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गद्य की गहन ऐंद्रिकता में किसी इंटीमेट पेंटिंग की तरह डूबी कृति

इस साल जिस उपन्यास ने अपनी भाषा, अपनी कहन से मुझे बेहद प्रभावित किया वह सारंग उपाध्याय का उपन्यास ‘सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी’ है। क्यों प्रभावित किया डॉ शोभा जैन ने अपनी समीक्षा में तक़रीबन वही बातें लिखी हैं जो मैं सोच रहा था। आपने उपन्यास न पढ़ा हो आप इस समीक्षा को पढ़ सकते हैं। आपका मन उपन्यास पढ़ने को होने लगेगा। उपन्यास का प्रकाशन राजकमल प्रकाशन ने किया है- प्रभात रंजन

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जिस भाषा ने हिंदी फिल्मों की कामयाबी के सितार बांधे वह मुम्बइया बोली साहित्य साधेगी इसका उदाहरण है सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी.

उपन्यास के लेखक सारंग उपाध्याय ने कृति के शीर्षक में मराठी वर्तनी का प्रयोग कर प्रचलन की परंपरा का निर्वहन ही किया है (वाया के स्थान पर व्हाया). उपन्यास में मौलिकता की ताजा लकीरें लेखक की सजगता की सूझ में डूबी हुई हैं, जो बूझ के लिए आंखें बंद कर बांचने का आग्रह करती हैं. ग्यारह किस्सों में लिखे गए इस उपन्यास में भीड़ के आगोश में नींद की झपकियां लेती मुंबई है तो बेचैनी में तरबतर चेहरों के अनकहे किस्से.

इच्छाओं का अपहरण करती मुंबई में सपने पूरा करते -करते खुद सपना बन जाते लोगों की  जिंदगी की  बानगी  है सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी.  लेखक ने महज़ मच्छी बाजारों की खाक नहीं छानी है बल्कि इतिहास होते लोगों में डूबते  उतरते समय का नक्श तराशा है. ऐसा समय जो दस्तावेजों में कई-कई बार ढूंढने, जगहों पर ठहरने,  हर तरफ देखने पर भी कोई खास निष्कर्ष नहीं दे पाता. कुछ ऐसी जद्दोजहद इस उपन्यास में दिखी है. घटनाओं को जिस सलीके से उपन्यास के कोने में करीने से सजाया है जैसे किसी घटना का आँखों देखा हाल बयां  किया जा रहा हो .

इतिहास में दर्ज तारीखों पर निगाह डालते लेखक की आंखों में जैसे पूरा घटना क्रम तैरने लगता है बैचैन होते मंजर में कहीं काफ्का की कथाएं टकराती रहीं तो कहीं शाहबानों के फैंसलों पर तनाव झटकती दिल्ली, तो कहीं आरक्षण की आग में जलती सड़कों पर भगवान राम का  नारों  तब्दील हो जाना सुनाई देता रहा.

दरअसल न इतिहास की परतों में जिया जा सकता है न भविष्य के यूटोपिया में विषयों को हाशिये से निकाल कर मुखपृष्ठ पर लाने की लेखकीय जवाबदेही से लेस  बेगुनाही की सजा काटते समय में उपन्यास नये सिरे से जीने की निगाह खोजता है. यही उपन्यास की सार्थकता है.

लेखकीय सोच के औजारों पर चमकती डोंगरी की दुनिया लाइम लाइट के घराने से घबराने वाले पिछली पक्ति में बैठे उन लोगों पर रोशनी डालती है जहां छोटे-छोटे अंतरालों में बहुत कुछ घट जाता है. शांत समंदर में पटरियों पर दौड़ती जिंदगी की कहानी जहां अजाने आर्दशों से टकराती है. तो वहीं मंदिरों की घण्टियों और चर्च की प्रार्थनाओं में मस्जिदों और नमाजों में डूबते लोगों की कहानियां बदल जाती है.

