप्लाय नहीं दिया। जल्दी जवाब नहीं भेजोगी तो मुझे एक जनरल सी रिपोर्ट बना कर तुम्हारी फ़ाइल के साथ अटेच करनी पड़ेगी। तुम से मुझे रिपोर्ट्स के अलावा अपनी बात का भी स्पेसिफ़िक जवाब चाहिए। जवाब के इंतज़ार में।

                                                    तुम्हारी डॉक्टर”

“डिअर कुमुद

कितनी बार मन किया कि तुम्हें चम्पा कह कर एड्रेस करूँ। कुमुद की जगह तुम्हारा असली नाम लिखूं चिठ्ठी में। कितना प्यारा नाम तो है। कितने ही लेटर्स तुमको लिखे पर तुमने किसी का जवाब नहीं दिया अभी तक। तुम्हारा मन नहीं लग रहा हो वहाँ तो मुझे कहो और यहाँ आ जाओ, मैं पर्सनल लेवल पर कुछ देख लूँगी तुम्हारे लिए। मुझे तुम्हारे जाने से बहुत ख़ाली सा लगने लगा है। तुम एक बार अगर कहो तो मैं वहाँ आ सकती हूँ। मुझे नैनीताल में सेटल होने में कोई वक़्त भी नहीं लगेगा। एक छोटा सेटअप तो खड़ा कर ही सकती हूँ मैं वहाँ हम दोनों के लिए। जवाब देना।

                                                  तुम्हारी डॉक्टर मिनी”

वह सामने पड़ी चिठ्ठियों को देखती रही। कितने महीनों से डॉक्टर उसे लगातार चिठ्ठियाँ भेज रही है एक मूक आमंत्रण के साथ। उसने उलट-पुलट के दुबारा उन चिठ्ठियों को देखा फिर सामने रखी एक कॉपी में से कागज़ फाड़ा और लिखने बैठ गयी।

“डॉक्टर,

कैसी हैं आप?

देरी से लिखने के लिए अगर माफ़ी मांगी जाती है तो इस चिठ्ठी को माफ़ी की चिठ्ठी ही समझिये। आपने बार-बार मेरे यहाँ के इंतज़ामात के बारे में पूछा पर मैंने जानबूझ कर ही नहीं बताया। सोचा कि आप जो भी लिखेंगी सही ही होगा। मुझे अच्छा लग रहा है यहाँ। एन.जी.ओ. की तरफ़ से एक फैक्ट्री में काम मिल गया है। अक्सर रात की ड्यूटी लगती है… पर अब रात में आने जाने से बहुत डर नहीं लगता। बहुत बार ऐसा होता है कि मैं वहीं से सीधे झील की तरफ़ चली जाती हूँ। ये जगह इतनी बड़ी है की कहीं से भी मुझे इसका ओर-छोर नज़र नहीं आता। जब कभी थोडा उदास होती हूँ तो उस पानी में बार-बार झाँक कर देख लेती हूँ कि कहीं से तो मुझे इसका तल नज़र आये। अब तो नहीं पर शुरू-शुरू में मैंने कई बार ईश्वर से पूछा ये कैसी जगह है? जिसका कोई तल ही नहीं। पर तब मैं शायद ये भूली हुई थी कि हर अतल की गहराई में एक तल छुपा होता है। जिसे छूने देखने के लिए मन में उतरना पड़ता है। इस यात्रा में नीचे जाने पर सुख भाप की तरह उड़ जाता है, और दुःख का दाब दुगना और कई बार तो असीमित, अपरिमित हो जाता है। अन्दर की चारों दिशाओं में एक दिशा हमेशा रूखी, रेतीली और बंजर रहती है। असल में यही दिशा मन है और इसे घेरे हुए बाकी तीनों दिशायें रेत में पानी का भरम। इन दिशाओं को कभी देखा ही नहीं, छूना तो बहुत दूर की राह है। आप मुझे जिस रास्ते पर चलने के लिए बुला रहीं हैं वह इन्हीं तीन दिशाओं में से एक है और जिस भरम पर मुझे चलना नहीं, क्योंकि ये मेरा रास्ता ही नहीं। और जो भी ऐसे किसी रास्ते पर चलना चाहता होगा, किसी गहराई के तल को छूना चाहता होगा तो उसे अपना मन ख़ाली करना होगा। जो जनता हो कि मन ख़ाली किये बिना कोई नमी उसमें टिक ही नहीं सकती। और ऐसा करना मेरे लिए मुमकिन नहीं है। आपने एक बार पूछा था कि घर चली जाओ, लोग वापस लौटना ही चाहते हैं। ख़ाली लोगों के चाहने से क्या होता है घर भी तो चाहे कि कभी कोई वापस लौट कर आये। मेरे घर ने मुझे वापस आने से मना कर दिया था, रही होगी कोई परेशानी की अपने ही बच्चे पर दरवाज़ा बंद रखना पड़ा हो। आपकी रेस्क्यू टीम की हेड को चिठ्ठी लिख कर मना कर दिया था वापस भेजने के लिए। लिख रहीं हूँ तो ये भी बता दूं आपको कि प्यार, अफ़ेयर का किसे क्या मालूम पर हाँ कभी-कभी भटक तो जाते ही हैं लोग। कुछ लोग आजादियों की चाह लिए कभी भटकते-भटकते कहीं दूर निकल जाते है तो उन्हें रेस्क्यू किया जाता है। कुछ लोग अपने अतीत से सीखते तो हैं पर रुक कर बैठ नहीं जाते, वह मौका देख के फिर दुबारा कहीं ऐसी जगह भटकने के लिए निकल पड़ते हैं जहाँ से उन्हें खींच के फिर वापस न लाया जा सके।

रही बात आपकी तो आप डॉक्टर हैं जहाँ चाहें, जिस शहर में चाहें जा कर काम करें, फ़्री हैं आप। मैं ठीक हूँ यहाँ और यूँ भी अब यहाँ से लौट कर किधर जायेंग! लौटने वाले दरवाजे तो बहुत पहले ही पीठ पर फिर गए। लिखते- लिखते देखो कितनी बातें लिख डालीं मैंने। मुझे तो शर्म आ रही है कि कभी आपका नाम जानने की कोशिश ही नहीं की। खैर फिर वही बात कहनी होगी मुझे कि नाम में क्या है? हर नाम ख़ासा बढ़िया है भई… मिनी हो या डॉक्टर, चम्पा कहो या कुमुद। एक रिक्वेस्ट है आपसे कि अब आगे से कोई चिठ्ठी-विठ्ठी न लिखिए मुझे।

                                                         चम्पा।”

 
      

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