युवा कवि देवेश पथ सारिया की डायरी-यात्रा संस्मरण है ‘छोटी आँखों की पुतलियों में’। अपने ढंग के इस अनूठे गद्यकार की इस किताब पर युवा लेखक सोनू यशराज की यह टिप्पणी पढ़िए-
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धरती का एक-एक टुकड़ा हमारे ह्रदय की हर धड़कन का गवाह बनता है। ‘छोटी आँखों की पुतलियों में’ शीर्षक से छपी ताइवान डायरी युवा कवि देवेश पथ सारिया की रचना यात्रा का नव्य पड़ाव है। इससे पहले देवेश की कविताओं और उनके द्वारा अनूदित पुस्तक ने मेरा ध्यान खींचा था।
इस ताइवान डायरी में बहुत कुछ ऐसा विरल है जो पाठक के भीतर मनस्वी तटस्थता के पक्ष को उजागर करता है। एक संवेदनशील मन, व्यावहारिक खगोलशास्त्री के ताइवान संस्मरण की दास्तान भूमंडलीकरण के इस दौर की भी कहानी कहती है। इस पुस्तक का लेखक अपने लोगों से दूर परदेस में अपनापन ढूंढता है-
“मैं एक दूसरी मिट्टी के पौधे जैसा अनुभव करता हूँ, जिसे उखाड़कर कहीं और रोप दिया गया है। पनपने के लिए मुझे अनुकूलन सीखना पड़ा। कुछ शाखाएँ मुरझाईं, फिर भी टिके तो रहना ही है।”
किसी भी देश को देखने, जानने, पहचानने में सालों गुज़र जाते हैं। लेखक ताइवान के रहवासियों, पेड़ों, फूलों, बेंचों और आसपास के माहौल से अपने लिए नई दुनिया बनाता है, जहाँ उसके वर्तमान की नब्ज़ भविष्य को टटोलती है। फुटकर विक्रेता किसी भी जगह की वास्तविकता का आईना होते हैं। लेखक ताइवान की गलियों में घूमता है और उनका सान्निध्य पाता है। यह इस पुस्तक को आत्मीय स्वरूप देता है।
यह ताइवान डायरी भोगे हुए समय का महज़ एक दस्तावेज़ भर नहीं है। यह उस रचनात्मक छटपटाहट का भी प्रतिबिंब है, जो हज़ारों युवाओं के मन में कुलबुलाती है। और यह सलाह भी कि ऐसे माहौल में ख़ुद को कैसे व्यवस्थित रखना है-
“यदि आप अपनी शुरुआती सफलता को ही शिखर मान बैठे हैं तो आप आगे बढ़ेंगे कैसे? बचपन से जवानी तक बटोरा हुआ सारा सांद्र अनुभव जब आप शुरुआती लेखन में उड़ेल देंगे तो आगे क्या करेंगे?”
युवा लेखक जब साहित्य में राजनीति की घुसपैठ देखते हैं तो लोकतंत्र की चुप्पी से उपजे नैराश्य को अपने भीतर चौकड़ी जमाए अट्टहास करते पाते हैं। देवेश अपनी साहित्यिक यात्रा और अपने देखे साहित्यिक परिदृश्य के बारे में विस्तार से लिखते हैं।
नैनीताल की बारिश से वीज़ा फाॅर्म को बचाने की जद्दोजहद में कमीज़ के भीतर मोड़कर रखता एक छात्र, पोस्ट डॉक्टरल करने ताइवान के शिन चू शहर में आ बसता है, और यह ताइवान डायरी उसी संघर्ष यात्रा की गवाक्ष बनती है। घर छूटता है और माँ भी, संगी-साथी, माँ-जैसी छांव देते वृक्ष भी। और नये देश में सबसे पहले इसी छांव से अपनापन मिलता है। संभवत: यही कारण है कि देवेश ने यह पुस्तक भारत और ताइवान के वृक्षों और अपनी माँ को समर्पित की है।
भारतीय संस्कृति और सभ्यता में रंगा मन पर्वों पर ऐसे परिवार ढूँढता है जिनके साथ मिलकर भारतीय भोजन का आनंद लूटा जा सके। ज़ेहन में घर होता है और प्रत्यक्ष में मुस्कुराहट जो स्मृतियों को अपने अंक में समेट लेती है। डायरी के खंड एक में ऐसे ही संस्मरणों के ज़खीरे हैं। मुश्किल पहला साल, ख़ुद को बचाए रखने की कोशिशें, घड़ीसाज़, साइकिल इत्यादि मन को ताइवान के ख़ुशनुमा रास्तों पर ले जाते हैं, जहाँ चेरी ब्लॉसम के फूल बिछे हैं। लेखक ने अपनी बीमारी के दौरान जिस जिजीविषा का परिचय दिया है, वह प्रेरणास्पद है। लेखक की वैयक्तिक से वैश्विक तक की यात्रा प्रभावित करती है। खण्ड दो में एक साहित्यकार की व्याकुलता देखने को मिलती है।
इस डायरी में राजनैतिक परिस्थितियों का स्पष्ट आकलन न मिलना खलता है। साथ ही ताइवान, जो जापान और चीन के प्रभाव में रहा, उस संदर्भ में मिली-जुली संस्कृति के बारे में विशिष्ट जानकारी भी इस पुस्तक में पर्याप्त नहीं है। शायद उस अध्ययन का आकांक्षी लेखक भी हो और अगले कुछ वर्षों में वह हमारे सामने आए।
कुल मिला कर देवेश पथ सारिया की यह ईमानदार कोशिश रंग लाई है। अलवर के राजगढ़ कस्बे के मिल्क केक से ताइवान के शिन चू शहर के ‘ब्लूबेरी क्रम्बल’ तक का का यह सफर असल में कितना कड़वा, कितना मीठा रहा, यह तो बेज़ुबान सितारे ही जानें लेकिन उसका काफ़ी हिस्सा आप भी इस पुस्तक से जान पाएंगे। ज़िंदगी की जद्दोजहद दरअसल स्थान से नहीं, ज़िंदगी से जुड़ी हुई है। संघर्ष तो सितारों के भी भाग्य में है, खगोल विज्ञानी लेखक से ज़्यादा इस बात को भला कौन जानेगा। बेबाकी और बेफिक्री से लिखी गई ‘छोटी आँखों की पुतलियों में’ एक ऐसी खिड़की खोलती है जिससे कई दीवारें धराशायी होती हैं।
~ सोनू यशराज
पुस्तक: छोटी आँखों की पुतलियों में (ताइवान डायरी)
लेखक: देवेश पथ सारिया
प्रकाशक: सेतु प्रकाशन
पृष्ठ: 154