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‘बोलो न दरवेश’ कविता संग्रह की समीक्षा

कवयित्री स्मिता सिन्हा के कविता संग्रह ‘बोलो न दरवेश’ पर एक टिप्पणी पढ़िए। सेतु प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह की समीक्षा लिखी है युवा लेखक जगन्नाथ दुबे ने। आप भी पढ़िए-

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     हिन्दी कविता के परिसर को अगर एक वृत्त के रूप में कल्पित करें तो पाएंगे कि जैसे-जैसे हमारा समाज लोकतान्त्रिक मूल्यों से समृद्ध होता गया है वैसे-वैसे कविता का यह वृत्त बढ़ता गया है। इस वृत्त में नई-नई आवाजें शामिल होती गयी हैं। यह प्रक्रिया लगातार गतिमान है। स्त्री,दलित,आदिवासी और विमुक्त समुदाय इस वृत्त की सर्वथा नई आवाजें हैं। लंबे कालखंड में हमने देखा कि भारतीय परंपरा के नाम पर भारतीय सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, मिथक और आख्यान का लगभग एक स्थायी और स्थिर पाठ हमारे सामने उपस्थित किया गया। आधुनिक जीवन मूल्यों और लोकतान्त्रिक चेतना के साथ विकसित हुई इन अस्मिता मूलक आवाजों ने भारतीय परंपरा, संस्कृति, इतिहास, मिथक और आख्यान के उस स्थायी और स्थिर पाठ को मानने से इंकार कर दिया। उन्होने अपने श्रम का हिसाब मांगना शुरू किया और यहीं से एक भिन्न पाठ शुरू हुआ। यह पाठ अब तक के बनाए गए हर पाठ का पुनर्पाठ है। इस मामले में ज़ाक देरीदा का विखंडनवाद ज्यादा महत्वपूर्ण और तर्कसंगत प्रतीत होता है। हिन्दी की युवा कवियत्री स्मिता सिन्हा के संग्रह बोलो न दरवेश पर बात करने से पहले इस भूमिका की जरूरत इसलिए है कि स्मिता की कवितायें बार-बार इन सवालों से टकराती हैं। उनकी कविताओं में भारतीय परंपरा, संस्कृति और मिथकीय चेतना का एक नया पाठ उपस्थित होता है। आधुनिक और चिंतनशील स्त्री की नजर से देखी गयी दुनिया का पाठ जिसमें पुरुष और प्रकृति सहयात्री की भूमिका में हैं। इन कविताओं में नई सदी के समक्ष मौजूद चुनौतियाँ हैं तो विकास के नाम पर प्रकृति और पर्यावरण के अनियंत्रित दोहन को लेकर चिंता भी मौजूद है। असल में ये कवितायें उत्तर-आधुनिक मनुष्य की मानवीय चिंताओं से उपजी कवितायें हैं जिनमें 21वीं सदी का जटिल यथार्थ दर्ज हुआ है। हम जिस समय में जी रहे हैं यह कई तरह की जटिलताओं से भरा हुआ है। एक स्त्री के लिए जहां अभी भी पितृसत्ता और सामंती मूल्य एक बड़ी चुनौती  हैं वहीं उससे भी बड़ी चुनौती के रूप में सांप्रदायिकता के सवालों से टकराना एक चिंताशील स्त्री के लिए बेहद जरूरी है। यह समय कट्टरवाद, नफरत, हिंसा और घृणा के संस्थानीकरण का समय है। ऐसे समय में एक सचेत नागरिक और सृजनशील मनुष्य का अनिवार्य धर्म है कि वह अपनी रचनाशीलता के माध्यम से इन मनुष्य विरोधी, लोकतन्त्र विरोधी और न्याय विरोधी प्रवृत्तियों के खिलाफ मुखर हो। यह भी एक तथ्य है कि कविता कोई कैप्सूल नहीं है जिसे किसी मर्ज की दवा के रूप में इस्तेमाल किया जाये। कविता से यह उम्मीद करना कि वह हर घटना का लाइव टेलीकास्ट करे गलत है। कविता लाइव टेलीकास्ट नहीं है। लेकिन वह अपने समय के सवालों से अनभिज्ञ रहे यह भी कविता के हित की बात नहीं है।

