जानी-मानी लेखिका भावना शेखर की कहानी पढ़िए। बहुत अछूते विषय पर है-
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पिछले महीने रीना नर्सरी से स्नेक प्लांट, डेज़र्ट रोज़ और बेगोनिया के अलावा लाजवंती का पौधा खरीद लाई थी। बाकी सब के रखरखाव की तो खास चिंता नहीं किंतु इस लाजवंती का नाम छुईमुई यूं ही थोड़े ही है , युवा हो जाने पर तो यह खुद ब खुद बढ़ती है पर शुरू शुरू में इसकी नाजुक फर्न जैसी पत्तियों को एहतियात से संभालना होगा बिल्कुल मिनी की तरह।
आज कई दिन बाद रीना अपने छोटे से बगीचे में आई है। क्यारी में कोडा़ई निराई करने के बाद गमले के पौधों से पीले पत्ते झाड़ रही है, किसी पौधे की कटिंग कर रही है। जैसे ही छुईमुई को हाथ लगाया कि वह शरमा कर सिकुड़ गई।
उसे मिनी की याद हो आई, वह मुस्कुरा दी….उसकी मिनी कतई ऐसी नहीं है, वह तो तितली की तरह बेलौस उड़ती फिरती है। एक भरे पूरे बचपन को जीती बिंदास लड़की पर आजकल वो छुईमुई उम्र से गुजर रही है। इसी वजह से रीना बेटी का खास ध्यान रखती है। अचानक उसके ख्यालों को झटका लगा और पौधों को संवारते हाथ रुक गए. अभी-अभी रोती हुई मिनी को अहाते से दौड़ कर घर में घुसते देखा –
” अरे, इसे क्या हुआ.. ” चटपट धूल भरे हाथों को धोकर रीना बरामदे की और लपकी। उसके फिक्रमंद होंठ बुदबुदाए- “अभी तो सोसाइटी के गार्डन में खेलने गई थी इतनी जल्दी कैसे लौट आई…जरूर किसी से कहासुनी हुई होगी…. परसों मायरा के साथ शटल कॉक को लेकर झगड़ा हो गया था … ओह, ये बच्चे भी छोटी-छोटी बात पर आपस में भिड़ जाते हैं ….”
” मिनी…मिनी! क्या हुआ बेटा? फिर से मायरा ने कुछ कहा…?” अब तक वह मिनी के पास पहुंच चुकी थी. मिनी दोनों बाहों में अपने सीने को छुपाए सुबक रही थी, मम्मी को देखते ही उसकी बूंदाबांदी सी सुबकियां आंसुओं की धारासार बारिश में बदल गईं। रीना आशंकित हो उठी।
” क्या हुआ बेटा?” उसने कसकर मिनी को सीने से लगा लिया। पर अपेक्षा के विपरीत मिनी तड़पकर चिल्ला उठी मानो उघडे घाव पर ठोकर लग गई हो या कोई फफोला फूट गया हो।
घबराकर रीना ने बेटी को बंधन मुक्त किया. उसे बिल्कुल समझ नहीं आ रहा था बेटी यूं ज़ार ज़ार क्यों रो रही है.
“मिनी ! क्या हुआ मेरे बच्चे ? कुछ तो बोलो! ममता के मारे वह बिलबिला उठी।
“मम्मा! चोट लग गई, बहुत दुख रहा है।” अभी भी उसने सीने को नवजात शिशु की तरह बाहों में लपेट रखा था.
“कहां बेटा , देखूं तो …” कहीं क्रिकेट खेलते बच्चों की बॉल सीने पर तो नहीं आ लगी… पसलियों को नुकसान तो नहीं पहुंचा – सोचते हुए बेटी का सीना दबाकर जायजा लेना चाहा। अब तो मिनी चिल्लाकर ऐसे छिटक गई जैसे बिजली का करंट लगा हो –
“नहीं, मम्मा! कहकर दोनों हथेलियों के कप बना कर दाएं बाएं सीने को ढक लिया और फफक फफक कर रोने लगी।
रीना चौंक गई , अबकी उसकी सोच सही दिशा की ओर मुड़ी थी।
“ओ मेरा बच्चा, मत रो …मत रो! मैं समझ गई…” और फिर बड़ी कोमलता से रीना ने उसके हाथों के नन्हे कप हटाकर अपनी हथेली की छतरियां बना दीं और मिनी के सीने में उभर आई गांठों को ढक दिया.