मसलन:

 दोनों को (जालना और दत्ता) न किसी बाबर नाम के आदमी का पता था और न यह पता था कि अयोध्या में कोई राम मंदिर है. जालना को बस इतना पता था कि एक मस्जिद अचानक से 16 दिसंबर को ढह गई. वह तो न कभी स्कूल गया न जमीन की दुनिया से उसे कोई लेना-देना था न अख़बार, न सियासत उसके मोटे दिमाग में घुसते थे उसकी समझ में नहीं आ रहा था महज छोटी सी खबर ने पर पूरे  देश में यह हाहाकार क्यों मचा रखी थी ?’ (पृ.73)

हंसते हुए जालना ने दत्ता से कहा  —

 हम तो समुन्दर किनारे ही थे फिर नाव में नमाज पढ़ लेते हैं न भी पढ़ें तो कौन -सा अल्लाह केवल हमारी ही नमाज सुनने के लिए बैठता हैजालना की बात सुन दत्ता ने कहा था, ” इन मौलानाओं ,मस्जिदों और पंडितों के चक्करों में न पड़ना जालना ., खुदा ही जानता है कि तूने कितनी नमाज पढ़ी है और मैंने कितनी पूजा पाठकी की है . ” (पृ.73)

यह उल्लेखनीय है कि साहित्य में जब जगहों को चरित्रों जैसा मान मिलेगा तो उनकी आंचलिकता बने रहने में कोई बाधा  नहीं बनता. ‘सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी’ उपन्यास में मौलिकता की ताजा लकीरें लेखक की सजगता की सूझ में डूबी हुई हैं, जो बूझ के लिए आंखें बंदकर बांचने का आग्रह करती हैं.

दरअसल जिस भाषा ने हिंदी फिल्मों की कामयाबी के सितार बांधे वह मुम्बइया बोली में साहित्य साधेगी इसका उदाहरण बनता सद्यः प्रकाशित उपन्यास महज मुंबइया तड़का में आंचलिकता को सुंदर दिखाने का उपक्रम नहीं है बल्कि यहां लेखक सारंग उपाध्याय को उन संकटों का पूरा आभास है जो मुंबई कि किस्मत में लिखे हुए थे, शायद इसलिए मौलिक रूमानी रूप में आने वाली कड़ियां भी खुलकर अपनी कथा विषयों की जमीं से उठाते हुए उस पीढ़ी के सामने रखते हैं जो उस दौर में जन्मीं भी न थी. वस्तुतः लेखक का जन्म 1985  के आसपास है वह 1992 में लौटते हैं कुछ इस तरह जैसे संजय की भूमिका में अपने समय की तटस्थता पक्षधरता प्रमाणित कर रहे हों.

कथा के कुछ अधूरे सिरे कई सवाल और मुबाहिसे हम तक छोड़ जाते हैं- हिंदू लड़के से विवाह उपन्यास में कई दफा उभरा. जालना ने भी अरफाना को चार निकाह पड़ने वाली बात कहकर मजहबी मुद्दे को सामने रखा जो अधिकारों के बरक्स ही सही विमर्श के द्वार खोलता है.

लेखक ने इस विषय से बचते हुए कथा को मोड़ दिया.  सायरा-रघु के मार्फ़त हमें हमारी स्थूल दुनिया के कामिल होने का संदेश भी सलोने ढंग से मिलता है़. गद्य की गहन ऐंद्रिकता में किसी इंटीमेट पेंटिंग की तरह इत्मीनान से भीतर उतरता उपन्यास जातिवाद के बैगेज के साथ आने वाली शुचिता की भोथरी अवधारणा को नापजोख करते हुए वजूद के बुनियादी सवालों से टकराता है.
उपन्यास में प्यार जैसी लगभग अपरिभाषेय भावना को ठीक-ठीक पकड़ने की कोशिश अनूठा,  इंटेंस लेकिन कुछ कोनों में बेहद उदास कर देने वाला गद्य कथा के अबाध्य अधूरेपन में भी इंसानी अहसासों की यकसानियत पर रोशनी डालता है.

