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आज के संकट और हिंदी कहानी: मनोज कुमार पांडेय

हिंदी कहानी की समकालीन चुनौतियों पर पढ़िए जाने माने कथाकार मनोज कुमार पांडेय का यह लेख-

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सबसे पहले तो यही सवाल उठता है कि आज के संकट कौन से हैं जिनसे हमारे लोग दो-चार हैं। इनका स्वरूप क्या है? इनका इतिहास भूगोल क्या है? वे अभी-अभी पैदा हुए हैं या बहुत पहले से वे पल्लवित हो रहे थे। उन संकटों के बारे में कोई सर्वसम्मति भी है या कि हममें से कुछ लोग उन भयावह संकटों का कोई मनोरम चेहरा भी देख रहे हैं? और यह भी कि कौन से संकट एकदम स्थानीय हैं और कौन से ऐसे हैं जिनके तार दुनिया भर से जुड़े हुए हैं।

मेरी अपनी छोटी-सी समझ में इस समय के बड़े संकट हैं – लोकतंत्र का खात्मा, अभिव्यक्ति पर संकट, असहिष्णुता, अंधश्रद्धा, सांप्रदायिकता, बेरोजगारी और रोजी-रोटी की स्थितियों का जटिल होते जाना, किसानों और मजदूरों या कि श्रमजीवी लोगों का जीवन लगातार मुश्किल में पड़ते जाना। एक बड़ा संकट वह भी है जिससे हमारी धरती लगातार जूझ रही है – प्रकृति के साथ भयावह छेड़छाड़ से पैदा हुआ संकट। और सबसे बड़ा संकट यह है कि इस देश में करोड़ों की संख्या में ऐसे लोग हैं जो इन संकटों को संकट ही नहीं मानते। ऐसा नहीं है कि ये समस्याएँ अचानक से प्रकट हो गई हैं पर ऐसा जरूर है कि यह आज हर दिन हर पल के साथ और भी विकराल होती जा रही हैं। इस हद तक कि आज यथार्थ और फंतासी के बीच का अंतर समाप्त होता दिख रहा है।

ऐसे में बेचारी कहानी क्या करे? उसका कहानीकार क्या करे और खास कर के हिंदी का कहानीकार क्या करे जिसकी साल भर की रायल्टी उसके परिवार का पेट हफ्ते भर भी नहीं पाल सकती। मुश्किल यह है कि हिंदी का लेखक अपनी कहानियों में भूख वगैरह की बात कितनी भी कर ले पर अपने निजी जीवन में वह किन मुश्किलों से दो-चार होता है इसका जिक्र करना भी कुफ्र है। हिंदी लेखक और उसकी जिम्मेदारियों को लेकर सवाल बहुत किए जाते हैं। वह आदमी भी हिंदी लेखक या बुद्धिजीवी को आराम से गाली बक सकता है जिसने कोर्स के बाहर का शायद ही कुछ पढ़ा हो। ठीक है।

अपने बहुत प्रिय कथाकार रवींद्र कालिया का एक भाषण याद आ रहा है जिसमें उन्होंने बताया था कि उन्हें अपनी पहली कहानी के लिए 100 रुपए मानदेय या कि पारिश्रमिक के रूप में मिले थे। कोई भ्रम न रहे इसलिए अगले ही वाक्य में उन्होंने यह भी कहा था कि उस समय 70-72 रुपए का एक तोला सोना आता था। मतलब कि उस हिसाब से आज एक कहानी का पारिश्रमिक कम से कम 60000 होना चाहिए। मेरे जैसे हिंदी लेखक के लिए यह इतनी बड़ी रकम है कि आज यह स्थिति लौट आए तो मैं अपने गाँव लौट जाऊँ।

