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दीवानावार प्रेम की तलाश का नॉवेल ‘राजा गिद्ध’

उर्दू लेखिका बानो क़ुदसिया के उपन्यास ‘राजा गिद्ध’ पर यह टिप्पणी लिखी है वरिष्ठ लेखिका जया जादवानी ने। सेतु प्रकाशन से प्रकाशित इस उपन्यास की समीक्ष पढ़िए-

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   जंगल में भांति-भांति के परिंदे जमा हो रहे थे… हिन्द-सिंध से, पामेर की चोटियों से, अलास्का से भी कुछ परिंदे आए थे, ब्राजील से लंबी चोंच और झबरे परों वाले परिंदे किसी फैसले के इंतज़ार में थे. इसके पहले परिंदों की बिरादरी कभी इतनी भारी संख्या में एकत्र नहीं हुई थी. जब तिब्बत के पठार पर वे पहली बार जमा हुए तो इंसान से पूर्णतया निराश होकर किसी और ग्रह में पलायन करने को एकत्र हुए थे. इंसान ने अपनी पूरी दीवानगी का साबुत देकर अपनी ही नस्ल को दुनिया से मिटाने की कोशिश की थी. न्यूयार्क, मास्को. पेरिस फ्रेंकफर्ट, लंदन जैसे हजारों शहर पलक झपकते राख हो गए थे.

    इस समय दूसरी बार इतनी बड़ी संख्या में परिंदे जमा थे.

   बहस इस बात पर थी कि हम परिंदे सिर्फ़ हलाल जीविका खाते हैं और प्रकृति के हिसाब से रहते हैं पर गिद्ध जाति आदमखोर चीते की तरह अपनी प्रकृति की सीमा पार गई और हराम जीविका खाने लगी है और उसका सारा दीवानापन उसी से निकला है. इसके पहले कि यह हवा वासियों को जंगल से नेस्तनाबूद कर दे, उसे जंगल बदर कर देना चाहिए.

    अब चीलों की मलिका ने कहा – ‘हम जिन्नों, इंसानों, फरिश्तों, जानवरों, परिंदों की प्रवृति के विरुद्ध नहीं, उस हराम जीविका के विरुद्ध हैं, जो अपने विवेक से खाया जाता है, जिसकी मनाही की गई है और जो ज़हर बनकर लहू में फिरता है और दीवानगी का कारण होता है.’

     ये हैं उर्दू की बेहतरीन अफसानानिगारों में एक – बानो कुदसिया, अपने क्लासिकल नॉवेल ‘राजा गिद्ध’ में. इंसान में इतनी दीवानगी क्यों है कि वह अपनी इच्छा और स्वार्थ में इतना अँधा हो जाता है कि उसे दूसरा दिखाई नहीं देता, वह शहर दर शहर, मुल्क दर मुल्क तबाह कर देता है मात्र अपनी अना और दीवानगी भरी महत्वकांक्षा के कारण. राजा गिद्ध की तरह वह मुर्दार खाता है, दूसरों का छोड़ा हुआ और जब उसका पेट भर जाता है, तब भी वमन करके उलटते-पलटते वह और-और खाना चाहता है. क्या यह हराम खाना ही उसकी दीवानगी का कारण है?

     ‘जीविका दो तरह की होती है, एक जीविका वह है जो शरीर का इंधन है, जैसे, हवा पानी भोजन शरीर को पालने का माध्यम है. दूसरी वह है जो रूह को उर्जा देता है, जैसे, इबादत, इश्क, त्याग आत्मा की द्रढ़ता का भोजन है. क्या गिद्ध की तरह इंसान दोनों ही जीविका हराम की खाता है? और यही हराम खाना शारीरिक हो या आत्मिक, दीवानेपन का कारण है.’

     यह दीवानावार प्रेम की तलाश का नॉवेल है. लाहासिल इश्क की तलाश और इस तलाश में मुब्तला हैं सीमी शाह, आफ़ताब, कय्यूम, प्रोफ़ेसर सुहैल और अम्तुल.