लेखक के विचारों की गड़गड़ाहट हमें ऐसे कोने में घसीटकर ले जाती है जहां से हमने महज़ घटनाएं देखी हैवे जो परंपरा में बीते समय को उघाड़ना नहीं चाहती. इतिहास और समाजशास्त्र दोनों साथ-साथ लेकर चलता उपन्यास बहुत कुछ सहज निराभास ही खोलता है शांत और संयमित आवाज में मौलिक कल्पनाशीलता के साथ.

उपन्यास की खासियत है कि कहीं से भी शुरू कर सकते हैं, कोई भी पहलु उभार सकते हैं. क्रमबद्ध सिलसिले की मानें तो समय और स्पेस हर पन्ने में स्वतंत्र हैं.  उपन्यास के हर अध्याय में कुछ धुंधली अस्पष्ट सी अंडर टोन है. जहां कुछ दबा हुआ सा है जिन्हें हम पढ़ते हुए महसूस करते हैं छू नहीं सकते. अंत तक बने रहने वाला रोचक रहस्य भी.

कहने का अर्थ फिनिशिंग टच के लिए जिन अंतिम सुरों की हम प्रतीक्षा करते हैं वे कभी हमारे हाथ नहीं लगते. लेखक ने अनजाने ही सही जो कुछ भी पाठकों के लिए रख छोड़ा है वह निष्कर्ष नहीं देता लेकिन उसके विकल्पों का अन्वेषण जरूर करता है.

एक शहर कहानी से निकलकर उपन्यास कैसे बनता है इसकी बानगी देखिए-

बाबरी मस्जिद ढ़हने के बाद करीम लाला, दाऊद इब्राहिम के दुबई भाग जाने के बाद गुजरी बंबई जो मुंबई होने को बैचेन थी. 2002 गुजर गया था सायरा और राघव की कहानी उसी दौर की कहानी थी जो मछआरों की दुनिया थी.

 ऐसे ही-

मुंबई के सबसे चमकते इलाके अंधेरी के सबसे अंधेरे इलाके का वह छोर जो एक समय में कई कई समय जी रहा होता है. मुंबई की वह चाल जहां पहुंचने पर धरती खत्म हो जाती है. उस दौर के किस्से जब कोई लड़का दाऊद इब्राहिम मुस्लिम डॉन नहीं बना था या दगड़ी चाल में रहने वाले अरुण गवली को किसी हिंदू हृदय सम्राट ने भी डॉन घोषित नहीं किया था सायरा की अम्मी अब्बा का प्यार उसी दौर का था. ये सारे वाक्य और वृतांत उपन्यास के समसामयिक सन्दर्भों में बखूबी और इतनी बारीकी से पिरोए गए हैं मानों पाठक एक दृश्यांतर के भीतर प्रवेश कर गया हो.

ग्यारह किस्सों में बंटे उपन्यास में भीड़ के आगोश में नींद की झपकियां लेती मुंबई है तो बेचैनी में तर बतर चेहरों की दुनिया भी. लेखक महज चंद शब्दों में इस मुंबई को पाठकों के सामने रखता है मानों एक झटके में एक महानगर का पूरा चरित्र आपके सामने आ गया हो-

ग्यारहवें किस्से पर नजर डालिए-

मुंबई में सब कुछ अधर में था-बीच में लटका हुआ, कभी पूरा न होने वाला. थकना ज्यादा था चलना कम. चलना ज्यादा था पहुंचना बहुत कम! यहां कोई भी पूरा नहीं था. जो भी जितना भी था, वह आधा-आधा था, अधूरा था.’  (पृ.134)

कथा जितनी वैश्विक है उतनी स्थानीय भी.

