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केशव भारद्वाज की कहानी ‘अपने लोग’

केशव भारद्वाज पुलिस सेवा में रहे हैं। आजकल प्रतिनियुक्ति पर कंपाला, युगाण्डा के भारतीय उच्चायोग में  सहायक कार्मिक एवं कल्याण अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। इससे पूर्व वह प्रिटोरिया में तैनात रहे हैं। लेखक हैं। मैथिली में लिखते रहे हैं। आज उनकी हिंदी कहानी पढ़िए-

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मोबाइल फ़ोन में फेसबुक मेसेंजर की नोटिफिकेशन टोन की आवाज़ पर भवेश ने इनबॉक्स में झाँका.

“…..आप बानुछापर बाले भवेश हैं?”

अचानक ही एक अनजान महिला-प्रोफाइल से आये इस सन्देश ने भवेश को इस प्रोफाइल की पड़ताल करने पर मजबूर कर दिया. प्रोफाइल पिक्चर में  एक सुन्दर, अपटूडेट और आकर्षक महिला मुस्कुरा रही थी. कौन हो सकती है? उस महिला की पूरी फ्रेंडलिस्ट खंगाल दी . कोई कॉमन जानकार नहीं मिला. लगे हाथ फोटो गेलरी भी देख डाली. यहाँ से भी निराशा ही हाथ लगी. लेकिन इस अनुसंधान से  यह निश्चित हो गया था कि महिला का सम्बन्ध बिहार से था.

“…..आप बानुछापर बाले भवेश हैं?” भवेश को फिर से इस प्रश्न पर आना पड़ा.  आज से तीस बल्कि पैंतीस,  नहीं जी पूरे चालीस बरस पहले वह बानुछापुर रह चुका था . उस में ऐसा कोई विशेष गुण नहीं था कि कोई इस समय-काल  उसे बानुछापर के सन्दर्भ से पहचाने. भवेश ने अपने आप को एक बार फिर देखा. कोई विशेषता नज़र नहीं आई बस ले दे के इस मीडियम किस्म की सरकारी नौकरी के. बानुछापुर में भी घर के लोगों को छोड़कर वहाँ के लिए भी वह अनजाना ही है.

ऑफिस आज कुछ ख़ास व्यस्त नहीं था. कब भवेश अतीत में चला गया पता भीं नहीं  चला. भवेश एक साधारण मध्यम श्रेणी का एक आम सा बालक था. उसके पिता न तो खानदानी धनवान और न ही किसी सरकारी उच्च पदासीन थे. एक आम से बालक की इच्छाओं के विपरीत न तो उसके कोई दबंग बड़े भाई थे, न ही उसके पास कोई नैसर्गिक प्रतिभा गाने-बजाने की जिससे  किसी पर कोई प्रभाव पड़ सकता हो. पढ़ाई में तो था ही द्वित्तीय श्रेणी में पास आने वाला क्रिकेट में भी सिर्फ ले दे के  एक बल्ला ही  उसके पास था. क्या रौब किसी पर पड़ता. उन दिनों किसी लड़की से बात करने के नाम पर सिर्फ बहनें थी. उन दिनों  यदि कोई बालक किसी बालिका की ओर  देखता  हुआ पाया जाता था तो पिटाई हो जाना निश्चित थी. और यदि बात करते हुए धर लिया जाए तो पिटाई की अग्रिम अवस्था कुटाई से ही  बड़े लोग संतृप्त होते थे. और आज के किसी नर-बालक के कोई नारी-मित्र नहीं है तो यह बात माता- पिता  के लिए चिंता का विषय हो जाती है . यहाँ तक कि कई माता-पिता इस बात को अस्वाभाविक व्यवहार मानकर मनोचिकित्सीय उपचार लेने की सोचने लगते है . हालांकि आजकल के बच्चे अपने पेरेंट्स को ऐसी दुश्चिंता से दूर ही रखते हैं.  आह भाग्य अपना अपना. अपने बचपन में,  दूसरे बालकों की पिटाई और कुटाई देखकर भवेश लड़कियों से  देखने-बोलने-मिलने की लालसाओं से दूर ही रहा था. आफिस के बंद होने के समय तक यही उधेड़बुन भवेश के मन में चलती रही.