     स्मिता सिन्हा के इस संग्रह की कविताओं में हमारे समय की ये चिंताएँ दर्ज हुई हैं। इन कविताओं को आप अध्ययन की सुविधा के लिए चाहें तो मोटे तौर पर दो हिस्सों में बांटकर पढ़ सकते हैं। एक हिस्सा वह जिसमें प्रकृति और पर्यावरण को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की गयी है और दूसरा वह जिसमें एक स्त्री के मन की बेचैनी, जीवन की आत्मीयता और प्रेम मौजूद है। संग्रह की पहली ही कविता कवि की दृष्टि और पक्षधरता को रेखांकित करने वाली कविता है। कविता का शीर्षक है ‘पता’। यह कविता एक तरफ प्रकृति और मनुष्य के आदिम रिश्ते की गवाही देती है तो दूसरी तरफ विकास के नाम पर उग आए कंक्रीट के जंगलों ने किस तरह बेहद कोमल और स्पर्श सुख देने वाले प्राकृतिक दृश्यों से मरहूम कर दिया है इसकी भी शिनाख़्त करती है।

पगडंडियों को प्यार था घास से

घास को ओस से

ओस को नंगे पैरों से

एक दिन उन पैरों ने

जूते पहने

पगडंडियों को कोलतार पिलाया गया

कोलतार ने घास को निगल लिया

आगोश में ले लिया

और अगली सुबह

ओस की बूंदें

अपना पता भूल गईं।

     जब घास ही नहीं बचेगी तो ओस की बूंदें आकर किस पर ठहरेंगी? इस कविता को पढ़ते हुये मुझे मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में का वह दृश्य याद आता है जिसमें वे रात के सन्नाटे में दूर तक पसरी हुई सड़कों को काली जिह्वा की संज्ञा देते हैं। यह काली जिह्वा असल में विकास के अनियंत्रित मॉडल का ही परिणाम है। स्मिता की कविताओं में ऐसे अनेक दृश्य और बिम्ब मिलते हैं जिनमें मनुष्य द्वारा प्रकृति के विनाश की गाथा छुपी हुई है। इसी तरह एक कविता इच्छा शीर्षक से है। इस कविता में वे प्रकृति और मनुष्य की इच्छाओं पर बात करती हैं। कविता की शुरुआती पंक्तियाँ हैं-

पेड़ पौधों को

ऋतुओं की नियमितता चाहिए

ताकि उनका जीवन चक्र चलता रहे

नए पत्तों, फल-फूल से लड़े रहें।

मानव को

धुआँ उगलती चिमनियाँ,मोटरगाड़ी

ठंडी हवा फेंकते एसी

एशोआराम सब चाहिए।

     अब ये दोनों इच्छाएं एक साथ कैसे पूरी हो सकती हैं? तो ? चूंकि मनुष्य को प्रकृति पर विजय पा लेने का दर्प है इसलिए उसने अपनी इच्छाएं पूरी कीं। बदले में तापक्रम में अनियंत्रित वृद्धि, अकाल,बाढ़ और सूखा मिला। प्रकृति के सहजीवी जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों को दर बदर होना पड़ा। बहुत से जीव जन्तु लापता हो गए, मर गए। कारण कि यह पृथ्वी अब उनके रहने लायक नहीं रह गयी। विकास नाम की कविता में स्मिता लिखती हैं –

आए दिन राह चलते

सड़क पर

गिलहरियों के लोथड़े पड़े देखती हूँ

नेवले लहूलुहान हो मरे मिलते हैं

नजर के सामने अचानक

बिजली के तार पर बैठी मैना

गिरकर दम तोड़ देती है।

     गौरया समेत न जाने कितने पक्षी और जीव-जंतुओं को इस विकास ने निगल लिया है। स्मिता इन सभी बेआवाज जीवों की आवाज को अपनी कविताओं में जगह देती हैं। भूमंडलीकारण और उदार अर्थव्यवस्था ने जिस तरह का मॉडल अपनाया है उससे पर्यावरण के समक्ष एक गंभीर संकट उत्पन्न हुआ है। जिस तरह तापक्रम बढ़ रहा है, जंगल काटे जा रहे हैं, पहाड़ तोड़े जा रहे हैं और नदियों को बर्बाद किया जा रहा है उससे वह दिन दूर नहीं जब मानवीय सभ्यता एक गहरे संकट में फँसकर नष्ट होने की स्थिति में पहुँच जाएगी। ऐसे में प्रकृति और पर्यावरण को लेकर एक गंभीर सामाजिक विमर्श की जरूरत है। हिन्दी कविता के लिए यह बेहतर स्थिति है कि आदिवासी समुदाय से आने वाले कवियों के साथ-साथ गैर आदिवासी इलाकों के उन कवियों के यहाँ भी ये चिंताएँ दिखाई देती हैं जिनका जंगल और उसकी संस्कृत से कोई सीधा और गहरा संबंध नहीं है। स्मिता इसी तरह की कवि हैं जो सीधे तौर पर उस संस्कृति से भले ही न जुड़ी हुई हों पर पर्यावरण को लेकर उनकी कविताओं में एक गंभीर चिंता मुखरता के साथ दर्ज हुई है।

