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किताबों और फिल्मों में कुछ शास्त्रीय और शाश्वत होते हैं, कुछ वक़्ती!

हिंदी में लोकप्रिय और गम्भीर साहित्य की बहस बहुत पुरानी रही है। इसी को अपने इस लेख में रेखांकित किया है युवा लेखिका सुदीप्ति ने। उन्होंने अनेक उदाहरणों के साथ अपनी बात रखी है, जो सोच-विचार और बहस की माँग करती है। इस विषय पर आपके विचार भी आमंत्रित हैं। फ़िलहाल यह लेख पढ़िए-

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जो बीते युग में बेहद लोकप्रिय था, जरूरी नहीं कि आज भी उसी तरह से हो। साहित्य और फिल्मों के प्रसंग में मैं ऐसा ही समझती हूँ। कला को अतीत के युगबोध और परम्परा की निरंतरता के अध्ययन के लिए म्यूजियम में संरक्षित किया जाता है। साहित्य में ऐसा संरक्षण सार्वजनिक और निजी पुस्तकालयों में हो सकता है, होता भी है; पर इसका एक भिन्न रूप भी दिखता है–पुनःमुद्रण या पुनःप्रकाशन। आज दशकों पुरानी लोकप्रिय पुस्तकों में से चुनिंदा का पुनःमुद्रण नए-नए कलेवर में हो रहा है।

पढ़ने के आरंभिक दिनों में हम लेखन के कालजयी और कालजीवी होने पर बहुत बहस किया करते थे। पढ़ने-लिखने की दुनिया मे दोनों तरह के लेखन की जरूरत पर भी बल दिया जाता है। हालांकि यह सिर्फ लिखने वाले की मंशा और प्रयासों पर निर्भर नहीं करता है। लिखे हुए की ताकत और पढ़ने वालों की सोच से भी तय होता है कि लेखन तात्कालिक है या सर्वकालिक। उसके पीछे लेखक की मेहनत हो सकती है, पर हमेशा वह मेहनत ही कमाल कर जाए, जरूरी नहीं।

हिंदी के लोकप्रिय या पॉपुलर लेखन की बात करें तो वे ज्यादातर अपराध, थ्रिलर, प्रेम और रोमांस आधारित उपन्यास रहे हैं। कुछ लेखन सामाजिक मुद्दों पर भी हुआ है। कई पॉपुलर उपन्यासों की लाखों प्रतियाँ भी कभी बिकीं और उनमें से कुछ के ऊपर उस दौर में हिट फिल्में भी बनीं। गंभीर लेखन की जो धारा उसे लुगदी साहित्य कहती रही, उसके नाक-भौं सिकोड़ने से परे वे पाठकीयता का एक बड़ा वर्ग घेरे रहीं, बनाती रहीं।

लेकिन सवाल यह है कि वे आज अपनी पाठकीयता में कितनी स्वीकृत हैं? आज मुझे कोई गुलशन नंदा, रानू, सरला रानू, सुरेंद्र मोहन पाठक, मनोज आदि के उपन्यास दे तो मैं कितनी देर उनको पढूंगी? बचपन में उनको पढ़ने के लिए गर्मियों की दोपहर में किसी सुरक्षित कोने का इंतजार रहता था कि बड़े सामने नहीं आ जाएँ, लेकिन आज ऐसे किसी डर के न होने पर भी शायद नहीं पढ़ सकती। यकीन मानिए, कोशिश की, पर नहीं पढ़ पाई। यूँ कि मेहदी साहब को सुनने के बाद ग़ज़ल गायकी में कोई और वैसा भाता नहीं। शायद मेरी आस्वाद इन्द्रियाँ साहित्य में पीछे नहीं मुड़ सकतीं। लेकिन कुछ लोग होते हैं जो उन्हें पुनः पुनः पढ़ते हैं, पर कितने? मेरी दृष्टि में बिल्कुल आम पाठक भी एक बार देख कहता है, अरे! इसे तो मैंने पढ़ रखा है।

कालजीवी और कालजयी होने की तमाम बहसों और विवादों से परे मेरा अनुभूत सत्य यह है कि बीते युग के लोकप्रिय को आज नॉस्टेल्जिया के भाव से भरा प्रेम ही मिलता है। उसका युग बोध जबकि कहीं बीत चुका है।