यह विषय परिवर्तन नहीं है। यह सिर्फ उन स्थितियों की तरफ इशारा है जिनसे हिंदी लेखक को लगातार जूझते रहना पड़ता है। इस वजह से होता यह है कि एक लेखक के लिए जो सबसे जरूरी काम होते हैं यानी लिखना और लिखने की तैयारी करना – हिंदी लेखक के पास उन्हीं चीजों का तरसने की हद तक अभाव होता चला जाता है। हम अमिताव घोष जैसे लेखकों पर फिदा होते हैं पर उनकी किताबों के पीछे जो किताब लिखने की तैयारी के दौरान पढ़ी गई किताबों की सूची, देखी गई जगहों की सूची छपी होती है वह आतंकित करती है। हिंदी लेखक के लिए उस हद तक जाकर तैयारी लगभग असंभव है।

तब हिंदी का कहानीकार क्या करे। तब वह ऐसे रास्ते लेता है जिसमें शुद्ध रूप से तथ्यों की जरूरत कम से कम पड़ती है। तब उसके कहने का सारा जोर संवेदना पर आकर टिक जाता है। यही उसकी सीमा है, मन करे तो कोई यह भी कह सकता है कि यही ताकत भी है उसकी। यह स्थिति कथाकार को किसी भी तरह का जोखिम उठाने से रोकती है। एक सीमा के बाद न वह रूप के स्तर पर जोखिम उठा सकता है न ही अंतर्वस्तु के स्तर पर। हिंदी कथा साहित्य में जो विषय के स्तर पर भयावह एकरूपता है उसके मूल में हिंदी लेखक का यह गर्वीला दैन्य भी है जिसकी कमी वह अक्सर बेहद स्थूल तरीके से व्यवस्था के विरोध से करना चाहता है। यह अलग बात है कि इससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। और यह भी कि इस समय तो हमारे अनेक लेखक किसी न किसी तरीके से व्यवस्था के तलवे सहला रहे हैं और अपने या अपनी जनता के पैरों में चुभे काँटे को भूलकर व्यवस्था के तलवे को चिकना करने में लगे हैं।

यह बातें इसलिए थी कि हम जिस कथाकार से तमाम तरह की उम्मीदें पालते हैं उसके बारे में भी थोड़ा-सा जान लें और उससे इकतरफा उम्मीदें एक सीमा में रहकर ही पालें। इसलिए नहीं कि उसमें आपकी उम्मीदों तक पहुँचने का दम नहीं है बल्कि इसलिए कि वह भी एक साथ कई मोर्चों पर लगातार झूल रहा है। पर यहीं पर हिंदी के मूर्धन्य कवि कथाकार रघुवीर सहाय की पंक्तियाँ याद आती हैं कि –

सुकवि की मुश्किल को कौन समझे,
सुकवि की मुश्किल सुकवि की मुश्किल
किसी ने उनसे नहीं कहा था कि आइए आप काव्य रचिए।

तो ऊपर की बातें एक तरफ और भीतर की जिद एक तरफ। तो अब उन मुश्किलों की बात जो इस समय की मुश्किलों को कहानी में रचते हुए बार-बार सामने आती हैं या कि जिनसे जूझना ही पड़ता है।

तो हिंदी कहानी की पहली मुश्किल यह है कि उसके रचने वालों का अनुभव क्षेत्र बेहद सीमित है और वह इसका विस्तार कर सकें इसके संसाधन भी उसके पास न के बराबर हैं। मान लीजिए कि कोई अनुभव, कोई दृश्य, कोई बिंब उसकी रचनात्मकता को एक स्पार्क देता है पर इस स्पार्क के आसपास जो और भी बहुत सारी चीजें हो सकती हैं कई बार वहाँ तक उसकी पहुँच संभव ही नहीं हो पाती हैं। ऐसे में वह अपनी कल्पना से काम लेता है। कल्पना से काम लेना सुंदर बात है पर कल्पना के पैरों के नीचे भी तो जमीन होनी ही चाहिए न। कई बार जब यह जमीन भी नहीं होती तो वह प्रचलित यथार्थवादी मसालों से काम लेता है और जिस स्पार्क से कहानी शुरू हुई थी वह आगे बढ़ने और रोशनी देने की बजाय वहीं पर फ्यूज हो जाता है।

