सुरेश कुमार नवजागरणकालीन स्त्री विषयक मुद्दों पर बहुत शोधपरक लिखते हैं। इस लेख में भी उन्होंने 1887 में प्रकाशित एक पुस्तिका की चर्चा के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया है कि दहेज प्रथा उस समय कितनी विकराल समस्या बन चुकी थी। विस्तार से पढ़ने के लिए लेख पर जाएँ-
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19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में स्त्री मुद्दा लेखकों की केंद्रीय चिंता बन गया था। आठवें दशक में स्त्री समस्या को उजागार करने वाली छोटी-छोटी पुस्तिकायें प्रकाशित हुई। बाल विवाह, विधवा विवाह और भ्रूणहत्या के बाद इस दशक के लेखकों ने देहज प्रथा को भी स्त्री दुर्दशा का कारण माना था। पुरोहितों की सांठगांठ और दबाव के चलते कन्या के विवाह में माता-पिता को दहेज के रुप में काफी धन देना पड़ता था। कभी-कभार दहेज के अभाव में कन्याओं का विवाह वृद्धों और अक्षम व्यक्ति से करना पड़ता था। धन के अभाव में बाल विवाह का प्रचलन भी बढ़ा था। सन् 1887 में स्त्री समस्या और उनके दुखों पर बात करने वाली भोलानाथ अग्निहोत्री की एक छोटी सी पुस्तिका ‘कन्यासम्वाद’ प्रकाशित हुई। इस पुस्तिका में भोलानाथ अग्निहोत्री ने स्त्रियों की दुर्दशा और संताप को बड़ी बेबाकी से उठाया था। इनका कहना था कि दहेज नाम का दानव स्त्रियों को रसातल में ढकेलने का काम कर रहा है। इस किताब में सात लड़कियाँ आपस में एक दूसरे को अपने दुख काव्य और गद्य शैली में बयान करती है। भोलानाथ अग्निहोत्री ने कहा कि दहेज प्रथा पंडितों और पुरोहितों की कपोल कल्पित प्रथा है; दहेज का उल्लेख शास्त्र और पुराण में कहीं नहीं मिलता है। इस लेखक का कहना था कि आपने स्वार्थ के लिए पुरोहितों ने समाज में दहेज प्रथा चलन डाल दिया है। दरअसल, दहेज से ससुराल में स्त्रियों की हैसियत और इज्जत निर्धारित होती थी। कन्या के विवाह में जो माता-पिता अधिक दान-दहेज नहीं दे पाते थे उनकी कन्याओं को ससुराल में तमाम तरह की झिड़कियाँ और तानों का समाना करना पड़ता है। कभी-कभार ये ताने इतने अपमानित और चुभने वाले होते थे कि स्त्रियाँ मौत को गले लगाने पर विवश हो जाती थी। इस दहेज प्रथा के चलते न जाने कितने परिवार भिखारी बन जाते थे। दहेज के अभाव में न जाने कितनी स्त्रियों का विवाह वृ़द्ध या अशिक्षित व्यक्ति से करना पड़ता था। और, न जाने कितनी स्त्रियों की उम्र भी निकल जाती थी।
भोलानाथ अग्निहोत्री ने अपनी किताब ‘कन्यासम्वाद’ में बिचित्रकला, सुन्दरी,भुवनमोहनी, जयदेही, चंद्रकला और सत्यवती कन्याओं से दहेज के भयवाह रुप को प्रस्तुत किया है। इन कन्याओं का दुख यह था कि दहेज के कारण इनको तमाम यातनाओं का सामना करना पड़ रहा था। बिचित्रकला नाम की कन्या अपनी आपबीती में कहती है कि ये दहेज की प्रथा यदि न होती हमें और हमारे माता-पिता को दुख उठाना नहीं पड़ता। बिचित्रकला यहाँ तक कहती है कि विधाता इस धरती पर दोबरा हमें स्त्री योनि में जन्म मत देना। क्योंकि हमारे जन्म से माता-पिता को अनेक मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। बिचित्रकला अपनी पीड़ा का बयान इस तरह से करती है:
पुत्री जनम मति देई विधाता । मात पिता होताहि दुख पाता ।।
सुनो सबो यह बात हमारी । हम कन्या दुखियां दुख भारी ।।
बोलि सकैं मुख वचन न बानी । होउ सहायक आय भवानी ।।
रुप अनूप हमें तुम दीना । हाय सहाय न तैं कुछ कीन्हा ।।