“रो मत बेटा ! ठीक हो जाएगा , किसी की बॉल लग गई या किसी ने तुम्हें धक्का दिया ?”
“नहीं मम्मा ! खेलते खेलते शीना जोर से मुझ से टकरा गई थी ।” हिचकियां लेते हुए बड़ी मुश्किल से वह कह पाई।
बेटी को पुचकारते हुए रीना बेडरूम में ले गई, एक पैन में गर्म पानी किया और मिनी की फ्रॉक उतारकर कॉटन बड भिगो भिगो कर उसके सीने की सिकाई करने लगी. मां की टहल और दुलार से मिनी को आराम पहुंचा, कुछ देर बाद उसका बदन पोंछकर रीना ने फ्रॉक पहना दिया और चादर ओढ़ाकर अपनी बगल में लिटा दिया। मिनी आंख मूंद कर सो गई थी , रीना अपलक अपनी सोनपरी को निहारने लगी। उसे लग रहा था मानो चांद की समूची उजास उसकी बाहों में सिमट आई हो। कल की तो बात है जब रूई के फाहे सी मिनी को गोद में लेकर हॉस्पिटल से घर आई थी, आज उसकी छुईमुई सी चिरैया बचपन पीछे छोड़ कर कैशोर्य की ओर उड़ चली है। खयाल भर से मकई की चटक आई दूधिया बालियों की खुशबू उसकी कल्पना में भर गई। उसके होठों ने हौले से मिनी की आंखों के पपोटों को चूम लिया।
वह भी कभी अपनी मां की नन्हीं परी थी, उसके सीने पर भी दो बबूल उग आए थे। याद है उसे असह्य पीड़ा जब ब्रेक टाइम में स्कूल की एक लड़की ने धकेल दिया था और वो सीने के बल दूसरी लड़की से जा टकराई थी। पीड़ा का ज्वार देह में कोहराम मचाने लगा था, स्कूल के बाथरूम में मुंह भींचकर खूब रोई थी पर कोई नहीं था उसकी सुबकियां सुनने वाला, किसी ने पीप से भरे घाव की तरह बेतरह दुखती छातियों को नहीं सहलाया था. किसी ने उसे प्यूबर्टी के बारे में नहीं बताया था।
इस अबूझ असमंजस और भ्रम की स्थिति में उस दिन घर आकर ठीक से खाना नहीं खा पाई थी। मां से कुछ कहते नहीं बना, हलक पर किसी ने ताला जड़ दिया था। शाम को मोहल्ले की सहेलियों के साथ डेंगा पानी खेलने भी नहीं गई, घर के पिछवाड़े बने कमरे की खिड़की से उदास पतझड़ सी शाम के साथ अपनी किशोरावस्था का मातम मनाती रही, मन रह-रहकर उबकाई जैसा हो गया था। स्कूल की घटना सोचने भर से रीढ़ की हड्डी में हूक उठती थी, सीने पर बेर की गुठलियां पहाड़ सा बोझ बनी उसे शर्मिंदगी के गड्ढे में धकेल रही थी। किससे कहे सीने के इस पार और उस पार दोहरी चोट लगी थी। हाथ पैर में खरोंच आ जाती , कोहनी घुटना छिल जाता तो मां बाबूजी काका काकी किसी से भी जा कर दवा लगवा लेती पर यह अजीब सा दर्द उसके आगे वर्जना की दीवार खड़ी कर रहा है… जाने क्यों उसे लग रहा है इस बात का नाता एक लक्ष्मण रेखा से है जिसे लांघना बुरी बात है उतनी ही बुरी जितनी किसी के आगे देह उघाड़ना या सरेआम लघुशंका कर देना।