घर के रास्ते में भी “…..आप बानुछापर बाले भवेश हैं?” यही मेसेज दिमाग़ में टक्कर मारता रहा. घर में घुसा. हाथ मुंह धोया परन्तु साबुन व पानी का प्रयोग भी उसके चेहरे से इस प्रश्न को पौंछ नहीं सका था.

“आफिस में  सब ठीक तो है? फिर किसी  अफसर से  लड़ तो नहीं  लिए?” पत्नी ने चेहरा ताड़ लिया था. टोक दिया बल्कि सवाल दागते हुए पूछ लिया. पत्नी वाली कम माँ वाली चिंताएं शुरू हो गयीं.

“अभी  हमें यहाँ  रहना है । बेटी के कालेज का फाईनल ईयर है। बीच सेमेस्टर में  जाना मुमकिन नहीं है । जब तक बेटी की पढ़ाई खत्म  नहीं होती  है,  तब तक शांति  से  नौकरी  कर लो। बाकी  लोग भी तो कर ही रहे  हैं । किसी  को  नहीं  परेशानी होती है। तुम्हें ही क्या फर्क  पड़ता है ।  चुपचाप  रह के अपना समय निकालो। “

महिलाएं बल्कि पत्नियाँ  बीमारी भांप तो लेती हैं मगर बीमारी का नाम नहीं जान पातीं.

भवेश का  आफिस में  कुछ मामलों पर  अपने इमीडिएट अधिकारी से मनमुटाव चल रहा था। वह ऑफिस ही क्या जहां अधिकारी का अधीनस्थ से और वह घर ही क्या जहां सास का बहु से मन-मुटाव न हो.  आदर्श और नैतिकता के पाठ पढ़ाने वाले वरिष्ठ  अधिकारी  सरकारी  गाड़ी का इस्तेमाल  अपने  बच्चे को  स्कूल ढोने में  लगाए यह भवेश को सहन नहीं होता था । उसके  अनुसार ” वर्क टु रुल” आंदोलन  होता है । सब काम नियम- कानून से नहीं  चलता है । व्यक्ति  को व्यवहारिक और ईमानदारी के दिशा में  अभिमुख होना चाहिए ।

भवेश ने  हुं हां कर श्रीमतीजी को विषय से भटका दिया । परन्तु खुद भवेश नहीं भटक पा रहे थे, “…..आप बानुछापर बाले भवेश हैं?”

जब भी मौका मिलता……………उस महिला के प्रोफाइल को खोल के बैठ जाता. हर बार उम्मीद होती   कि कुछ इसमें से स्क्रुटनी कर लेगा , जिस आधार पर मैसेज करने  वाली  …………. का पता लग जाता । लेकिन किसी  निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाता। पूरा  प्रोफाईल इधर से उधर कर लिया, मतलब का कुछ नहीं निकला।

बार – बार  भवेश का मन करता था ,  इस  मैसेज का जवाब देकर पुछ लें? विवेक ऐसा कदम उठाने से रोकता था। उत्सुकता  और विवेक के बीच कसकर द्वंद्ध मचा हुआ था। इसी सब में उलझा रह गया था। अंत में जीत विवेक की ही हुई। मैसेज का जवाब नहीं दे पाया। देखने-बोलने-मिलने से हासिल पिटाई-कुटाई अब भी विजयी थी. लेकिन वह  जितना इस सब से बाहर आना चाह रहा था, उतना ही ज्यादा उलझता जा  रहा था । यह उत्सुकता का शूल पल्लवित हो कर झाड-झंकार  हो गया था. स्थिति यह हो गयी थी इसमें फंसने के बाद जितने हाथ पैर मारता उतना ही शरीर लहू-लुहान हो जाता .