अब बरदान यही हम मागै । दुख हमार दूर सब भागें ।।
19वीं शताब्दी की आठवें दशक के लेखक और सुधारक यह बात बड़ीं शिद्दत के साथ महसूस कर रहे थे कि दहेज की प्रथा स्त्रियों पर सामाजिक अन्याय कर रही है। कुछ प्रगतिशील माता-पिता (खासकर कायस्थ) अपनी कन्याओं को जैसे तैसे शिक्षा दिलावाते लेकिन विवाह के समय उन्हें भी दहेज देना पड़ता था। दहेज के अभाव में शिक्षित स्त्रियों का विवाह अनपढ़ और कुपढ़ व्यक्ति से करना पड़ता था। इस से ज्यादा भीषण समस्या यह थी कि दहेज के अभाव में पढ़ी लिखी लड़कियां बेमेल, वृद्ध और कम उम्र के लड़के से ब्याह दी जाती थी। इस किताब में जयदेही नामक पढ़ी लिखी लड़की अपने दुख को इस तरह बयान किया है:
पिता बहुर बर खोजत डोले । मिले कुपढ़ और भयानक बोलै ।।
जानत हो मम कुल हो कैसा । देहु दहेज कहहु तुम तैसा ।।
पिता पूछियत जब ये बाता । कछू पढ़ा है तुम्हार ये ताता ।।
मम घर बिद्या पढ़ा की आनी । हर जोतत हैं वड़ यह ज्ञानी ।।
गायत्री सध्या हु न जाने । अपने को बड़ा बिप्र बखानै।।20
भोलानाथ अग्निहोत्री का कहना था कि दहेज का दानव स्त्रियों और समाज को नोच-खोसट के खा रहा है। दहेज देना कुछ कुलीन लोगों के लिए भले ही अपनी हैसियत प्रदर्शित करने का साधन था लेकिन इसका दूसरा पहलू यह था कि इस दहेज ने अधिकांश परिवारों की आर्थिक स्तर पर कमर तोड़ कर रख दी थी। न जाने कितने परिवार इसके चलते कर्जदार बन जा रहे थे। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए नवजागरणकाल के सुधारकों ने स्त्री सुधार के एजेंडा में दहेज जैसी सामाजिक बुराई को मिटाने पर जोर दिया था। माता-पिता द्वारा दहेज की मांग पूरी न करने पर ससुराल पक्ष के लोग अपनी बहुओं पर तमाम तरह के जुल्म और अत्याचार करते थे। ऐसे जुल्मों और अत्याचारों से तंग आकर कुछ स्त्रियाँ आत्मघाती कदम उठा लिया करती थी। स्त्रियों पर इस तरह का अत्याचार देखकर इस दौर के सुधीजन लेखकों ने दहेज की कुप्रथा के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। सत्यवती नाम की कन्या दहेज की कुरीति को मिटाने का आग्रह पढ़े लिखे लोगों से इन शब्दों में करती है:
सुनो विद्यजन दुख है भारी । हम दुख पाती सभी कुमारी।।
तासो वचन सत्यप्रकाशी । जैसे ऋषि मुनियों ने भाषी।।
बेद में नहीं है रीत पुरानी । शास्त्रहु काहू नाहि बखानी।
यह कुल रीति बाधि किन लीनी । जिनकी मति अतिहीनी।।
हम मुख बंद कहत संकोचै । जो यह संकट हमरी मीचै।।
भोलानाथ अग्निहोत्री इस बात को भली-भाँति समझ चुके थे कि यह समाज बेद और पुराणों की बातों पर अपना विश्वास प्रकट करता है। इसलिए उन्होंने वेद और शास्त्र का सहारा लेकर दिखाया कि दहेज प्रथा एक सामाजिक बुराई है। आज से लगभग सवा सौ साल पहले दहेज प्रथा जितनी बड़ी समस्या थी वैसी ही वही 21वीं शताब्दी में बड़ी चुनौती बनी हुई है। आज भी दहेज के नाम पर न जाने कितनी स्त्रियों पर जुल्म और अन्याय होता है। और, न जाने कितने परिवार दहेज के कारण कर्जदार और कंगाल हो जाते हैं। भोलानाथ अग्निहोत्री ने दहेज को केवल समाजिक बुराई के तौर पर रेखांकित किया और स्त्रियों की दुर्गति का कारण भी माना था। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जो भोलानाथ आग्निहोत्री ने सवाल उठाए थे वे आज भी हमारे सामने चुनौती बने हुये हैं।
(सुरेश कुमार नवजागरणकालीन साहित्य के गहन अध्येता हैं।)
मो.8009824098
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