…और वह दिन ….जब अपनी सहेली मधु के साथ स्कूल से लौट रही थी। स्कूल के पास के भीड़ भरे चौराहे पर एक नया पुल बना था, पैदल चलने वालों की सुरक्षा के मद्देनजर दुर्घटना से बचने के लिए। पर लोगों में इतना सब्र कहां कि सीढ़ियां चढ़कर पुल से सड़क पार करें और फिर सीढ़ियां उतर कर उधर पहुंचें। सो कम ही लोग पुल का इस्तमाल करते। सातवीं क्लास की रीना छुट्टी के बाद सहेली के साथ गपियाते हुए मस्त हवा सी पुल पर चली जा रही थी। नई उम्र की दहलीज पर किशोर कदमों ने अभी तक बेपरवाही का दामन नहीं छोड़ा था। उबड़ खाबड़ पत्थरों चट्टानों से बेखबर झरने की तरह दुनिया की ऊंच नीच और अपनी देह के उठान से अनजान दोनों की बतकहियां सुनकर निर्जन पुल भी लरज उठा था। उन्हें सुध नहीं थी कि विपरीत दिशा से एक हट्टा कट्टा आदमी चला आ रहा है, करीब आते ही वह बाज की तरह झपटा और पलक झपकते मधु की छातियों को ताजे़ नींबू की मानिंद बेतरह निचोड़ कर चलता बना। मधु चीत्कार कर उठी, तब उस हैवान की आंखों में एक क्रूर और घिनौनी मुस्कान थी। इस अप्रत्याशित हमले से रीना के प्राण सूख गए। दोनों सहेलियां हाथ पकड़ कर बेतहाशा सीढ़ियों की तरफ ऐसे दौड़ पड़ी जैसे पीछे कोई जंगली भेड़िया पड़ा हो। थर थर कांपते हुए किसी तरह उन्होंने सारा रास्ता तय किया।
अगले दो दिन मधु स्कूल नहीं आई थी। रीना ने इस घटना का जिक्र किसी से नहीं किया, वह बेसब्री से मधु के स्कूल आने की राह देख रही थी। तीसरे दिन मधु आई , दोनों ने एक दूसरे को देखा और नजरें झुका लीं, कोई किसी से कुछ ना कह सकी। शायद मधु का हाल भी उसी के जैसा था, रीना सोच रही थी जब वह अपनी मां से कुछ न कह सकी तो फिर मधु बेचारी की तो मां भी सौतेली है।
उस आदमी की लंपट निगाहें रीना की आत्मा में धंस गई थी। आज बरसो बाद याद आते ही देह में झुरझुरी दौड़ गई। मन कसैला हो आया। इन बुरी यादों को पैर में लिपटे सांप की तरह वो झटक देना चाहती थी पर यह क्या, अतीत के सीने पर रखे भारी पत्थर को धकेलकर वे सारी वीभत्स यादें रक्तबीज की तरह एक एक कर उसके आगे नाच रही हैं, अट्टहास कर रही हैं।
…वो होली का दिन भी इन स्याह यादों में शुमार है। हर साल की तरह पास पड़ोस के सभी बच्चे और जवान लड़के लड़कियां मिलकर फाग खेल रहे थे पिचकारी गुलाल रंगीन पानी से भरी बाल्टी और उमंग मस्ती के बीच हुड़दंग मचा था. गली में नगाड़े बजाती मस्तों की टोली को देखने सब अपने छज्जों, छतों और मुंडेरों पर लटके थे। रीना अब पन्द्रह बरस की हो चुकी थी। नादानियां समझदार हो चली थी, आसपास की निगाहों को भांप लेने वाली छठी इंद्रिय सजग हो रही थी. अचानक देखा पड़ोस का लंबा चौड़ा बीस बरस का अनिल मोहल्ले की बारह साल की गुड़िया की उभर आई नन्हीं छातियों को दबाकर उससे ठिठोली कर रहा है. “उई” कहते हुए गुड़िया छिटककर दूर भाग गई. गुड़िया के गुलाल लगे चेहरे पर एक और लाल रंग की परत रीना ने देखी थी, वह भय की थी लाज की या सदमे की- इतना जांचने लायक रीना की उम्र नहीं थी पर आज उसे लगता है गुड़िया के चेहरे पर डर लाज और सदमे तीनों का रंग था. यह गलीज़ हरकत देख कर रीना की धमनियों में लहू के साथ लावा दौड़ गया था। काश, उसमें हिम्मत होती तो हाथ की बाल्टी अनिल के सर पर दे मारती। काश, किसी को कह पाती….. काश…..!
