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कविता शुक्रवार 9: विपिन चौधरी की कविताएँ वांछा दीक्षित के रेखांकन

कविता शुक्रवार के ‘स्त्री-पर्व’ में आज विपिन चौधरी की कविताएं और वांछा दीक्षित के रेखांकन प्रस्तुत हैं।
विपिन चौधरी कवि, लेखक और अनुवादक हैं। विपिन ने रस्किन बांड का कहानी संग्रह (घोस्ट स्टोरीज फ्रॉम राज), रुपा पब्लिकेशन, सरदार अजित सिंह की जीवनी, संवाद पब्लिकेशन का अनुवाद किया है। वे रेडियो नाटक और थिएटर लेखन में लगातार सक्रिय हैं। उन्होंने नुक्कड़ नाटक और स्टेज थिएटर में काम किया है। प्रकाशित कृतियों में  संपादित कविता संग्रह-नई सदी के हस्ताक्षर, संपादक: डॉ. धनंजय सिंह (2002), अँधेरे के मध्य से (2008), एक बार फिर (2008) और नीली आँखों में नक्षत्र (कविता संग्रह) ज़ेब्रा क्रासिंग ( कहानी संग्रह) प्रकाशनाधीन हैं।
हरियाणा साहित्य अकादमी और प्रेरणा परिवार, हिसार (2006), विरांगना सावित्रीबाई फुले फेलोशिप अवार्ड (2007), वागर्थ,कोलकाता, (2008) साहित्यिक योगदान के लिए उकलाना मंडी, हरियाणा द्वारा (2008) से पुरस्कृत हैं।वर्तमान में वह महिला सुरक्षा समिति, हरियाणा की सदस्य हैं। चित्रकला, सिनेमा, विश्व कविता और संगीत में खासी रुचि। प्रिय लेखकों में सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, मुक्तिबोध, निर्मल वर्मा, कुंवर नारायण, लैंग्स्टन ह्यूजस, एन सेक्सटन, ऑड्रे लोर्डे और विलियम फॉल्कनर हैं। नॉन फिक्शन में राजनीति, विज्ञान, लोक संस्कृति और इतिहास पढ़ना पसन्द हैं।
पढ़ते हैं विपिन चौधरी की नई कविताएं-राकेश श्रीमाल 
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लापता मन
 
मन बहुत दूर तक उसके साथ चलता गया
फिर भूल गया
वापसी का रास्ता
 
अपने मन को यूँ
खुला रखने के लिए मुझे
आज तक मिलते हैं
ढेरों उलाहने
 
देखती हूँ जब उन प्रेमिल आँखों में
जिनमें दिखाई देता है
मेरे मन का वह बालसुलभ रूप
चल दिया था जब वह
बिना चप्पल पहने, पैदल ही
उसके क़दमों पर कदम टिकाता हुआ
 
अपने भीतर के उस बेशकीमती हिस्से के लापता होने पर भी मैंने
कभी उसे गुमशुदा नहीं माना
और न माना शिकारी उसे
बुना था जिसने कभी
इसी मन ख़ातिर
बेहद लुभावना जाल
 
फिलहाल मन
अभी भी लापता है
और शिकारी
ठीक मेरे बगल में
 
 
 
हर सच दुःख है
 
दिखाई देने वाली
हर सच्चाई
दुःख है
 
 
जितने सच उतने ही दुःख
 
गाँव से भाग
बम्बई की बदनाम बस्ती में पनाह लिए
एक छोटा बच्चा
नंगे पाँव बारिश में
चाय भरे गिलासों की ट्रे लिए जा रहा है
 
एकमात्र यही बिंब ही
एकसाथ कितने दुखों को लेकर आया है
बदनाम बस्ती की झरोखोनुमा खिड़कियों वाली चालो से झांकती
अर्धनग्न युवतियों के दुःख
आवारा लड़कों द्वारा सताने के दुःख के अलावा
सुबह लड़के के हाथों
गिलास टूट जाने के कारण
पगार से पैसा काट लिए जाने का दुःख
 
चाय में गिलासों में गिरता
बारिश का गंदला पानी
भी तो दुःख ही है
 
लड़के के तलवे में अभी कुछ चुभने का सच भी
दुःख के बिंब से बाहर नहीं
जिसे वह बहती सड़क के चलते
ट्रे नीचे रख,
निकाल भी नहीं सकता
पड़ोस की मंज़िल के सबसे ऊपरी माले से एक भड़वे ने लड़के को
भद्दी गाली दी है
नीचे खड़े दुकानदार ने उसे लड़खड़ाते देख
यह कह
उसके सिर पर चपत लगायी है,
“साले चाय में बारिश का पानी डाल कर पिलायेगा”
 