बकौल गीत चतुर्वेदी- मुंबई की शबिस्ता में पसरी उस अमूर्त बात को छूने की कोशिश की है ,जिसके मोह में लोग शाम -ए -अवध और सुबह -ए-बनारस छोड़ आते हैं.

 सबसे  खास बात भाषा की कहीं कोई मरोड़ नहीं है, बल्कि खुलने की प्रक्रिया है.

एक ऐसा उपन्यास जिसका लेखन एक समय विशेष के संदर्भ में हुआ. कहीं अपने कथ्य में उसके  विविध चरित्र और चौखटें हमारे आज के समय में है.  समय, इतिहास और कोण के चुनाव में कहीं वे संदर्भ काम करते हैं. लेखक उस समय का नहीं है लेकिन व समय उसके लेखन में है.

काफ्का की ही कहानियों को लें उनमें समय नहीं लेकिन वे एक विशेष समय की रचनाएं हैं. यहां जैसे सारा मुंबई वर्सोवा, डोगरी में उतर आया और अपने  समय के सारे जुगाड़ अस्तित्व पर हावी हो गए. खासबात यह है कि यहां लेखक की दो जद्दोजहद विशेष रूप से उल्लेखनीय है. पहली अपरिचित लगने वाले खंडों को पाठकों के लिए परिचित कराना और परिचित क्षेत्रों के अपरिचित अनुभव स्तरों की कई कोणों से खोज प्रस्तुत करना.

पात्र राघव, सायरा अफसाना, जालना सुरेखा आदि मुंबई के हैं और मुंबई इनकी. चमचमाते उपनगर अँधेरी से लगा हुआ अंधेरा इनका.  मुंबई को लेकर जितनी जानकारी एक आम पाठक को यहां मिलती है अंदाजा ही नहीं होता की बिल्डिंगों के जंगल सा दिखता यह शहर वास्तव में मछुआरों का एक संसार भी है जिसकी अपने संघर्ष और कहानियां हैं. मछुआरों की दुनिया की डिटेलिंग आपको आश्चर्य में डालती है. इतनी बारिकी से पृष्ठभूमि को पकड़ना, परिवेश में पाठकों प्रवेश करा देना और भाषा से इतना जीवंत चित्रण खड़ा कर देना कि लगता ही नहीं कि आप किताब पढ़ रहे हैं या समुंदर किनारे एक अलहदा दुनिया का हिस्सा बन गए हैं-

किनारे से लगी नाव से मछलियां उतारना फिर उन्हें अलग करना ,पापलेट ,रोहू ,कोलबी काने तारली घोंघे ,झींगे ,बॉम्बे डोक. केंकड़े सभी से अलग कर छांटना मछलियां धोना ठीक तरह से टोकरे में रखना फिर उन्हें बेचने जाना नाव की सफाई ,जाल को सुलझाना फैलाना” (पृ.34-35 )

उपन्यास के कुछ कथन ऐसे हैं जैसे कविता में गद्य रचा गया हो. हालांकि ग्यारह किस्सों की शुरुआत ही कविताओं से होती है. कविताएं भी ऐसी हैं जैसे हर एक किस्से की पड़ताल करती हैं लेकिन संवादों के भीतर लेखक कविताओं को रचते नजर आते हैं-

मसलन:
मुंह से समंदर उगल दिया हो (पृ.36 )

सायरा (बेटी) उसकी बरकत थी (37 )

एक पानी की दुनिया और एक जमीन की दोनों छोर अलग-अलग (पृ.39 )

हिन्दू लड़के और मुसलमान के फर्क पर लेखक ने कहीं विमर्श पर हाथ बचाते हुए उपन्यास को मोड़ दिया है जबकि यह सिरा उपन्यास में बार -बार उभरा है . 