जो भी समस्याएँ हैं हमारे समय की उन पर हमारे कथाकार की जानकारी बेहद सीमित है। इस जानकारी को वह बढ़ा सके इसकी संभावनाएँ भी बहुत कम हैं बशर्ते कि वह घर परिवार नौकरी आदि छोड़कर वैरागी ही न बन जाए। जैसे किसानों की समस्या बड़ी समस्या है हमारे समय की पर उस पर लिखने के लिए जो जानकारी हमारे पास है वह लगभग अखबारी स्तर की है। हमने गाँव छोड़ दिए हैं। खेती-किसानी से भी हमारा कोई सीधा वास्ता नहीं बचा है। तो ऐसी स्थिति में हम इन चीजों को आँकड़े में समझते हैं और आँकड़ों के दम पर कोई कहानी तो नहीं ही लिखी जा सकती। छोटा सा सवाल है कि हम धान या गेहूँ या अरहर या सरसों या आलू की कितनी किस्मों के नाम जानते हैं और यह भी कि ये किस्में अपने साथ क्या-क्या आफतें या नेमतें लेकर आई हैं?

इसी तरह से मजदूरों का जीवन है। हर शहर में कई कई लेबर चौराहे हैं जहाँ बड़ी संख्या में मजदूर काम की तलाश में आते हैं और ज्यादातर बिना काम के वापस लौट जाते हैं। पिछले दिनों शाहीन बाग में एक चार महीने के बच्चे की मौत पर माननीय सुप्रीम कोर्ट आंदोलित हो गए और सही ही टिप्पणी की कि इतने छोटे बच्चों को इस तरह की चीजों से दूर रखा जाय जहाँ पर उन्हें खतरा हो। कितनी सुंदर बात है यह। यह होना ही चाहिए। पर माननीय कोर्ट की संवेदना तब भी जागनी चाहिए जब न जाने कितनी स्त्रियाँ अपने बच्चों को अपनी पीठ पर बाँधकर या कि काम की जगहों के आसपास भटकने के लिए छोड़कर मजदूरी कर रही होती हैं। ये माँएँ भी हमारी प्यारी भारत माँ का ही प्रतिरूप हैं। माननीय सुप्रीम कोर्ट को तो छोड़ ही दिया जाय पर सवाल यह है कि हम इनके बारे में कितना जानते हैं। और जितना जानते हैं क्या वह जानकारी इस स्तर की है कि हम इन पर कुछ लिख सकें।

पर लिखने का दबाव तो है ही। पालिटिकली करेक्ट होने का दबाव भी अपनी जगह है सो हममें से अनेक इनकी कहानियाँ लेकर आ जाते हैं भले ही वे कितनी नकली या फर्जी क्यों न हों पर पालिटिकली करेक्ट जरूर होती हैं। हर समय पालिटिकली करेक्ट होने की कोशिश करना भी हमारे समय कि बहुत बड़ी मुश्किल है।

हमारे समय में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो बदलते हुए समय और तकनीक की वजह से पीछे छूट गए। या कि लगातार पीछे छूट रहे हैं। रेडीमेड आने के बाद बड़ी संख्या में दर्जी का काम करने वाले लोग लगभग मक्खी मारने की स्थिति में आ गए। स्टील आया और न जाने कितने ठठेरों की रोजी-रोटी स्टील की चमक में भस्म हो गई पर क्या आपको रवींद्र कालिया की कहानी ‘गरीबी हटाओ’ के अलावा इस विषय पर किसी दूसरी कहानी की याद है। अगर हो तो आप बताएँ मैं अपनी गलती मान लूँगा। क्या आपने मनोज रूपड़ा की कहानी ‘साज-नासाज’ पढ़ी है जिसमें एक सेक्सोफोन बजाने वाले बूढ़े का नष्ट हो रहा जीवन है। इसी तरह से पीछे छूट गए काबिल लोगों पर हिंदी में कुल कितनी कहानियाँ हैं? यहाँ पर मोची हैं, कहार हैं, पत्तल बनाने वाले हैं, लुहार और सुनार हैं। अभी हमारा सुनार किसी ज्वैलर्स की भव्य दुकान के सामने गहने साफ करता है या कि छोटी मोटी जोड़-गाँठ का काम करता है। हम इन सब के बारे में कितना जानते हैं? या कि हमने इनकी कितनी कहानियाँ लिखी या पढ़ी हैं? गली-गली घूमते रिक्शे वाले हैं जो ई-रिक्शा आने के बाद बेकार हो गए हैं। तबाह हो रहे फेरी वाले हैं। ये सब या इनकी तरह के और भी तमाम लोग हमारी कहानियों में कहाँ हैं?