कितने सारे काश उसके दिलो-दिमाग उसकी नस नस में दबे पड़े हैं चुपचाप…. कैंसर के वायरस की तरह। बरसों बाद आज मवाद से भरे फोड़े की तरह टीस मार रहे हैं, फटने को तैयार पके घाव की तरह।
मिनी रीना की बाहों में गहरी नींद सो रही थी और रीना अनचाहे एक एक कर अतीत के सैलाब में उतर रही थी. वो अतीत जो आज तक व्यतीत नहीं हुआ था बेतरह उसे खुद में डुबो देने को आमादा, एक फौलादी ताकत से उसे अपनी ओर खींच रहा था… वो अतीत जो नितांत निजी है …. सबसे अंतरंग पर बेहद बदरंग, जिसने बदनुमा मोहर बनकर उसकी आत्मा को दाग दिया था…. आज तक किसी ने नहीं देखा वो दाग! गाढे द्रव से लैस नागफनी की तरह रीना की यादें गाढ़ी कड़वाहट से भरी हैं।
…चचेरे भाई की शादी में सारा परिवार गांव गया था। घर नाते रिश्तेदारों से भरा था, पिछले चार दिन से शादी की तैयारियां चल रही थीं, दिन भर अड़ोस पड़ोस की औरतें आकर ब्याह के काम में हाथ बंटाती, सांझ होते होते ढोलक की थाप पर नाच- गाना शुरू हो जाता, देर रात तक बन्ना बन्नी गाए जाते। पुरुष दालान पर सोने चले जाते , सारे बच्चे बरामदे से सटी बड़ी कोठरी में दीवार के एक छोर से दूसरे छोर तक बिछे गद्दों पर रजाई ओढ़ कर पसर जाते। उस रात जगन चाचा कोठरी में आकर बच्चों को कहानी सुनाने लगे। उनके जैसा कथा वाचक दस गांवों में कोई नहीं था। उनके बतरस के सब दीवाने थे, बोलते तो मुंह से महुआ की तरह कथा रस झरता। कहानी क्या मानो मां की लोरी सुन रहे हों। सुनते सुनते कई बच्चे सो गए रीना की भी पलकें मुंद गई , बचे खुचे भी झपकियां लेने लगे। कहानी की मोहिनी शिकारी का जाल था। नींद में रीना को महसूस हुआ देह पर कुछ रेंग रहा है, उसकी आंख खुल गई, वो उठ बैठती उसके पहले ही एक मजबूत हथेली ने उसकी देह पर दबाव बना दिया, चिल्लाना चाहती थी पर जु़बान कलफ़ लगे कुर्ते सी अकड़ गई, आवाज़ किसी तहखाने में बंद हो गई, जैसे कोई दानव छाती पर चढ बैठा हो। कोठरी के घुप्प अंधेरे में आंखें फाड़ कर देखा जगन चाचा की अजगर सी मजबूत भुजाओं के घेरे ने एक मेंढक की तरह उसे दबोच रखा था। डर के मारे देह काठ हो गई, उसकी हिम्मत …उसका प्रतिरोध हथियार डाल चुका था। कुछ मिनटों में जगन चाचा की पकड़ भी ढीली पड़ गई और अब फिर से रीना की देह पर घात लगाए लिजलिजे सांप सा वो हाथ हौले हौले रेंगने लगा। तभी बाहर गीत संगीत की महफिल उठने लगी और घर की औरतें आंगन से उठकर भीतर आने लगीं। इसी बीच जगन चाचा चोर की तरह उसकी रजाई से निकल भागे.