सहकर्मियों और दोस्तों से यह भी सुन रखा था कि सोशल मीडिया पर इसी तरह के मेसेज देकर लोगों से फ्रॉड किया जाता है. यह बात भी भवेश को संवाद स्थापित करने से रोक रही थी. हाँ एक बार यह मेसेज किसी पुरुष का होता तो अब तक रहस्य का यह दुर्ग विजित हो चुका होता.

भवेश उम्र के उस पड़ाव पर खड़े हैं, जहां कोई थोड़ा भी   इधर उधर  हो गया , तो लो नई कहानी  लिख गई। वैसे  भी  इस देश की  महिला  आजाद खयाल की होती  हैं । सेक्स को यहाँ  अभिशाप नहीं  वरदान  माना जाता है । बात करना हो या सेक्स करना हो, रजामंदी मिलने  में  ज्यादा परिश्रम नहीं  करना होता  है । भारतीय  को तो ये लोग वैसे  भी  महिलाभक्त मानते हैं ।    इस दोस्ती की  बात अगर फैल गई, फिर तो हो गया ” खेला “।

और फिर  बिहारी समाज में, अभी भी  चरित्र  के छिद्रान्वेषण से महतवपूर्ण और कोई बात नहीं है. इस  से ज्यादा और किसी काम में मन नहीं लगता है।  मुर्दा घर में तो एक ही बार लाश का पोस्टमार्टम  किया जाता है , भवेश के समाज में तो जबतक चिथड़ा चिथड़ा नहीं हो जाता, बात का  पोस्टमार्टम चलता ही रहता है।

फलां फंस गए!..किसी औरत  के चक्कर में पड़े थे!..पहले से ही होगा। इस बार भांडा फूटा! लोगों को समझना इतना आसान नहीं है! किसके अंदर कौन सा खिचड़ी पक रहा है? यह कौन बताएगा?  वो तो इस बार बात बढ़ी, तब  लोगों को पता चला ……………. यही सब आशंकाएं न्यूज़ की हेड लाइन बनकर भवेश को नज़र आने लगीं  इस सब तेला बेला से रेहल खेहल  हो गये हैं भवेश। आखिरकार, इतनी जद्दोजहद के बाद भी साहस नही़ जुटा सके -फेसबूक पर जबाब देने का। थोड़े दिन बाद सब शांत सा होता चला गया. लेकिन यह तूफ़ान से पहले की शान्ति थी.

 -” लग रहा है  आप मुझे नहीं पहचान पाए?  मैं धनहा गांव की ललन बाबु की बेटी हूं। अब आशा करती हूं ………………….आप पहचान गये होंगे। ” अचानक से उसी महिला-प्रोफाइल से मेसेज आया. मगर अब सब कुछ ऐसा साफ़ होता चला गया जैसे बारिश के बाद आसमान होता है.  सब कुछ एकबारगी याद आ गया। पुरे शरीर में सनसनाहट आ गई।

खुद  अपने आप पर अफसोस होने लगा भवेश को , कैसे नहीं पहचाने?फोटो तो देख चुके थे, तब भी अंदाजा नहीं लगा। वो क्या समझी होंगी? बिना एक पल गंवाते हुए, उसी समय जवाब दे दिया गया । उसने अपना वाट्सएप नम्बर टाइप करते मेसेज कर दिया ………यह लीजिए…………..या तो इस नम्बर पर बात कीजिए या अपना नम्बर बताईए?

चालीस वर्ष पहले के सारे सीन हिंदी मूवी के फ़्लैश-बैक की तरह  आँखों के सामने घूमने लगे।

भवेश  चौदह – पन्द्रह वर्ष से ज्यादा के नहीं थे।  वार्षिक परीक्षा दे चुके थे। रिजल्ट नहीं निकला था। उनके सभी साथी  कहीं कहीं  घुमने चले गए थे। ये सारे साथी शहर में किराया पर रहते थे। छुट्टी होने पर अपने गांव या रिश्तेदार के यहां दूसरे शहर घुमने चले गए थे।