अब सच्चाई के इतने दुखों के वर्णन
का भार
नहीं ढो सकेगी
यह एकलौती कविता
 
 
बंज़र धरती
 
ज़मीन ने इस टुकड़े पर
अबकी बार
किसान नहीं रोपेगा
बाजरा, जवार, चावल और मूंग
न रबी की फसलें
यहाँ अपनी जड़ें पकड़ेंगी
 
इस बरस यह भूखंड
अपनी मनमर्जी के लिए मुक्त है
अब यहाँ केचुएं ज़मीन की कितनी ही परतों को खोद सकते हैं
और ज़मीन अपने सीने पर उन खरपतवारों को उगते
देख सकती है
जिन्हें हर बरस
किसान और उसका परिवार
दम लगाते हुए जड़ समेत उखाड़ देता है
 
इस बार यह ज़मीन
रोपेगी अपने मन की वह फसल
जिसकी चाहना को उसने अपने
गर्भ में कभी
अंकुरित किया था
 
 
 
 
 
उदासी
 
शांत जीवन में उतरना
उसे भाता है
उतरी वह बहुत हौले से
और बनी रही यहीं
 
अब उसे कहीं नहीं जाना
कोई हड़बड़ी नहीं उसे
 
अब उससे बोलना-बतलाना है बहुत आसान
हो सकता है कल को वह बने
मेरी सबसे अच्छी सखी
 
खुश हूँ कि इस बार पहले की तरह
स्वप्न में नहीं
उतरी है वह जीवन के ठीक बीचोंबीच
 
लाख चाहने पर भी
नहीं कह सकती उसे लौट जाने को
 
उदासी ने भी
कहाँ पूछा था
उतरने से पहले
मेरे पार्श्व में
 
 
 
 
प्रतिच्छाया
 
 
सफ़ेद चादर नींद की
उस पर झरते
हरे पत्तों से सपने
 
 
सपने मुझे
जीवन की आखिरी तह तक
पहचानते हैं
जानते हैं वे
मेरी गुज़री उम्र के सभी
कच्चे-पक्के किस्से
 
बेर के लदे घने पेड़ को झकझोर कर
आँचल में बेरों को भर लेने के सपने
कई बार दिखाती है नींद
 
सपनों में
मेरी सीली आँखे,
नींद ने,
ली मेरी तरुणाई से
 
प्रेम में रपटने का किस्सा
सपनों ने दोहराया इतनी बार
कि अब वह
नींव का पत्थर बन चुका है
 
जीवन से कितने बिंब सींच लिए
नींद ने
और गूंथ लिया
उन्हें सपनों में
 
एक उम्र गुज़ार कर
मैंने भी जैसे सीखा है
नींद को
सफ़ेद चादर
और सपनों को
हरे पत्तों का
बिंब प्रदान करना
 
 
 
 
रीतना
 
बह जाता है
कितना ओज़
उस चेहरे को निहारने में
एकटक
 
 
भीतर से भरा इंसान
कितना कुछ छोड़ आता है
उस दूसरे ठिकाने पर
 
खोजने लगता है फिर
उसी छोड़े हुए को
अपने सिरहाने
नहीं है जहाँ कुछ भी
आंसुओं की नमी के अलावा
 
हाँ, बचा हुआ है शायद वहां
भी थोड़ा
और अधिक खालीपन
 
 
खाली होना
इस विधि से
हर बार
और कहना खुद से,
‘आज़िज़ आयी इस प्रेम से’
 
खालीपन को भरते जाना
उदास नग्मों से
और भी खाली होने के लिए
 
काश जानती पहले
प्रेम रखता है अपने गर्भ में ऐसे कई संताप
तब भी क्या रोक पाती
देखना
उस नायाब चेहरे को
यूँ
एकटक
 
 
 