पौ फटने तक वह सदमे से उबर नहीं पाई। भर रात डरी सहमी देह रजाई में दुुबकी रही, फटी फटी आंखें झपकना भूल गईं। तेरह बरस की नई नकोर देह पर जैसे कुल्ला कर दिया हो किसी ने। सुबह नहाते हुए अपनी देह छूने में पापबोध हो रहा था, मां ने कभी जूठे बर्तन नहीं छूने दिए, कुंवारी कन्या देवी जो होती है। आज लग रहा था जूठन के ढेर में धंसी जा रही है। नल के नीचे बैठ कर खूब रोई थी। कोई नहीं था समझाने वाला कि उसने कुछ नहीं किया, कुछ नहीं खोया। धरती पर उतर आए घने बादलों की तरह बरस कर वो हल्का होना चाहती थी। पर उसे थामने के लिए न कोई धरती थी ना आकाश। बहते आंसुओं की भाप को नल की धार ने जज़्ब कर लिया था। काश, मां उसका मन पढ़ पाती….काश, बेबाक होकर वह कह पाती… उनके बीच अघोषित वर्जनाओं के पर्दे ना होते। काश, राई के दानों जैसे उन महीन दुखों की पोटली लड़कपन की चौखट पर ही झाड़ आती जो जीवन भर पहाड़ बनकर उसे दलते रहे। काश, उसे भी देह के गणित सिखाए जाते। जैसे वह मिनी को सिखाती रहती है।
पिछले महीने मिनी स्कूल से आते ही उसे बोली थी –
“मम्मा जानती हो! आज सायमा बहुत रो रही थी, उसके स्कर्ट में बहुत सारा ब्लड लग गया था। टीचर उसे सिक रूम में ले गयी और दूसरा स्कर्ट दिया और पता है मम्मा, उसे कोई चोट वोट नहीं लगी थी फिर भी वो रो रही थी…. पता नहीं क्यों ?” उसकी आंखों में जमाने भर का कौतूहल और आतुरता भरी थी।
“बेटा, सायमा घबरा गई थी, उसे किसी ने इस बारे में पहले से नहीं बताया था ना! लेकिन तुम्हारे स्कर्ट में ब्लड लग गया तो तुम मत घबराना।”
फिर रीना ने बड़े धीरज और प्यार से मिनी को कुदरत की नेमतों के बारे में बताया था ताकि उसकी फूल सी बच्ची उम्र की सर्द गर्म हवाओं को पहचान सके। उसी दिन मिनी के शरीर में आने वाले बदलावों को लेकर भी उसे समझाया था, चेताया था।
तकरीबन एक घंटा बीत चुका था। मिनी अपनी नींद से और रीना अपने अतीत से बाहर आ चुकी थी।
“मम्मा!” कुनमुनाते हुए मिनी ने रीना के गले में बाहें डाल दी।
” मम्मा, मैं कल स्कूल नहीं जाऊंगी, फिर कोई मुझे धक्का मार देगा, चोट लग जाएगी फिर बहुत पेन होगा!” वह रुआंसी होकर बोली।
” नो बेबी, कुछ नहीं होगा। मेरे पास इसका इलाज है। उठो ….गेट अप एंड बी रेडी! पापा के आने से पहले हमें मार्केट जाना है।”
” शॉपिंग?” मिनी की आंखें बड़ी हो गई।
” नहीं, तुम्हारी प्रॉब्लम का इलाज करने।”
उसी शाम रीना बेटी के लिए स्पोर्ट्स ब्रा खरीद कर लाई। उसे सुकून मिला कि मिनी के चेहरे पर इस नए परिधान को लेकर कोई संकोच या असहजता नहीं थी।
उमंग में भरकर वह बोली – “मम्मा यह तो बड़ी दीदीयां पहनती है ना, क्या मैं भी बड़ी हो गई हूं ?”
” मिनी, तुम बड़ी हुई नहीं पर हो रही हो।” शरारत भरे अंदाज में वह बोली!
सुनकर मिनी की आंखों में एक चमक आ गई। वह मचलते हुए पूछने लगी-
” मम्मा…मम्मा! मुझे पीरियड कब होगा?”
” हा हा हा, जब होना होगा हो जाएगा मेरी पगली बेटी!” , उसने मिनी के सर पर हल्की चपत लगा दी।
” ….और मम्मा, मैं तो रोऊंगी भी नहीं सायमा की तरह। तुमने तो मुझे सब कुछ बता दिया है, तुम तो मेरी बेस्ट फ्रेंड हो ना!”
मेरी प्यारी मम्मा कहकर मिनी ने जोर से रीना के गालों को चूम लिया।
रीना सोचने लगी काश, उसकी मां भी उसकी सहेली होती, तो उसके पास फुफकारते नाग सी भयावह यादें न होतीं । उलझनों का सैलाब उसके किशोर सपनों को लील गया, पर मिनी अपने कैशोर्य का उत्सव जरुर मनाएगी।
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