थोड़ा पहले की खबर है कि ट्रंप जी आए थे। तो उनके संभावित रास्ते में कहीं झुग्गी झोपड़ी न दिखे इसलिए ऊँची-ऊँची दीवालों से ढक दिया गया उन्हें। कामनवेल्थ गेम के समय बड़ी संख्या में आसपास की झुग्गी बस्तियों को उखाड़ फेंका गया था। अभी कर्नाटक से एक खबर थी कि सत्ताधारी दल के नेता ने किसी स्लम के बारे में बयान दिया कि उसमें बांग्लादेशी घुसपैठिए रहते हैं। और अगले दिन नगर निगम ने पूरी बस्ती पर बुल्डोजर चला दिया। और उसके बाद पाया गया कि उसमें एक भी बांग्लादेशी नागरिक नहीं था। होता भी तो उसके तरीके दूसरे हैं पर हमारी सरकारें बस्तियाँ पहले उजाड़ती हैं बाकी चीजों का हिसाब बाद में करती हैं। और बुल्डोजर तो हमारे समय को समझने का इतना नया रूपक है कि उससे खून टपकता है। कौन हैं ये स्लम में रहने वाले लोग? कहाँ से आए हैं? वे सिर्फ आँकड़ों का हिस्सा बनकर क्यों रह जाते हैं? वे कभी हमारी रचनात्मक संवेदना का हिस्सा क्यों नहीं बनते?

ये शिकायतें जितनी साथी कथाकारों से हैं उतनी ही अपने आप से भी हैं। ऊपर की बातें शायद आपको पुरानी लगें तो कुछ नई बातें करते हैं। क्या आपने इस बात पर कभी ध्यान दिया है कि नोटबंदी के बाद सामूहिक आत्महत्याएँ किस कदर बढ़ी हैं। जहाँ पर माँ या पिता या दोनों मिलकर पहले अपने बच्चों को मारते हैं फिर खुद मौत से दोस्ती कर लेते हैं। यह आत्महत्याएँ किस कदर वीभत्स और भयानक होने के साथ मार्मिक भी हैं पर यह हमारी कहानियों से बहुत दूर हैं अभी। लगे हाथ एक बात यह भी कि आत्महत्या के नए आँकड़ों में एक गुणात्मक परिवर्तन हुआ है। आत्महत्या के मामले में किसान नंबर दो पर चले गए हैं। पहला नंबर बेरोजगारों ने जीत लिया हैं। बेरोजगारों की यह जीत हम अपनी कहानी में कितनी दर्ज कर पा रहे हैं?

और भी तमाम बातें हैं। जैसे कि यह जो समय है उसमें मंडल आयोग के साथ जिन राजनीतिक दलों ने ताकत हासिल की थी वे अब मर रहे हैं। वह वर्ग जिसने इन दलों को चमक और सत्ता दी, अब ज्यादा हिंदू होने की तरफ बढ़ गया है। हम इसे कैसे देख पा रहे हैं। मैं फिर से कह दूँ कि यह सारे सवाल सबसे पहले खुद से हैं बाद में साथी कथाकारों से भी हैं। खुद अकेला है पर हम समूह हैं।