भबेश का गांव-शहर सब यही था। इनका कोई संबंधी दूसरे शहर में रहता भी नहीं था। सारे के सारे इसी बेतिया शहर में रहते थे। कोई इस मुहल्ले तो कोई उस मुहल्ले में। बचपन से ही परीक्षा के बाद घर में ही रहना भवेश को पसंद नहीं है।  लेकिन जाते तो कहां जाते ?  भवेश के पिताजी को अपने गांव से विरक्ति था। बदली वाला नौकरी भी नहीं था। मन मसोस के रह जाते थे  भबेश। सोचते, ऐसा भी कोई नौकरी होता है? जिसमें बदली नहीं हो? वो तो ऐसा नौकरी करेगा, जिसमें खुब घुमना फिरना होगा। हर वर्ष , वार्षिक परीक्षा के बाद का समय, उसको पहाड़ की तरह लगता था …….. ……इस बार भी वही हुआ। मूंह लटका कर, घर में अकेला लेटा रहता था।

उन्हीं दिनों  उसके पिताजी  के दोस्त ललनजी बम्बई से आये थे। वैसे वो उम्र में भवेश के पिताजी से बड़े थे। लेकिन दोनों में पुरानी दोस्ती थी। दोस्ती का कारण था – दोनों जन  पहले यहीं  पर एक जगह नौकरी करते थे। ललनजी सीनियर थे। बाद में वो कोई दुसरी परीक्षा पास करके बम्बई चले गये थे। वो जब कभी अपने गांव की तरफ आते थे, यहां मिलने आते ही थे।   सब बार  इन लोगो को बम्बई आने के लिए कहते थे। बम्बई घुमने का  भवेश का भी बड़ा मन करता था। वो बाइस्कोप में बम्बई शहर कई बार देख चुका था। हीरो – हीरोइन को बिना सिनेमा के पर्दे पर, असली में  देखना चाहता था।  लेकिन कोई इसके घर से बंबई जाता ही नही था। भवेश को अपने घरवालों पर बहुत गुस्सा आता था- आखिर ये सब घुमने जाते क्यों नहीं हैं?

ललनजी ने कहा -, ” हम अब रिटायर भी हो जायेंगे। आप लोग कब आईएगा? बहुत नमक इस घर का खाये हैं, एक बार हमारे घर भी तो आईये।”

इस बार  ललनजी, अपनी छोटी बेटी सीमा की शादी करने के लिए, अपने गांव आए हुए थे।  उनको, तीन बेटी और दो बेटे थे। बाकी सबकी शादी हो चुकी थी। यह उनका अंतिम यज्ञ था………………..इसी लिए इस शादी में शरीक होने का आग्रह ज्यादा था।

भवेश की मां यह जानती थी- यहां से कोई जानेवाला नहीं है। भवेश का परीक्षा के बाद घुमने का मन कर रहा था ………….वो बोली- , ” भवेश को ले जाईये ।  अब तो यही बच्चा लोग संबंध को आगे बढ़ायेंगे। और तो कोई जानेवाला यहां से नहीं है”- उनका इशारा अपने और भवेश के पिताजी के तरफ था, ” आपसे इस घर का क्या छुपा हुआ है।सब जानते ही हैं।”

फिर क्या था? मां जो कह देती थी, वो अंतिम होता था। भवेश का कपड़ा लत्ता सब एक झोला में रख दिया गया। वो ललनजी के साथ ही शादी में शामिल होने के लिए चल दिए।  बिना मां पिताजी  के अकेला जाने का यह पहला  अवसर मिला था भवेश को। वह अति-उत्साहित था । कंधा उचका उचका कर ललनजी के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहा था।पहले ट्रेन, फिर टायरगाड़ी से वो लोग धनहा गांव पहुंचे। भवेश तो टायरगाड़ी पर थक  हार कर सो गया था। पहली बार, ऐसे  गाड़ी पर चढ़ा था, जो बैल चला रहा था। गाड़ीवान से ललनजी कुछ कुछ बात कर रहे थे।

कौन कौन आ गया? क्या क्या सामान आया? क्या क्या आना बाकी है?कल कहां जाना है?जलावन की लकड़ी कट चुकी या नहीं?