आज के दौर में पुरानी लोकप्रिय किताबों के पुनःमुद्रण और पुनःप्रकाशन की सफलता-असफलता के बारे में तो प्रकाशक ही बता सकेंगे कि उनके लिए कैसी पाठकीयता बनी या बची है, लेकिन मैं साहित्यिक दायरे में शामिल लोकप्रिय उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ के बारे में एक बात बताती हूँ। मैंने उसे स्कूल में पढ़ा। ग्यारहवीं में पढ़ा, और सुधा-चंदर के प्रेम में पड़ गई। कथा बरसों पसंद रही, हालांकि बार-बार नहीं पढ़ सकी। बरसों बाद बतौर अध्यापक एक दफे नवीं कक्षा की लड़कियों को हॉलिडे रीडिंग के रूप में उस उपन्यास को दिया। सच पूछिए तो कक्षा की 30 में से एक को भी उतना अच्छा नहीं लगा,  जितना कि मुझे लगा था। उसके बाद जब मैंने खुद एक बार फिर उठाया तो मुझसे वह पूरा नहीं पढ़ा जा सका। उसले बदले लेखक का दूसरा उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ आज भी मुझे उतना ही पसंद है। उतने ही चाव से पढ़ सकती हूँ।

यह कोई बड़ी सैद्धांतिक बात नहीं है। बस, लगता है कि किताबों और फिल्मों में कुछ शास्त्रीय और शाश्वत होते हैं, कुछ वक़्ती। वक़्ती लोकप्रिय ही हो, यह जरूरी नहीं।शाश्वत शास्त्रीय ही हो, यह भी कहीं नहीं लिखा। लिखा तो प्रेमचंद ने भी बहुत वक़्ती, पर वह शाश्वत रह गया।

वैसे हिंदी में लोकप्रिय की धारा अभी तगड़ी है। वर्तमान की लोकप्रियता का निर्माण वर्तमान के आधार पर हो तो ही बेहतर। भले ही कुछ लेखक लोकप्रिय अंग्रेज़ी फिल्म से ही कहानी उड़ा लेते हैं, तो भी शायद इस युग की पाठकीयता को समझने, उसके आस्वाद को बनाने-बचाने की जद्दोजहद उनकी अपनी है। उनकी लेखनी लोकप्रियता के तमाम निकषों पर खुद को जाँचती-परखती चल रही है। ऐसे में लोकप्रियता के संधान में पीछे की ओर जाना कितना सही है, यह तो नहीं मालूम। वैसे रीग्रेसिव तो हम हर क्षेत्र में हुए हैं।

मेरा मानना है हर समय और समाज को लोकप्रिय और गंभीर साहित्य की जरूरत होती है। दोनों किस्म के लेखक अमूमन अलग होते हैं, लेकिन गंभीर लिखने वाला लेखक भी कोई लोकप्रिय किताब लिख सकता है और लोकप्रिय में कुछ शास्त्रीय न हो सके, यह कहना बेवकूफी है। ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ के लोकप्रिय और शास्त्रीय होने पर कोई विवाद ही नहीं। मार्खेज की कई किताबें लोकप्रियता के मानकों को बनाती हैं और कालजयी भी हैं। लेकिन जब हम दस्तोवस्की और मार्खेज तक जाते हैं तो यह नहीं भूलना चाहिए उनके लेखन की मौलिक शक्ति कितनी है। आप लिखेंगे ‘लिखो-फेंको’ पेन की तर्ज पर और गंभीर अध्येताओं से खफा रहेंगे कि आपको तवज्जो नहीं दे रहे तो यह आपकी समझ है। इसी तरह गंभीर लेखन का गुमान पाले लेखक अबूझ, अपठनीय लिखते हुए बेस्ट सेलर बन जाना चाहेंगे तो यह उनकी समझ की बलिहारी है। दोनों को अपनी जगह और खूबी समझनी चाहिए। दोनों का सह-अस्तित्व ही समाज और साहित्य के लिए जरूरी होता है। पर यह अलग मुद्दा है।

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