हम समूह हैं पर मुझे कहने दीजिए कि हमारी सामूहिकता नकारात्मक अर्थों में ज्यादा प्रकट हुई है। क्यों? यहाँ पर निजता और सामूहिकता परस्पर विरोधी चीजों में कैसे बदल गईं? और यह भी कि निजता और सामूहिकता के द्वंद्व को हमने अपनी कहानियों में भला कितनी जगह दी? बाकी फिर से राजनीति की तरफ लौटते हैं। हमारी पवित्र सेना के प्रमुख लोग बीच बीच में जिस तरह से लगातार राजनैतिक बयान दे रहे हैं उससे यह खतरा साफ दिखाई दे रहा है कि जल्दी ही इस मामले में भी हममें और हमारे पड़ोसी देशों में अंतर समाप्त होने वाला है। तो हमारे कथा साहित्य में यह बात कहीं दिख रही है क्या? नागरिकता के नए-नए कानून आ रहे हैं। छूट गए लोगों के लिए कैंप बन रहे हैं, धार्मिक कट्टरता बढ़ रही है। बलात्कारी बाबाओं को एनसीसी के कैडेट सलामी दे रहे हैं। और कोरोना तो जैसे दुनिया भर की सरकारों के लिए जैसे लोगों के दमन का, विपक्षी आवाजों को दबाने का, जनता के खिलाफ नए नए कानून बनाने का अवसर देने के लिए ही आया है।

बाकी इसी तरह की तमाम और चीजें हैं। वे हमारी कहानियों में कहाँ हैं? सवाल तो यह भी है कि क्या कहानियों में इतना समकालीन हुआ भी जा सकता है? यह सवाल इसलिए भी है कि हमारे समय का जो यथार्थ है अगर हम उसे जस का तस लिख दें तो फंतासी भी उसके आगे पानी भरे। पर कम से कम कथा साहित्य में तो हम यथार्थवादी लोग हैं सो ऐसी फंतासियों का क्या करें जो यथार्थ की हमारी परिभाषा के विरोध में जाएँ। इस बदले हुए यथार्थ को बयान करने का कोई रचनात्मक कौशल हम नहीं अर्जित कर पा रहे हैं। यहाँ मैं छिटपुट सफलताओं की बात नहीं कर रहा हूँ।

और भी बहुतेरे संकट हैं। हमारे शिक्षा संस्थानों को नष्ट किया जा रहा है। सार्वजनिक उपक्रमों की मिट्टी पलीद की जा रही है। तर्कशील युवाओं को संदिग्ध बनाया जा रहा है। मिथ और विज्ञान के बीच अंतर समाप्त किया जा रहा है। देश पर राष्ट्र की जीत हो रही है। बेरोजगार रोजगार की बजाय मंदिर और काँवड़िए होने का हक माँग रहे हैं तो इन सब की बीच हमारी कहानी कहाँ है? और जहाँ है वहाँ हम उसे कैसे लिखें और पढ़ें कि वह समकालीन भी बनी रहे और कहानी भी बनी रहे!

सोशल मीडिया, गूगल बाबा वगैरह एक और समस्या हैं। चीजें भयावह रूप से तात्कालिक होती गई हैं। किसी भी घटना पर तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त करने का दबाव निरंतर बढ़ता गया है। किसी भी घटना पर आपकी चुप्पी सवाल का सबब बन सकती है पर यह भी तो है कि रचनात्मक संदर्भ में यह शीघ्रपतन है। किसी भी घटना का कोई तनाव भीतर बने और कोई शक्ल अख्तियार करे उसके पहले ही हमें किसी घटना पर अपनी प्रतिक्रिया दे देनी है। यह बहुत बड़ा संकट है जो ना जाने कितनी कहानियों की भ्रूणहत्या कर देता है। फेसबुक ने हमारे समय के कई बड़े कथाकारों की हत्या की है। पर यही समय है हमारा।