 
अपने सबसे नज़दीक
 
किसान के हृदय-भीतर ही होती हैं
सबसे अधिक
आशाएं
 
कवि रहता है
कागज़, कलम, दवात के बाद
सबसे ज्यादा
स्मृतियों में सहारे
 
जीवन
अपने आखिरी किनारे पर भी रखता है
एक और जीवन
की उम्मीद
 
मैंने उस कविता को अपने सबसे करीब रखा
जिसमें कई बिंब जड़े थे
तुम्हारे मिलन के
और फिर एक रोज़ अचानक
तुमसे
जुदा हो जाने के
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वांछा दीक्षित : स्मृतियों की रंग-रेखा- राकेश श्रीमाल
            बचपन की उन आँखों को यह पता नहीं था कि उसकी जिज्ञासाएँ और बाल-सुलभ इच्छाएं इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुकी हैं। समय बोध न उस उम्र में था और न ही चित्र-रचना करते हुए समय-दवाब इस उम्र में है। वांछा दीक्षित अपने चित्रों के साथ ही समय-अनुभव कर पाती हैं। समय वांछा के लिए गतिमान न होते हुए, चित्रों की रचना-प्रक्रिया में ठहरा हुआ सा रहता है। यही कारण है कि इस ठहरे हुए समय को वे अपने और अपने चित्रों के एकांत में सहजता से अपने साथ बांधकर रख लेती हैं। यह उनका निज समय है, निज सम्पत्ति की तरह।
             उनकी रचना-सृष्टि में रेखाएं चित्र-भूमि का मूल आधार होती हैं। इसे नींव भी कहा जा सकता है। इस नींव पर रंगों के जरिए उनका चित्र-स्थापत्य निर्मित होता है। यह स्थापत्य खंडहर भी हो सकता है। प्रकृति के फूलों, पत्तियों और उगते-मुरझाते पौध-हिस्से। लेकिन यह ठीक-ठीक वैसे नहीं होते, जैसा कि सामान्यता प्रकृति में दिखाई देते हैं। वांछा की रचना-प्रक्रिया में वे नए दृश्य की काया धारण कर लेते हैं। वे अपने रूप-आकार को छिपाते हुए दिखाते हैं। वे रेखाओं के जरिए रंग-देह को उपस्थित करते हैं। कहने या जानने का समीकरण इतना सरल भी नहीं होता कि रेखा और रंग को विभक्त किया जा सके। रंग और रेखा दोनों एकाकार हो जाते हैं और इसी मिलने में दृश्य को रचते हैं।
             लखनऊ के पास हरदोई जिले के गांव खेतुई में जन्मी और वहीं से बारहवीं तक पढ़ाई की वांछा ने ग्रामीण-परिवेश और प्रकृति को निकटता से देखा और अनुभव किया है। अपनी दो बड़ी बहनों और चचेरे भाई के साथ वे पैदल ही स्कूल जाती थीं। मिट्टी के रास्तों पर तरह-तरह के कुएं आते। कच्चे घरों के पास से गुजरते हुए कच्ची नालियां पार करना होती। यह बरसों तक चलता रहा। कुछ ऐसा कि वांछा के मन में ये रास्ते भी घर के विस्तार की तरह ही लगते। रास्ते के आसपास का सब कुछ परिचित होने लगा था। केवल नाम से नहीं, उसके रूप, आकार, मौसम के हिसाब से थोड़े बदलते रंग, काईं, सूखा और ऐसे ही अन्य प्रकारों में। उनके अवचेतन में यह प्रकृति अपनी जगह बनाती रही। उनके चित्रों की रचना-प्रक्रिया इसी जगह से बाहर आती हैं। भिन्न मौसम में, भिन्न मूड के हिसाब से।
           चित्र बनाने की उनकी रचना-प्रक्रिया असल में सोते-जागते हमेशा उनके साथ रहती है। वे मन की मुखरता की जगह अवचेतन को अधिक मानती हैं। वे कहती हैं– “हमने जो देखा है, उसे हम भूल भी सकते हैं। लेकिन वह हमारे अवचेतन में रह जाता है, जो चित्र बनाते हुए ही हम महसूस कर पाते हैं। यह महसूस करना भी अन्य अनुभव से अलग और बिना भाषा के होता है। वह चित्र की वर्णमाला में ही समझ आता है। यह बहुत देर भी नहीं होता। वह आता है और बन रहे चित्र की किसी रेखा या रंग में शामिल हो जाता है। मैं खुद थोड़े समय के बाद इसे समझने का प्रयास करती हूँ। कभी-कभी मेरे लिए मेरे चित्र भी उस अपरिचय की तरह लगते हैं, जिसे हमने बहुत पहले कहीं देखा था, लेकिन अब वह स्पष्ट याद में नहीं आ पाता।”