बिरादरी मजहब ने औरतों के हक को कितना मारा है इसे खुदा ही जानता है. कुरान ने कभी औरतों को इतना मजबूर नहीं माना जितना कम अक्कल मर्द कर रहें हैं . (पृ.48)

इस्लाम बेटियों की बरकत है बेटों की नहीं और तू सिलसिला चलाने की बात करता है- (पृ.51)

जालना (अरफाना का पति) के दूसरे विवाह पर अरफाना का विलाप और जालना का इस्लामिक चार निकाह की दुहाई देना जिसके जवाब में अरफाना के शब्द- इससे तो हिन्दू लड़के के साथ भाग गई होती तो यह मुंह न देखना होता. प्यार से रखता उसकी औकात में रखकर घर तो न उठा लाता  (पृ.51)

पिछली जिंदगी के राज उगलती अरफाना के हिस्से सिर्फ विलाप ही रह जाता है क्योकि

औरतों का ससुराल छोड़कर जाने का मतलब मायके में तो वह परायी थी और ससुराल छोड़कर जाने के बाद यहां भी कुछ न बचता हर औरत की यही नियति (पृ.52 )

मुस्लिम औरतों के हक में यह उपन्यास अध्ययन के कई सिरे जोड़ता है. अरफाना 1985 की शहबानों नहीं थी जो आजाद हिन्दुस्तान में आजाद मुस्लिम औरतों का चेहरा बनी थी.

मजहब जिंदगी में तभी काम का है जब वह दिलों की बगिया को हरा भरा रखे. दिसंबर 1992 के दंगे कई सारे जालना को लील गए. हिंदू-मुसलमानों की लाशें गिनना मुश्किल था जहां देश में इंसानियत लहूलहान थी-

पहले अध्याय की दो बातें विशेष उल्लेखनीय होने के साथ विमर्श के किसी पायदान पर खड़ी मिलती है. अपनी हंसी की आवाज पर इस तरह दुनिया भर की नजरों को देखते सायरा का झेप जाना” (स्त्री को खुलकर न हंसने को  ‘अदा’ कहने का चलन है हमारे कथित समाज में).

सायरा की कमर को बैसाखी से धकाने वाली हरकत को स्टेशन पर खड़ी भीड़ ने देखा दुखद तआज्जुब है कई मुस्कुरा रहे थे कई आंखें तरेर रहे थे. समाज के दो वर्ग इस घटना पर उभरकर आते हैं.

इधर कहानी अंधेरी, वर्सोवा कोल्हीवाड़ा के कोनों से गुजरते हुए पूरी मुंबई की ख़ाक छानती है. अध्याय दो में मजहबी इल्म का एक नायब उदाहरण देखने को मिला जिसमें सायरा की मां अरफ़ाना की दीनी तालीमऔर ईमानदार मौलवी की लड़की होना जिसने मदरसे में जाकर अपने अब्बा से कुरान की आयतों से लेकर हदीस की बातें सुन रखी थीं.”

रघु और सायरा के प्रेम से उपन्यास विस्तार पाते हुए उन आतंकी घटनाओं से पगा है जो आज भी अपने समय की गवाही देने को तैयार खड़ी है. उपन्यास में कई ऐसी नसीहतों से रूबरू होते पाठक मुंबई के चरित्र ही नहीं,  लोकल, स्टेशन से गुरजरते हुए वहां के बाजार में बसे उस टुकड़े को रचते हैं जो संघर्ष और प्रस्तिस्पर्धा का प्रतिफल है .

मनुष्य की जिजीविषा और अस्मिता के सवालों से जूझते हुए पात्र गति पकड़ते हैं. कहीं किसी हिस्से में अनावश्यक मोड़ या ठहराव अबाध्य अभावों की जगह जरूर घेरता है .