    कालेज में एम.ए. का पहला सेमिस्टर है. सीमी शाह और आफ़ताब को एक-दूसरे से प्रेम हो जाता है. बीच में हैं कय्यूम और प्रोफ़ेसर सुहैल. ये दोनों भी सीमी शाह के इश्क में गिरफ़्तार हैं. बीच में कई घटनाएं हैं और फ़िर आफ़ताब की ज़ेबा से निकाह और आफ़ताब का पाकिस्तान छोड़कर लंदन रवाना हो जाना. बुरी तरह टूटी हुई अधमरी सीमी शाह, जिसकी रूह आफताब की हो चुकी थी और अब दीगर दुनिया में उसके लिए कुछ नहीं बचा था, कय्यूम ने उसे शरण दी और राजा गिद्ध की तरह मर्दार का वह मांस खाया, जो उस पर हराम था. यहाँ पर बानो कुदसिया कहती हैं ….

     ‘आमतौर पर मोहब्बत में नाकामी के बाद लोग अपने ही नकार और अपने व्यक्तित्व को अपमानित करने में व्यस्त हो जाते हैं. जब बंद सीपी से बरामद होने वाले आबदार मोटी को असल खरीदार नहीं मिलता तो फ़िर मोती अपने आपको रेत के हवाले कर देता है. मोहब्बत में नाकाम होकर साधरणतया औरत के दिल से शरीर की पवित्रता, आबरू और सम्मान की कल्पना जाती रहती है.’

      ‘ये भी अजीब लगाव था, मुर्दार को गिद्ध हड्डियों तक चट कर चुका था लेकिन वो अपनी बेईज्ज़ती देखने के लिए मौज़ूद ही न थी. वो तो उस वक्त कहीं और थी, किसी और के साथ थी. ये भी अपनी तरह का एक अलग लगाव था. सोमनाथ का मंदिर खुला पड़ा था, आसपास एक भी पुजारी न था. सीमी किस्म की कोई रूह कई मील तक मौज़ूद न थी.’

    रूह जब लाहासिल मोहब्बत करती है, दीवानी हो जाती है. आख़िरकार सीमी शाह मर गई, तन्हा-लावारिस. सीमी शाह, जो एक बड़े ब्यूरोक्रेट की इकलौती बेटी थी, घर नहीं जाना चाहती थी, वह नहीं चाहती थी, घरवाले प्रेम की कीमत चुकाएं, मिलकर रहने का नाटक करें, मुस्कराने और खुश रहने का नाटक करें. सो उसने चुपचाप दुनिया छोड़ दी.

      इसके बाद कय्यूम की ज़िंदगी में आती है, अम्तुल. एक सीनियर रेडियो कलाकार, कय्यूम से बीस वर्ष बड़ी, जिसे अब कोई मुफ्त में भी नहीं पूछता.

    ‘मैं मिडिल क्लास की तवायफ़ थी सर जी, उधर वह भी कमबख्त मिडिल क्लास क आदमी था. इश्क के लिए न मिडिल क्लास का मर्द बना है न औरत, एक डरपोक दूसरा थोडुला. यह जो थोडुला मरद होता है, वह ज़रुरत की सब चीज़ें देता है पर बीबी पर मोहब्बत बर्बाद नहीं करता. सूट सिला देगा तो उस पर कढ़ाई को बेकार समझेगा. जेवर कभी अपनी इज्ज़त की खातिर बनवा देगा तो वह जडाऊ नहीं होगा. भडुवे को यह नहीं मालूम होता कि औरत का अंदर ही ऐसा बना है कि वह रोटी के बिना तो जिंदा रह सकती है, अय्याशी के बिना, साज-सज्जा के बिना कुम्हलाने लगती है. कुछ लोग बड़ी पुट्ठी मत के होते हैं. पहले तितली पर मरते हैं, उसे पकड़ने का जतन करते हैं, जब पकड़ लेते हैं तो उसे शहद की मख्खी बनाने पर तुल जाते हैं.’

      अम्तुल भी अपने अनंत के सफ़र को निकल जाती है और भाभी सौलत, कय्यूम के लिए एक बाक्ररा लड़की तलाश करती है, जो बस अभी-अभी संदूक खोलकर आई हो पर कय्यूम को शादी की रात ही पता चला, लड़की किसी और के इश्क में मुब्तला थी और मां बनने वाली थी. तमाम इंतज़ामात के बाद वह उसे उसके प्रेमी के हवाले करता है.