             स्मृतियों के वे दृश्य, जिन्हें भुला दिया गया है, वांछा दीक्षित के यहाँ चित्रों में फिर से धुंधले दिखने लगते हैं। वे जब गाँव में रहती थीं, तब नानी-घर जाने के लिए दो घन्टे का सफर बस की खिड़की में बैठ दिख रहे पेडों की गिनती करती रहती थी। बस की स्पीड तेज हो जाने पर बहुत सारे पेड़ गिनती में शामिल होने से छूट जाते थे। लेकिन उनका गिनना बंद नहीं होता था। इस खेल का जवाब उन्हें गणित में नहीं, अपनी इच्छा या जिद में देना होता। गाँव के अपने घर की सबसे ऊँची छत पर सोते हुए तारों को गिनना भी ऐसा ही काम होता। तारों भरी रात में यह सहज मुमकिन होता कि गिन चुके तारे को दुबारा फिर से गिन लिया जाए। उनकी रचना-प्रक्रिया भी इसी तरह की है और उनके बनाए चित्र भी ऐसा ही कुछ परिचय-अपरिचय का मिलाजुला प्रभाव छोड़ते हैं।
             लखनऊ आर्ट्स कॉलेज से कला की तालीम ले चुकी वांछा मानती हैं कि “कॉलेज स्किल तो सीखा सकता है, लेकिन अपने चित्रकार होने के लिए ऐसा कला-पर्यावरण हमें खुद को ही बनाना होता है, जिसमें रहते हुए सोचा जा सके, काम किया जा सके और जैसा चाह रहे हैं, वैसा जीवन जिया जा सकें।” वांछा को एकांत बहुत प्रिय है। अगर उन्हें खाना-पीना मिलता रहें, तो वे कई दिनों तक बिना किसी से बात किए अकेली रह सकती हैं। लाकडाउन में जब प्रायः अधिकांश कलाकार घरबन्दी से व्यथित रहे, वहीं वांछा के लिए यह किसी मनचाहा स्वप्न के साकार होने जैसा रहा। अपने साथ ही लगातार रहने पर उन्हें एकरसता या ऊब नहीं होती, इस जिज्ञासा पर उनका कहना है- “हम खुद को जानते ही कितना है कि ऊब हो। जितना में अपने आपको समझने का प्रयत्न करती हूँ, उतना ही लगता है कि अभी तो बहुत सारा शेष है। इसलिए मुझे कभी बोरियत भी नहीं होती।”
           फिलहाल वे अपना अधिकतर समय अपने स्टूडियो में ही गुजारती हैं। यह उनका दूसरा मन है। जिसमें रहते हुए उन्हें अपना ही एकांत स्मृतियों के गड्डमड्ड दृश्यों से लबालब भरा हुआ प्रतीत होता है। वे उसमें टहलती हैं, सुस्ताती हैं, कुछ सोचती हैं, थोड़ा पढ़ती हैं, समय और हवा के अनजाने लेकिन अटूट सम्बंधों को नहीं समझते हुए भी समझती हैं। सबसे अधिक वे अपने चित्रों के समक्ष होती हैं। उन्हें रचते हुए या उन्हें देखते हुए। उन्हें नहीं पता होता कि उनका स्टूडियो भी चुपचाप उन्हें देखते हुए अपनी उत्सुकता में सोचता होगा कि थोड़ी देर बाद वांछा के द्वारा क्या किया जाएगा।
          समकालीन भारतीय कला में शालीनता से प्रवेश कर रही वांछा का स्वागत किया जाना चाहिए। उन्हें उनके स्टूडियो में काम करते हुए आप इस लिंक में देख सकते हैं।
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राकेश श्रीमाल (सम्पादक, कविता शुक्रवार)
कवि और कला समीक्षक। कई कला-पत्रिकाओं का सम्पादन, जिनमें ‘कलावार्ता’, ‘क’ और ‘ताना-बाना’ प्रमुख हैं। पुस्तक समीक्षा की पत्रिका ‘पुस्तक-वार्ता’ के संस्थापक सम्पादक।
 
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9 comments

  1. यादवेन्द्र

    लड़के के तलवे में अभी कुछ चुभने का सच भी
    दुःख के बिंब से बाहर नहीं
    जिसे वह बहती सड़क के चलते
    ट्रे नीचे रख,
    निकाल भी नहीं सकता

    इतने चाक्षुष दुःख मैंने शायद ही कहीं कभी देखे पढ़े हों।एक के बाद एक कई बार मैं यह कविता पढ़ गया।शुक्रिया विपिन जी

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