उपन्यास कुछ अधूरे सवालों के अधूरे जवाब अपने पीछे छोड़ जाता है.  यह बात तो सिरे से बेसूरी ही गई है कि ‘प्यार मजहब नहीं देखता’ लेकिन उपन्यास में यह बार -बार सुनाई देती रही. निश्चित ही लेखक के लिए इस औपन्यासिक कृति का साथ लम्बा और दुर्गम रहा होगा. मराठी से प्रभावित मुंबइयां ने इसे आंचलिकता दी है.

उपन्यास के भीतर युवा लेखक ने जमीन के उस टुकड़े को बखरा है जो अब पुरानी सीमाओं से बहुत विस्तार पा चुकी है. अपने विषय के तमाम ज़रूरी- गैरजरूरी ब्योरों को नाना सूत्रों से एकत्रित करता उपन्यास इतिहास और समाजशास्त्र के उन कोनो की पड़ताल करता है जिसमें दंगों की त्रासदी से बेवजह तबाह होते आदमी की जिंदगी में महज घटनाएं दर्ज रह जाती हैं.

समग्रतः उपन्यास पुरज़ोर तरीक़े से पिछड़ी और पर्दे की कई परतों में छिपी हुई औरतों के जज़्बात बयां करता है. यह एक ऐसे तबके की कहानी है जो न मजहब समझता है, न कानून, न दंगे न दंगों की वजहें और सबसे बड़ी बात है कि न उसे अपने हालात का भान है लेकिन जिंदगी की आंच में तपते हुए उसमें एक मुक्ति की छटपटाहट है. दुःख के भीतर से सुख पकड़ लेने की कोशिश.

किताब के  कुछ हिस्से में  इंसान से इंसान की मोहब्बत जो आज भी हमारे समाज में नाकाबिल-ए-बर्दाश्त समझी जाती है, उभरकर सामने आती है शायद इसलिए दंगे की राह आसान हो जाती है. दरअसल, साहित्य हो या समाज धर्म के ख़िलाफ़ मोहब्बत सदा आकर्षण के केंद्र में ही रही इसलिए मजहबी दंगों से गिरता, उठता, और जीता हर किरदार उपन्यास में किसी योद्धा सा लगता है. जाहिर है हर ज़माने में ढांचे और नियम क़ानून तोड़ने वाले लोग बसे होंगे तभी ये दुनिया थोड़ी बहुत सहज और जीने लायक़ बची रही होगी. दंगों से उभरी, उजड़ी और बसी मुंबई उसी का उदाहरण है.

बहरहाल, एक ख़ास किस्म की सतर्कता के साथ बौद्धिक पहलू को शिद्द्त से सामने रखने की कोशिश उपन्यास में नजर आती है फिर भी अपने समय के कुछ जरूरी सवालों से बचा गया है. इस बात में कहीं कोई संदेह नहीं.

उपन्यास पढ़ते हुए इतिहास में दर्ज तारीखों पर निगाह डालते लेखक की आंखों में जैसे पूरा घटना क्रम तैरने लगता है. बेचैन होते मंजर में कहीं काफ्का की कथाएं टकराती रहीं तो कहीं शाहबानों के फैंसलों पर तनाव झटकती दिल्ली, तो कहीं आरक्षण की आग में जलती सड़कों पर भगवान राम का नारों  तब्दील हो जाना  सुनाई देता रहा.

दरअसल न इतिहास की परतों में जिया जा सकता है न भविष्य के यूटोपिया में.  विषयों को हाशिये से निकालकर मुख पृष्ठ पर लाने की लेखकीय जवाबदेही से लैस बेगुनाही की सजा काटते समय में उपन्यास नये सिरे से जीने की निगाह खोजता है.

यही उपन्यास सार्थकता है. युवा लेखक को उसके पहले उपन्यास पर बधाई।

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समीक्षक. –डॉ.शोभा जैन ,इंदौर

उपन्यास: सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी

लेखक: सारंग उपाध्याय

प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन

प्रकार : पेपरबैक संस्करण

मूल्य: ₹250

 
      

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22 comments

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