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विनय सौरभ की ग्यारह कविताएँ

आज पढ़िए विनय सौरभ की कविताएँ। विनय का परिचय देते हुए हिंदवी ने लिखा है ‘सुपरिचित लेकिन दुर्लभ कवि’। हाल में ही राजकमल प्रकाशन से इस दुर्लभ कवि का कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है ‘बख़्तियारपुर’। आप इनकी कुछ चुनिंदा कविताएँ पढ़िए-

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वे संबंधी

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इस इलाक़े में साल भर में लगने वाले
एक दो मेलों में ज़रूर आते
सांझ ढ़ले हमारे यहां रूकते
तय होता था उनका आना
अपना देहातीपन वे पहचानते थे
और संकोच से भरे होते थे

चौकी पर कुर्सी पर
सिमट कर बैठते, बहुत कम बोलते
साथ आए बच्चे कौतूहल से हर चीज को देखते
छत पर चढ़ते-उतरते, सीढ़ियों पर फिसलते

रात को छत पर या कहीं भी
गुड़ीमुड़ी होकर सो जाते थे एक चादर में
और मुंह अंधेरे बिना चाय- पानी
माँ का पाँव छूते  यह कहते हुए निकल जाते
कि फिर आएंगे

वे अपने पांवों पर भरोसा करने वाले लोग थे
दो- चार  कोस पैदल आदतन चलने वाले

सूरज के पहाड़ के ऊपर उठने तक
वे बहुत दूर निकल जाते थे
उन्हें खेतों में जाना होता था
वे किसान थे
छोटे-मोटे धंधे में लगे लोग थे

अपने गाय बैलों की ख़ातिर ज़ल्दी घर लौटते
जहाँ भी होते, जिस गाँव जाते

अब नहीं आते दूर- दराज़ के ये सगे- संबंधी
मेला देखने के बाद
बरसों पहले की उनकी आने- जाने की स्मृतियां भर बची हैं अब

मेले आज भी हैं
पहले से ज़्यादा भीड़ लिए
ज़्यादा चमकीले और नये शोर से भरे हुए

क्या पता वे आते भी हों
और हमसे बिना मिले ही लौट जाते हों !

वे आएंगे ही, इस भरोसे से रसोई में अलग से कोई जतन नहीं होता
पीतल की बड़ी हांड़ी में भात बने कई बरस हुए

पांत में इन संबंधियों के साथ बैठकर
अपने ही आंगन में खाए बहुत साल बीते हैं

••

फ़ोटो स्टूडियो की याद

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अब किसी भी शहर में जाओ
बहुत उदास मिलते हैं फ़ोटो स्टूडियो
जो कभी खिलखिलाती तस्वीरों और रूमानी हलचलों से भरे होते थे

हम सब के पास
उनको लेकर कोई न कोई याद है

नोनीहाट के खोगेन विष्णु ने उन्हें कभी
फ़ोटू खींचने की दुकानें कहा था
जब वे पहली बार किसी शहर से फ़ोटो स्टूडियो देखकर लौटे थे और कैसा कौतुक भरा चित्रण किया था !

वह फ़ोटो खींचने की दुकानें ही तो होती थीं सचमुच!
वहाँ कितनी हसरतों से लोगों को भीतर जाते देखा है
वेशभूषा ठीक करते, चेहरा चमकाते हुए
फ़ोन का रिसीवर हाथ में लिए, बेलबॉटम पहने कॉलेज़िया लड़के
और बैकग्राउंड में ताज़महल के पुराने पड़ चुके पोस्टर रंग छोड़ते हुए
पहाड़ और फूलों की वादियों के आगे बैठे नवविवाहित जोड़ों के ये स्वप्नगाह थे !