चीनी का परमिट मुखियाजी ने भिजवाया?मिट्टी का तेल का क्या हाल है?कितना पेट्रोमेक्स गांव में है? और की जरूरत हो तो दुसरे गांव से भी मंगा लिया जायैगा?हलुवाई को बता दिया?नाच का साटा बांध दिया?पंडीजी को खबर हो गया? इसी तरह की बातें हो रही थी। इन सब बातों से भला भवेश को क्या मतलब। वह तो चाह रहा था कि गाड़ीवान सिनेमा की तरह कोई फिल्म का गाना गाये और भवेश लेटे लेटे सुनता रहे। उसने  हाल ही में  राजकपूर का  फिल्म  देखा था। नाम उसे याद नहीं  आया ।वह ऐसा ही  लूत्फ लेना चाह रहा  था । खुली  आँखों में  यह संभव नहीं था। उसने  आंख मूँदकर सपना देखना शुरू कर दिया था । इसी में  नींद आ गई थी। यही सब सोचते, समझते, सोते और सुनते  ललनजी का घर आ गया।

काम का आंगन था। वहां के सभी लोग भवेश को देख कर बहुत खुश हुए। ललनजी के पूरे  परिवार ने  भवेश को हाथो हाथ लिया। आखिर थे तो बच्चे न, भवेश। पहले तो भवेश कुछ देर  तो दरवाजे  पर ललनजी के साथ संचमंच होकर बैठे रहे। फिर ललनजी भी कहीं ऊठ के चले गए। उनके घर के बच्चों ने , भवेश को इशारा करके बुलाया ………. ……. भवेश भी उठ कर उन बच्चों के साथ हो लिए…………….फिर शुरू हुआ-  खेलों का  दौर। चोरा नुक्की, बुढ़िया कबड्डी, ताश, लुडो,लाली, पिट्टो और कौन कौन सा  खेल…. बीच में लोगों ने  पकड़ कर भवेश को नाश्ता करवाया। इन्हीं सारे बच्चों में , ललनजी की बेटी सीमा भी थी। वो इन सब बातों से अनजान। दस दिन के बाद ही उसकी शादी होनी है  और सात दिन बाद गौना।

पौ फटते ही खेल शुरू हो जाता और देर रात तक चलता रहता।  शुक्ल पक्ष चल रहा था,  इसी कारण किसी कृत्रिम रोशनी की जरूरत भी नहीं थी। खेल में एक दिन तो वहां के  सारे बच्चों ने  भवेश को मेहमान वाल मान और सम्मान दिया परन्तु  दूसरे दिन से लड़ाई होने लगी।  कई खेलों स्थानीय नियम लागू। कोई लड़का झुकने के लिए तैयार नहीं था। अपने यहाँ  के नियम की बात पर भवेश को धमका भी दिया गया.

“खूद को मेहमान समझते हो, तो उस बरामदे पर जाकर के बैठो? यहां पर यहीं का नियम चलेगा। खेलना है तो हमारे नियम से ही खेलना पड़ेगा”।

 भवेश के पास  समझौता के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं बचा था। वहीं के नियम से खेलने लगा।उस गांव के बच्चे खेल में बेईमानी भी करते थे…………..यह भवेश को बर्दाश्त नहीं था। झगड़ा हो जाता था, फिर कुछ देर बाद मेल-मिलाप  हो जाता।  इन  सब लड़ाई  झगड़े के मामले में सीमा हमेशा भवेश की तरफ रहती थी, बाकी सब कई बार अलग  रहते। एक तरह से दो गुट बन गया था। एक तरफ  सीमा और भवेश , दूसरा गुट   बसंत  और  अन्य  बच्चों का।