     यह सिर्फ़ लाहासिल इश्क की तलाश में निकले हुओं की कहानी ही नहीं है, यह और भी कई सवाल खड़े करती है. आख़िर इंसान के दीवानेपन की क्या वजह है? लाहासिल इश्क या जैविक संरचना या हराम की कमाई? हलाल और हराम का विचार इतने बड़े फ़लक पर मैंने पहली बार समझा और बानो कुदसिया की भाषाई ताकत हैरान हुई. कुछ भी नहीं छोड़ा उन्होंने. इंसान के जिस्मानी-रूहानी सफ़र की तमाम बातें, उसकी सायकी, उसका खुद से संघर्ष और दूसरे तमाम  वाकयात. परिंदों की सभा, राजा गिद्ध को उसकी दीवानगी और मुर्दार खाने के लिए जंगल बदर करने की अपील. सबकुछ अद्भुत. एक बार नॉवेल शुरू होते ही पाठक को अपनी गिरफ़्त में ले लेता है. मैं खुद कई बार पढ़ चुकी हूं.

      इस सिलसिले की शुरुआत कैसे हुई? उर्दू की शैदाई हूं, चुने हुए ड्रामाज़ देखना और अनुवाद पढ़ने का पागलपन है. उर्दू ज़बान की मिठास और लज्ज़त माशाअल्लाह!

    बानो कुदसिया को मैंने पहली बार ‘पाकिस्तानी कहानी’ [ पाकिस्तानी कहानी के पचास साल, अनुवाद अब्दुल बिस्मिल्लाह और चयन इंतज़ार हुसैन, आसिफ़ फ़र्रूख़ी ] में पढ़ा था. कहानी का नाम था, ‘अन्तर होत उदासी’. पढ़कर मैं सन्नाटे में बैठी रह गई थी. दिन भर एक अजीब सी हालात और उदासी रही. कैसे कोई इतने कम और सादा लफ़्ज़ों में किसी औरत के रूह काट देने वाले दर्द का बयान कर सकता है? फ़िर मैंने पूरी किताब के साथ वह कहानी दसियों बार पढ़ी. गूगल पर जाकर उनके सारे अनुवाद पढ़े, यू ट्यूब पर उन्हें ढूँढा. वहीँ मुझे ‘राजा गिद्ध’ का ऑडियो मिला. जाने किस अन्तःप्रेरणा से मैंने उसे सुनना शुरू किया. बहुत बड़ा नॉवेल और पढ़ने वाले की जेट की रफ़्तार से तालमेल बैठाते हुए तीन बार सुना. कुछ सिंध के लेखकों से बातचीत हुई तो पता चला, यह उनकी क्लासिकल कृति है. बस फ़िर इसके अनुवाद के बारे में सोचा और खोजबीन शुरू की तो जाकर प्रसिद्द लेखक-अनुवादक खुर्शीद आलम साहब पर ख़त्म हुई. करोना काल में उनसे आग्रह, उनका मेरे आग्रह का मान रखना और फ़िर इस कृति का रज़ा फाउंडेशन और सेतु प्रकाशन के सहयोग से अस्तित्व में आना. मैं दिली तौर पर उन सबकी शुक्रगुज़ार हूं, जिनकी वजह से इतने बड़े फ़लक का उपन्यास हिंदी पाठकों के लिए अस्तित्व में आया. चाहती हूं हिंदी पाठक इस नई तरह की कहानी और भाषाई ताकत का लुफ़्त लें. एक अजीब सी ताकत और आकर्षण है इन लफ़्ज़ों में. बानो कुदसिया ने समय, समाज और व्यक्ति के भीतरी-बाहरी अस्तित्व से निकलते जिन प्रश्नों को आज से लगभग बीस बरस पहले उठाया है, उसका विकराल रूप आज हम हर जगह देख सकते हैं. शायद यह एक रचनाकार की भीतरी खूबी होती है कि समय की आहट को समय से पहले पहचान लेता है.

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राजा गिद्ध

लेखिका – बानो कुदसिया

अनुवाद – खुर्शीद आलम

प्रकाशक – सेतु प्रकाशन,

वर्ष – 2022

प्रष्ठ – 495

मूल्य – 549

 
      

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