एक बड़े वक्फ़े के बाद एक ऐसी ही जगह पर खड़ा हूं जहां पहले भी कई बार आने की याद ने लगभग परेशान कर रखा है
कहन की शैली में जिसे मशहूर -ओ- मा’रूफ़ कह सकते हो

ओह!  वे वासु दा ही थे !
लोग उन्हें स्टूडियो मैनेजर कहते थे
लगभग सत्तर की उम्र में वे वहाँ क्या कर रहे थे?
आश्चर्य था कि वे अब भी यहां थे !
इस स्टूडियो में बस अकेले बचे कर्मचारी !
उनकी आंखों में देर तक देखने से एक सुंदर दुनिया की तकलीफ़देह अंत का सफ़रनामा  मिलता था

हथेलियों और कुहनियों की छुवन भर से घिस आए उस काउंटर के पीछे
शीशम की बड़ी सी पुरानी कुर्सी पर बैठे उस नूरानी चेहरे को
जो  इस स्टूडियो का मालिक था, मैं पहचान सकता था
अस्सी-नब्बे के दशक में वह युवा थे
सलीकेदार और आकर्षक !
ख़ास मौक़ों पर ही फ़ोटोग्राफी के लिए उपस्थित होते थे

शहर के रईस तक चाहते थे कि उनकी कोई यादगार तस्वीर में वे उतार दें
उनकी अलहदा शख़्शियत की वजह से उन्हें एक फ़ोटोग्राफर से कहीं ज्यादा इज़्ज़त बख़्शी इस शहर ने

इवेंट और डिजिटल फ़ोटोग्राफी के दौर में
एक पुराने और संजीदा फ़ोटोग्राफर का अकेलापन  और उदासी तुम दूर से पहचान सकते हो

स्टूडियो में लगे शीशे के सेल्फ़ में तस्वीरें अपनी चमक खो चुकी हैं
वे पुरानी पड़ गई हैं
कुछ के फ्रे़म औंधे पड़े हैं
उन पर जैसे महीनों की धूल बैठी है
उन्हें तरतीब से रखा जा सकता है, यह बात उनके जे़हन में क्या नहीं आती होगी ?

दीवारों पर रंग रोगन हुए जमाना बीता है और धूसर हो चुके उस सोफे़ को मैं पहचान ही सकता हूं
गोकि उस पर बैठने की याद बाक़ी है!

यह पता चल जाना कोई मुश्किल काम नहीं है कि उनकी संताने किसी और धंधे में क्यों लग गयी होंगी !
और इस पुश्तैनी धंधे को कितनी तकलीफ़ से अलविदा कहा होगा!

वह तस्वीर जिसमें दिखते थे अभिनेता सुनील दत्त स्टूडियो के मालिक के साथ
यहां आने वाला हर ग्राहक बहुत कौतुहल के साथ देखता था उस फ़्रेम को
जो वक़्त की गर्द में अब अपनी रंगत खो चुका था
उसमें सुनील दत्त थोड़े अधेड़ हो गए दिखते हैं
यह फ़ोटू आकाशवाणी भागलपुर के किसी कार्यक्रम की है जिसमें यह फ़ोटूग्राफर उनके साथ खड़ा है

लेकिन आज की तारीख़ में अब कोई सुनील दत्त को याद नहीं करता क्योंकि आप जानते हैं कि अब कोई स्टूडियो नहीं जाता और ऐसी तस्वीरों के लिए वह रोएँ खड़ा कर देने वाला रोमांच और दिलचस्पी अब बीते दिनों की बात हो चुकी है

अपने समय के नामचीन अभिनेता अब या तो मर गए हैं या गुमनामी के अंधेरे में चले गए हैं
और उनके लिए वो जादू भी देश के साधारण नागरिकों में ख़त्म हो चुका है

लेकिन हममें से हर कोई जीवन में एक बार ज़रूर गया है फ़ोटो स्टूडियो
और आज मेरी गुज़ारिश है दोस्तों कि अगर आप पुरानी ब्लैक एंड वाइट तस्वीरों से प्यार करते हो तो उन्हें भी एक बार याद करो