सीमा बम्बई से आई हुई थी।पांच भाई बहन में सबसे छोटी थी। इस कारण वो काफी दुलारू थी। दूसरा,  उसी की शादी भी थी, इससे उसका मान भी ज्यादा था।वो सबकी चहेती बनी हुई थी। एक दिन खेल में सबको अपना अपना  शहर का नाम लेना था। भवेश ने “बानुछापर” कहा………बसंत “मुसरी घरारी ” बोला………….सीमा “बंबई” बोली। इसी तरह सारे बच्चे अपने अपने जगह का नाम बताये। कई बच्चे तो “धनहा ” ही बोले। सीमा को “बानु छापर  ”  सुनने में अच्छा लगा। फिर क्या था?  भवेश को ” छापर” कहने लगी और  बसंत को  “मुसरी”।  वो “छापर ” और ” मुसरी ” बोलती, फिर जोर-जोर  से हंसने लगती।  भवेश भी सीमा का  “बंबई “कहने पर बोले – यह तो “सबुजा आम” को कहा जाता है। वो लोग , सीमा को सबुजा और   सीमा इनको  छापर और  मुसरी कहती थी। इसी तरह सारा दिन हंसते- खेलते बीत जाता था। सारे  बच्चे  उपनाम से  ही आपस में  बातें  करते  थे।

चूंकि भवेश बिना माता-पिता के  आये हुए थे, इसलिए ललनजी और  घर के और सदस्य, ज्यादा ख्याल रखते थे। सारे  बच्चे एक ही जगह सोते , उठते, खाते, पीते थे। सिर्फ  नहाने के समय लड़का और लड़की अलग अलग जगह जाते, समय एक ही रहता। सीमा को उनके घर की औरतें कुछ पारंपरिक रीति रिवाज करने के लिए बुलाने आ जाती थी। सीमा की मां उनलोगों को बोलती-

“इसको अभी खेलने कुदने दीजिए। फिर तो घर गृहस्थी के पचड़ा में फंसना ही है ।”

जितना  भवेश के समझ  में उस समय आया था, उस अनुसार ललनजी का इसी वर्ष रिटायरमेंट था। इससे पहले वो  सीमा की शादी करके अपने  जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे। सीमा की मां, इस रिश्ता के खिलाफ शुरू में थी।  उस जमाने में, औरत की बात ही कितना रिश्ता निश्चित करने में माना जाता था? सीमा की मां के विरोध पर घर में किसी ने  कान – बात ही नहीं दिया। मन को मार कर अंत में लग गई थी, बेटी के शादी के तैयारी में।  यही सोच कर मन को दिलासा दिया – ” पिता और भाई जो कर रहे हैं, भले के लिए ही तो कर रहे होंगे। इतना प्यार करते हैं  सीमा को, कोई दुश्मन थोड़े हैं।”

सीमा का होनेवाला दुल्हा एम टेक कर के वैज्ञानिक का नौकरी करता था।

” दूल्हे के गुण  देखे जाते हैं  और दुल्हन का रुप”- यही सीमा की मां सबको कहती रहती थी।

यह भी सभी को पता था,  होने वाला मेहमान की उम्र ज्यादा है………….. ललनजी की रिटायरमेंट वाली बात को लेकर सीमा की मां ने  मूंह पर चुप्पी साध ली थी। सीमा को तो  गांव आने के बाद शादी  की बात बताई गई थी- यह सारी  बात खूद सीमा ने भवेश को बताया था, इसलिए इसका  झुठ होने का कोई सवाल ही नहीं था।

इसी तरह से शादी का दिन भी  आ गया था। सीमा उस दिन खेलने नहीं आई थी। औरतों की भीड़ से वह घिड़ी थी। कुछ ना कुछ विध सारा दिन चलता रहा, जिसमें सीमा का होना लाजमी था। शाम  में वर-बाराती  आये। भवेश अपने मां के इस अवसर पर दिए गए कपडे  पहन कर तैयार था। बारात आने के बाद कई काम एक साथ आ जाते हैं। वहां के  लोग , जिस भी काम के लिए भवेश को कहते थे, भवेश पूरे मनोयोग से वे काम कर देता था ।

