कवयित्री शैलप्रिया जी को याद करते हुए यह संस्मरण लिखा है अविनाश दास ने। वे जाने माने फ़िल्म निर्देशक हैं, लेकिन उससे पहले बहुत अच्छे कवि और गद्यकार हैं। आइए शैलप्रिया जी को याद करते हैं-
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91-92 की बात है। मैं स्कूल के अपने अंतिम सालों में था। मोरहाबादी में मामा के घर रहता था। मोरहाबादी के मशहूर मैदान के पूरब की ओर हरिहर सिंह रोड में मामा का जो घर था, वहां ज़्यादातर बंगले ही थे। खेत थे लंबे-चौड़े। थोड़ा आगे जाने पर आरोग्य सदन का जंगलनुमा बड़ा बगीचा था। वहां मेरा मन लगता नहीं था। मन लगता था किशोरगंज में, जहां मेरी फुआ रहती थी। डेढ़ कमरे के घर में फुआ-फुफा और उनके चार बच्चे। किशोरगंज में ऐसे प्रवासी परिवारों की तादाद बहुत बहुत ज़्यादा थी, जो किराये के छोटे-छोटे घरों में उल्लास और उत्साह से भरे हुए मिज़ाज के साथ रहते थे। मेरी साइकिल मोराबादी और किशोरगंज के बीच अनवरत दौड़ती रहती थी। यही वजह थी कि तार-बिजली के मुहावरे वाला पतलापन उन दिनों मेरी देह पर चिमटे की तरह चिपका हुआ रहता था। उन्हीं दिनों मुझे कविता लिखने का चस्का लगा था और प्रेस जैसे शब्द बड़े अनोखे लगते थे। तो एक दिन हुआ ये कि किशोरगंज की गली में टहलते हुए एक विशाल घर पर नज़र ठहर गयी, जहां बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था, प्रतिमान प्रेस।
प्रतिमान प्रेस पूरे किशोरगंज में बहुत मशहूर था। फुआ ने ही बताया था कि ये विद्याभूषण जी का घर है, जो बहुत बड़े विद्वान हैं और कवि हैं। कवि विशेषण में ही एक सम्मोहन था मेरे लिए। एक दिन हिम्मत करके मैं उस घर में घुस गया। उस घर में कई हिस्सों में किरायेदार भरे हुए थे। ऊपर की मंज़िल पर पहुंचा, तो विद्याभूषण जी मिले। उन्होंने बस ये पूछा था कि किससे मिलने आये हो। मैंने उनका ही नाम लिया और वे घर के अंदर ले गये। पूछा तक नहीं कि क्यों मिलने आये हो? सोफे पर इत्मीनान से बैठने को कहा। मैंने कहा, कुछ कविताएं सुनाना चाहता हूं आपको। तभी एक सौम्य सी महिला आयीं, तो विद्याभूषण जी ने मेरा परिचय उनसे करवाया। वह शैलप्रिया थीं। उनकी पत्नी। शैलप्रिया जी को देखते ही मुझे मेरी मां याद आयी। चेहरे में ग़ज़ब की समानता थी। बहरहाल, दोनों ने मेरी उन दिनों की मामूली तुकबंदियां सुनीं और कहा कि तुम्हें लिखते रहना चाहिए और उससे भी ज़रूरी ये है तुम्हें अच्छे कवियों को पढ़ते रहना चाहिए। उस दिन मुझे कुछ बढ़िया खाने को भी मिला था। चाय भी, जो घर से बाहर ही पीने को मिलती थी।
तो हुआ ये कि मुझे प्रतिमान प्रेस जाकर विद्याभूषण जी के साथ बैठने, उनसे बातें करने का चस्का सा लग गया। हमारी हर बैठक में शैलप्रिया जी भी बैठती थीं, लेकिन बोलती बहुत कम थीं। मेरी बकबक को बहुत प्यार से सुनती थीं। कमाल ये था कि मेरे टाइम-कुटाइम घर में घुस जाने पर घर के किसी सदस्य ने कभी खीज नहीं दिखायी। उन दिनों आज जैसी आने की पूर्व सूचना देने का चलन नहीं था। मैं विद्याभूषण जी को सर बोलता था और शैलप्रिया जी को चाची। तो एक दिन चाची ने मुझे कविताओं की अपनी दो किताबें दीं। मैं आसपास के ऐसे कवियों को उन दिनों ज़्यादा जानता था, जिनकी कोई किताब नहीं छपी थी। विद्याभूषण जी और शैलप्रिया जी पहले ऐसे कवि थे मेरे जीवन में, जिनकी किताबें छपी थीं।
ख़ैर, पराग (प्रियदर्शन) और अनुराग भैया की फेसबुक वॉल पर जब भी मैं शैलप्रिया जी की तस्वीर देखता हूं, मुझे मेरी मां की याद आती है। मेरी मां उनसे तीन साल छोटी थीं। संयोग ही है कि दोनों लगभग एक ही उम्र में इस दुनिया से रुख़सत हुईं। शैलप्रिया जी 48 साल की उम्र में और मेरी मां 49 साल की उम्र में। 94 में जब शैलप्रिया जी का इंतक़ाल हुआ था, मैं दरभंगा चला आया था। मुझे ख़बर ही नहीं थी। कुछ सालों बाद रांची जाना हुआ, तो फुआ से पता चला। मुझे याद है, मैं विद्याभूषण जी से मिला था और मेरा मन बहुत भारी था। मैं शैलप्रिया जी के बिना प्रतिमान प्रेस की कल्पना ही नहीं कर सकता था। किसी के न होने की सूचना एकदम ताज़ा होने की वजह से मेरे दुख को विद्याभूषण जी ने ही कम किया था। ढेर सारी बातें की थीं। ढेर सारे किस्से सुनाये थे।
इतने सालों बाद आज भी जब रांची जाता हूं, तो एक चक्कर प्रतिमान प्रेस का ज़रूर लगाता हूं। किरायेदार अब भी हैं, लेकिन अपने वाले हिस्से में बस विद्याभूषण जी मिलते हैं। बाकी सब वहां से निकल कर अपने-अपने कामकाज़ी शहरों में बस चुके हैं और मेरी नज़र उन्हें तलाशती भी नहीं। मैं जिन्हें बहुत ज़्यादा मिस करता हूं, तो वो हैं शैलप्रिया जी। चाची। एक ऐसी कवयित्री, जिन्होंने ख़ामोशी से अपने हिस्से की संवेदनाओं को रचा, लिखा और चुपचाप चली गयीं। मैं शुक्रगुज़ार हूं शैलप्रिया स्मृति सम्मान के वार्षिक आयोजनों का, जिसके ज़रिये हर साल मेरी कवयित्री चाची की चर्चा होती है और उनकी रचनात्मक धरोहर आज के रचनाकारों में बांटी जाती है।
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