     स्मिता की कवितायें स्त्री की नजर से दुनिया को देखने वाले कवि की कवितायें हैं। इन कविताओं का पाठ स्त्री के नजरिए से करेंगे तो पाएंगे कि यहाँ दो तरह की स्त्रियाँ मौजूद हैं। एक वे जो असल में हैं दूसरी वे जिन्हें स्मिता देखना चाहती हैं। जो स्त्री है वह पितृसत्ता और सामंती मूल्यों में जकड़े हुये समाज में जीने को अभिशप्त है। जिस स्त्री की रचना स्मिता अपनी कविताओं में करती हैं वह न्यायपूर्ण और समतामूलक समाज की आकांक्षा रखती है। वह चाहती है कि इस दुनिया में उसके लिए भी वैसी ही जगह निश्चित की जाये जैसी पुरुष ने अपने लिए बना रखी है। ‘मेरे वक्त की औरतें’ कविता समय के इस अंतर्द्वंद्व को बेहतरीन तरीके से रेखांकित करती है। यह कविता भारतीय सभ्यता में औरत की उपस्थिति का जीवंत यथार्थ प्रस्तुत करती है। जब स्मिता लिखती हैं –

तुम्हारे वक्त की औरतें

नहीं होतीं

बारिश,बसंत, हवा या धूप

वो तो होती हैं

तुम्हारे विस्तीर्ण साम्राज्य का

अभिशप्त त्याज्य कोना

तो इसका आशय यह है कि वे चाहती हैं कि औरतें अभिशप्त और त्याज्य कोने की तरह न रहें। वे पूरी मानवीय गरिमा के साथ जीवित रहें। या जब वे कहती हैं –

तुम्हारे वक्त की औरतें होती हैं

एकांत का एक उन्मत्त विलाप

जो साहज स्वीकार कर लेती हैं

तुम्हारे प्रेम में मिलने वाली

अपनी संभावित हार…

     अब यहाँ एक तरफ तो स्त्री जीवन का सच सामने आया है वहीं दूसरी तरफ इस सच को न स्वीकार करने की आकांक्षा भी मौजूद है। क्योंकि जिसे यहाँ प्रेम कहा जा रहा वह क्या है इसे इसी शृंखला की अगली कविता में स्मिता लिखती हैं –

प्रेम दुनिया का

सबसे खूबसूरत खैरात है

     और हकीकत यह है कि स्त्री ने खैरात स्वीकार करना बंद कर दिया है। वह प्रेम को हक की तरह चाहती है क्योंकि वह प्रेम के सभी संभावित अर्थों में वह प्रेम करती है। प्रेम के बदले खैरात उसे स्वीकार नहीं। स्मिता की कविताओं में प्रेम को लेकर एक गंभीर विश्लेषण मौजूद है। वे प्रेम को नए सिरे से परिभाषित करती हैं। हिन्दी कविता की हजार वर्षों से भी ज्यादा लंबी परंपरा में शायद ही कोई कवि हो जिसने प्रेम पर न लिखा हो। प्रेम जीवन को बेहतर ढंग से जीने का अनिवार्य साधन है इसलिए कविता का प्रिय विषय भी। बावजूद इसके स्त्री विमर्श के दायरे में जब हिन्दी कविता का नया रूप सामने आया तो प्रेम को लेकर जो पारंपरिक मान्यताएँ हैं उनमें से बहुत सारी मान्यताओं के सामने हिन्दी कविता ने सवाल खड़ा किया। प्रेम के बारे में लगभग सर्वमान्य मान्यता रही है कि प्रेम में सब कुछ सौंप देने का भाव ओन चाहिए। वहाँ देने का विधान तो हो लेने की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। अब इसमें दिक्कत यह है कि पितृसत्ता द्वारा पोषित समाज स्त्री से चाहता तो है कि वह प्रेम में त्याग और समर्पण की प्रतिमूर्ति बनकर खड़ी हो लेकिन खुद वह समर्पित भाव से आगे आए ऐसा उसे स्वीकार नहीं है। स्त्री विमर्श ने इस परिपाटी से अपने को अलग करने की घोषणा की। इसलिए आप इन कविताओं को पढ़ते हुये पाएंगे कि प्रेम को लेकर वहाँ ठीक-ठीक यही नजरिया काम नहीं करता जो पितृसत्ता द्वारा बनाए गए समाज का है। यहाँ स्त्री अपने मन की गांठें खोलकर रखने की छुट और भरोसा चाहती है। स्मिता की बोलो न दरवेश शृंखला की कवितायें प्रेम में स्त्री क्या चाहती है इसी भावभूमि की कवितायें हैं। यह ठीक है कि पितृसता द्वारा पोषित समाज अभी स्त्री को इतना भरोसा दिलाने में सफल नहीं हुआ है कि वह सीधे नाम लेकर अपने प्रेमी को पुकार सके। उसे अब भी अपने प्रेमी के लिए किसी रूपक आदि का सहारा लेना पड़ता है। वह किसी शेर से ही अपनी बात कहती है पर अपने मन की बात कहने की स्थिति उसने प्राप्त कर ली है इसमें कोई शक नहीं। बोलो न दरवेश शृंखला की कवितायें इसलिए भी बेहद महत्वपूर्ण हैं कि यहाँ एक स्त्री अपने पूरे अस्तित्व के साथ उपस्थित है। उसे अपने प्रेमी के साथ निश्चिंतता है तो अनावश्यक लाड़ दिये गए उपमानों से चिढ़ भी और अच्छी बात यह है कि न सब पर वह खुलकर अपना मन्तव्य साझा कर सकने की स्थिति में है। दरवेश से सवाल करते हुये कवयित्री कहती है –