सीमा का दुल्हा भवेश को देखने में नहीं जंचा। वह सच में कुछ ज्यादा ही उम्रदराज था। किसी से कुछ बोलता भी नहीं था। शादी के दूसरे दिन भवेश कितनी ही  देर, उसके पास ही खड़ा रहा था, उसने इसे टोका तक नहीं। सीमा का अब बाहर निकलना एकदम से बंद  हो गया था।  सारा दिन घर पर लोगों का तांता लगा रहता था।   अब  भवेश का खेलना भी बंद जैसा हो गया था।   उसका मन अब इस जगह से उचट गया था।  सीमा को अब भवेश के लिए समय नहीं था। सीमा ने  चुप्पी लगा ली थी। हर समय जोर जोर से बोलने वाली एक दम से  गुम्मी हो गई थी।

गौना से एक दिन पहले ” छापर ” आवाज देकर  भवेश को अपने पास बुलाया -” तुमको पता है,  मैं कल ससुराल चली जाऊंगी।?

– हां.”

– मेरे आंसूं नहीं निकलते। क्या करूं?

– जोर से चिकौटी काट लो।

-ना ना । -दूसरा उपाय बताओ। सब कह रहे हैं  कि गौनावाली लड़की बहुत रोती है। मैंने बहुत  कोशिश किया, फिर भी आंसू नहीं निकलते हैं । मुसरी कहां है? ……. कह के  हंसने लगी थी। फिर बोली,

 -मेरा ” पति”  कैसा लगा?

-ठीक।

-ठीक क्या? एक नम्बर, दो नम्बर, सो कहो।

– दो नम्बर।, भवेश ने सीमा का मन रखने के लिए बोल दिया, वैसे भवेश के आकलन में नम्बर तो बहुत पीछे था.

उसी समय सीमा को किसी ने घर के अन्दर बुला लिया। लेकिन भवेश चिंतित हो उठा , अगर गौना के समय में  सीमा नहीं रोयेगी तो लोग क्या कहेंगे?

सुबह अगले दिन भवेश की नींद किसी के रोने की आवाज़ से टूटी. पहचान नहीं पाया. उठकर देखा तो सीमा रो रही थी. उसकी आँखों से लगातार आंसूं बह रहे थे.  कभी अपने मां के गले लगती,  कभी अपनी बहन के,  कभी   चाची के, कभी   बुआ के,  कभी   भौजी के,  कभी   अन्य रिश्तेदारों के , अंत में फिर अपने पिता  ललनजी के गले लग कर फूट-फूट कर रो पडी।  दरवाजे पर खड़े सभी लोगों की आंखें नम हो गई थी।  घर के नौकर- चाकर भी काम करते हुए रो रहे थे। एक किनारे में खड़ा, भवेश भी  रो रहा था।

सीमा इतना रोई ………… …… सब बोल रहे थे-, आज तक कोई बेटी , इतना नहीं रोई, ससुराल जाते समय। सारा धनहा गांव  ललनजी के दरवाजे पर बेटी को विदा करते समय खड़ा था। अगर कोई नहीं रोया, तो वो था सीमा का पति।

कुछ देर बाद सीमा गाड़ी पर बैठ चुकी थी। लोटा में पानी लाकर उनकी मां ने दो  घूँट पिलाया। फिर गाड़ी को तीन बार आगे पीछे किया गया। जाते समय सीमा ने एक नज़र भवेश पर भी डाली । मानो कह रही हो, देखो, मैंने रोना सीख लिया “। उसके बाद  गाड़ी में बैठी सीमा अपने ससुराल चली गई थी।

भवेश भी किसी और अतिथि के साथ अपने घर आ गया था।कुछ दिन घर पर भी मन नहीं लग रहा था। सीमा का रोता चेहरा उसको परेशान कर रहा था। धीरे धीरे अपने दुनिया में भवेश लौट चुका था। इसके बाद सीमा का कोई हालचाल नहीं पता लगा था। भवेश  सब  भूल चुका । आज चालीस वर्ष के बाद यह मैसेज उसकी सारी  यादों को तरोताजा कर दिया।