इसी के बीच हमें अपनी कहानियाँ लिखनी हैं। दोनों ध्रुवों को पिघलने से बचाना है। पेड़ बचाने हैं, पुराने बीज बचाने हैं, शेर और बाघ और गौरैया बचानी है और जाहिर है कि खुद को तो बचाना है ही। हमारी कहानियों से पशु-पक्षी लगातार गायब होते गए हैं। पेड़ नदी और पहाड़ गायब होते गए हैं। उनके बिना कैसी दुनिया बचेगी हमारी? विज्ञान का बाजारवादी रूप और तकनीकि हमें किस तरफ ले जा रही है इस पर भी हम न के बराबर लिख रहे हैं। हमारे समय के जो संकट हैं उनमें इन सब चीजों की भी बड़ी भूमिका है पर हमने अपनी कहानियों में इन पर चुप्पी ही साध रखी है। या इस बात को ऐसे भी कह सकते हैं कि इनसे जूझने की रचनात्मक तैयारी का अवकाश हम नहीं निकाल पा रहे हैं। शायद यह भी कि कहानी कहने की जो प्रविधियाँ हमने अपना रखी हैं वह इन विषयों के लिए नाकाफी साबित हो रही हैं।

शायद मैं ज्यादा निराश हो रहा हूँ। यह निराशा खुद से ज्यादा है। बाकी चाहूँ तो अनेक कहानियाँ गिना सकता हूँ जो बहुत ही तन्मयता से लिखी गई हैं। यहाँ उनकी अवमानना नहीं है। पर वे बहुत कम हैं और शायद यह भी कि जिस असर का ख्वाब देखते हुए वह लिखी गई हैं वह असर नहीं कर पा रही हैं। वह बहुत सारी चीजें जो लेखक और पाठक के बीच में हैं और जिन पर लेखकों का कोई सीधा नियंत्रण नहीं है वह भी इसमें गहरी भूमिका रखती हैं।

अगर मैंने आप सबको ज्यादा निराश किया हो तो इसके लिए माफी चाहता हूँ पर नकली आशावाद मुझे ज्यादा खतरनाक चीज लगता है। जो संकट भयावह रूप में हमारे सामने हैं हम उनका एक रचनात्मक प्रत्याख्यान रच सकें इसके लिए यह जरूरी बात है कि हम खुशफहम मुगालतों से बाहर आएँ। अपने आप में बेहतरी का रास्ता इसके बाद ही शुरू होता है।

 

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6 comments

  1. समय की भयावहता को दर्ज करता एक जरूरी लेख।

  2. बहुत. बढ़िया लेख है

  3. सौभाग्य से मैं मनोज को बहुत दिन से जानता हूँ।न सिर्फ अत्यंत प्रतिभाशाली कथाकार है,बल्किअच्छे नाटककार भी हैं।बहुत महत्वपूर्ण बात उन्होंने उठायी हैं।अपनी पानी या बहुत सी और कहनियाँ में वे बराबर इन्ही बातों को उठाते रहे हैं।लेकिन आज का सबसे बड़ा संकट है इन चिंताओं या उन्हें ब्यक्त करने वालों को ही अप्रसांगिक बना देना।ऐसा डर आसन्न है कि जो भी ऐसी प्रतिरोध की बात करे उसे चुप कर दिया जाय ।कथाकार या लेखक ऐसे समय में क्या करे जब उसकी शक्ति छिन्न भिन्न हो चुकी हों।
    मैने सारिका में दो तीन लघु कथाये लिखी थीं 1980 में।तब एक 20लाइन की लघु कथा के 45 रुपये मिल जाते थे।लेकिन आज लेखक 15 पेज की कहानी के बमुश्किल 2 हज़ार पा रहा है।
    लेकिन लड़ाई लड़ने वाले तो हमेशा कच्चे चावल खाकर, भूखे रहकर भी जोखिम उठाते रहे हैं।
    मैं समझता हूँ मनोज जैसे लोग कभी न कभी सफल जरूर होंगें ,लेकिन उन्हें साथियों के ,समाज के सहयोग कीआवश्यकता है ,इनका हौसला न टूटे ऐसे प्रबन्ध करने होंगे।भले आज राजनीति ने सारे दरवाजो पर अपना कब्जा जमा लिया हो लेकिन खुशबू को कोई रोक नही सकता ।

  4. Behtareen teep.gahri antardrishti.Aisa kuchh pahli bar dekha hai.Badhai bhai.

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