बोलो न

ऐसा क्यों है

इस विपरीत समय के शोरगुल में भी

मैं सो जाती हूँ बेसुध

तुम्हारी पीठ पर टेक लगाकर

     यह एक सवाल से ज्यादा हमारे समय पर टिप्पणी है जहां स्त्री के लिए बेसुध होकर सो सकना एक घटना की तरह है। इसी तरह पुरुष समाज से मुखातिब होते हुए उसके अनुभव के उथलेपन पर सवाल करती है –

कितना आसान है न

नख,होठ, केश की तारीफ कर देना

बेपरवाही में कह देना कि

नदी हो तुम

किनकि नहीं देखा तुमने कभी

किनारों में बंधे उसके वेग को

नहीं जाना कभी इसकी लहरों के

आरोह अवरोह के पीछे छिपे रहस्य को

नहीं महसूसा कभी

इसकी अतल गहराइयों में

रिक्तियों के अंतहीन विस्तार को….

     स्त्री के लिए नदी का सम्बोधन हमारी परंपरा में एक सामान्य बात है। यह भी एक सामान्य बात है कि हम स्त्री को नदी कहते हुये यह मानते हैं कि हमने एक बेहद खूबसूरत उपमा दी है उसे। स्त्री के भीतर छुपे हाहाकार को इससे जोड़ना संन्या बात नहीं है। यही काम इस कविता में स्मिता करती है। वे स्त्री के लिए नदी के इस सम्बोधन को नदी के सम्पूर्ण अर्थ गांभीर्य के साथ उपस्थित कर देती है और तब लगता है कि स्त्री को नदी कहना असल में उसके भीतर मौजूद तूफान को अर्थ देना है। यह स्मिता सिन्हा द्वारा परंपरा में मौजूद उपमानों का नया पाठ है। इस तरह के अनगिनत पाठ स्त्री कविता में मौजूद दिखाई देते हैं।

     बोलो न दरवेश संग्रह की कवितायें नई सदी के भारतीय समाज और राजनीति में बदलते हुये मूल्यों की शिनाख्त करने वाली कवितायें भी हैं। लोकतन्त्र, हस्तक्षेप, विकास, भीड़, क्रांति, तटस्थता,विस्थापन, सच, झूठ, मुखरता, चुप्पी जैसे शब्दों को नए अर्थ कि जरूरत है। इन शब्दों के मूल अर्थ नई सदी ने उलट दिया है। स्मिता भरसक कोशिश करती हैं कि इन शब्दों में फिर से नए अर्थ का संचार किया जाए। यह उनका पहला संग्रह है लेकिन संग्रह से गुजरते हुये अप पाएंगे कि इन कविताओं में कवि की गंभीरता पूरी तरह मौजूद है। किसी भी समय में कविता की भूमिका हस्तक्षेपकारी होती है। वह क्रांति नहीं कर सकती लेकिन क्रांति होने की स्थिति में उसकी कोई भूमिका न हो ऐसा भी संभव नहीं है। इसी तरह समय को कविता बदल भले न सके लेकिन कोई भी बदलाव होगा तो उसमें कविता की अपनी एक निश्चित भूमिका होगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता।

जगन्नाथ दुबे

असिस्टेंट प्रोफेसर,हिन्दी विभाग

राजकीय महाविद्यालय,खैर, अलीगढ़

मोबाइल- 6389003142

ईमेल- jagannathdubeyhindi@gmail.com

 
      

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