अब दोनों लोगों का वाट्सएप्प पर वार्ता का क्रम शुरू हो गया था। जब जिसको समय मिलता, एक दूसरे  से बातें कर लेते थे। सीमा की मां और पिता दोनों स्वर्गवासी हो चुके हैं। भाई- भौजाई और  बहन- जीजा सभी अपने दुनिया में व्यस्त हैं। सीमा के लिए उनके पास समय नहीं है। कभी कोई फोन तक नहीं …………..आना जाना तो दूर की बात है। सीमा एकतरफा शुरू में घर के लोगों को फोन करती थी … …….. बाद में फोन करना इसने भी छोड़ दिया। एक तरफ का संबंध कभी चला है?  कोई आपसी   लड़ाई भी नहीं है, लेकिन आना जाना बंद है।

सीमा के  एक  बेटा बेटी है।। बेटी फैशन डिजाइनिंग करके  विदेश में रह रही है। उसने खूद अपना जीवनसाथी चुना है। सीमा दूबारा यह गलती नहीं करना चाहती थी। इस शादी को लेकर, सीमा के पति   प्रसन्न नहीं हैं। वो अभी तक इस संबंध को नहीं स्वीकार किये हैं। अभी तक बेटी के घर पर नहीं गये हैं।  सीमा ने इस विषय पर, अपने पति के विचार की  परवाह नहीं की। खुद वर्ष दो वर्ष पर विदेश, बेटी के यहां जाती आती रहती है। अब सीमा के पति रिटायर भी हो चुके हैं। कंसल्टेंट का काम बंबई में शुरू किये हैं।बेटा बैंक में नौकरी कर रहा है।  उसी के लिए लड़की  खोज  रही है।

इसके बाद भवेश की बारी थी। बानुछापर वाला भवेश के पिता का मकान बिक चुका है। उसी पैसे से  भवेश के दोनों भाइयों ने शहर में मकान खरीद किये हैं। भवेश के मां – पिताजी जो सारा जीवन कभी  गांव नहीं गये, बुढ़ापा  में दोनों लोग गांव  में ही रह रहे हैं।  भवेश एक नौकरी से दूसरी नौकरी करते करते, अब  बिदेश में रह रहे हैं। गांव के अलावा , कहीं और घर नहीं बना पाए हैं। बच्चे अभी छोटे हैं और यहीं विदेश में पढ़ रहे हैं। बदली वाला नौकरी का शौक था,  जो  अब जान का जपाल हो गया है।  पहले शहरे शहर, अब देश देश भागा भागा फिर रहा है।

फिर मुसरी का हाल  सीमा ने पुछा.  एक बार तो भवेश जवाब देने में सकपका गया था । लंबा सांस छोड़ते हुए बोले-

 “कोई संपर्क नहीं है। ठीक ही होगा”।

सच्चाई तो यह था कि सीमा के शादी के  तीन-  चार वर्ष के बाद ही , बसंत के ह्रदय में कोई बीमारी हो  गई थी। पटना से डाक्टर ने वेल्लोर रेफर किया था।  घर में अर्थ के अभाव के कारण  गांव के पास ही एक  बैद्यजी का इलाज चलता रहा। छह महीना बीतते बीतते, बसंत इलाज के अभाव में अपने गांव में ही दम तोड़ दिया था।

सीमा बात करने के बाद बहुत ही खुश थी। उसने कहा-

“लग ही नहीं रहा है कि मैं मायके में नहीं हूं। “

भवेश ने जवाब दिया- ” हां हां । आप मायके से ही बात कर रही हैं। ललन चाचाजी चले गये तो क्या हुआ। हम आपके भाई तो हैं। आपका मायका हमेशा के लिए मेरे घर में आबाद रहेगा। “

भवेश का स्नेह देख कर  सीमा के आंखों से  आंसू बहने  लगा। बोली- ” किसी  चीज की  कमी नहीं है और न ही कुछ चाहिए।  बस इसी स्नेह  के लिए, मन इधर उधर बेचैन था। इसी कारण बड़े दिनों से आपको खोज रही थी। “

सीमा को ” अपने लोग,” आज मिल गये थे। आज भी आंसुओं की बौछार निकल रही है  …………..यह आंसू  खुशी का है………….बहने दो आज इसको  …………………बड़े दिन से जमा था।

अपने  तो अपने  होते हैं ।

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6 comments

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