बाप-दादाओं और पूर्वजों की दुर्लभ फोटूओं के लिए हम उनके कर्ज़दार हैं

लेकिन वह अब आपके शहर में शायद ही बचे हों या अंतिम सांसे गिन रहे हों

उन फ़ोटो स्टूडियो के साइन बोर्ड तुम्हारे जे़हन में होंगे
जिस पर परवीन बॉबी या अभिता बच्चन काले गाॅगल्स और गोल टोपी में नमुदार होते थे

उन लाखों कैमरों के बारे सोचो जो
वक्त की तेज़ रफ़्तार में किसी कबाड़ में बदल गये हैं
उन्हें उनके मालिकों ने कहाँ रखा होगा
डार्क रूम में जहाँ कभी निगेटिव्स धुलते थे नीम रौशनी में
क्या वे कैमरे भी उन्हीं अंधेरों में कहीं खो गए हैं ?

•••••••••

पिता तुम

_____________

सब देखते रहते हो जैसे, तस्वीर में जड़े !

तुम्हारी सभी किताबें रखी हैं आज भी तरतीब से।
कपड़े सर्दियों वाले, चश्मा और खैनी की डिबिया भी। कई डायरियाँ ।

दुमका- भागलपुर वाली सड़क अब हाईवे कहलाती है।
सड़क धार वाला सबसे पुराना पीपल कट गया इसी हाईवे के बनने में,
जो तुम्हें प्रिय था बहोत।
अब नहीं बचे तुम्हारे कोई संगी साथी यहाँ, सब चले गये !

मैं अगले महीने “रेणु” के गांव जा रहा हूं उनका घर देखने,
जहां तुम चाह कर भी जा नहीं सके।
एक असगर मियां मिले थे अभी हाल में
पिचहत्तर बरिस के होंगे। बुनकर हैं। दफ्तर में आए थे।
नोनीहाट का ज़िक्र आया तो तुम्हारा नाम कहा।
फिर बोले- बहुत पुरानी बात है !
शायद आप नहीं जानते होंगे उनको

•••

बड़ा आदमी

____________

धीरे-धीरे उनका बड़ा होना देखा!

सबसे पहले उन्होंने गाड़ी ख़रीदी
फिर राजधानी में एक ज़मीन
एक दिन लौटे प्रशासन की गाड़ी से गाँव
बॉडीगार्ड के साथ

काले चश्मे में गाँव के बचपन के दोस्तों के साथ खिंचवाई तस्वीरें
नये मंदिर के लिए दिया अच्छा खासा चंदा
बुजुर्गों का लिया आशीर्वाद
लौटे शहर को भाव विभोर

बचपन के साथियों के साथ इस सामूहिक फोटो में
कितने गदगद और प्रसन्न दिखते हैं वे !

देखते ही देखते राजधानी में उनके घर बनने की ख़बर आई
घर की साज-सज्जा ऐसी की
कि पिता फिसल कर गिर गए स्नानघर में
पत्नी को पसंद नहीं थी टूटी हुई कमर वाले पिता की कराह
और सुबह उनकी अनवरत रामधुन

पिताजी गाँव भेज दिए गए मंछले भाई के पास
जो एक किराने की एक छोटी दुकान चलाता था
मांँ पहले से ही रहती थी को छोटे बेटे के पास
जो एक सुदूर गाँव में शिक्षक था

बचपन से क्रिकेट के शौकीन बच्चे को
देहरादून के स्कूल में डलवाया है
चाहते हैं कि वह भी बड़ा आदमी बने
वह यह भी चाहते हैं कि बच्चा सचिन तेंदुलकर बन जाए
और देश का नाम रोशन करे

एक कुत्ता खरीदा गया विदेशी नस्ल का
दरवाजे पर नेम प्लेट लगवाई
लिखवाया – अधिकारी
राज्य प्रशासनिक सेवा

अभी गए हैं तेजतर्रार एसएन प्रसाद
राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी
सपरिवार वैष्णो देवी की यात्रा पर।

••••

पतंग भी उसी की है

___________________

मैं तो पतंगों को उड़ता
देखकर ही खुश होता था

जिस दिन पिताजी ने कहा था
तुम बहुत अच्छी पतंग उड़ाते हो
चौथी में पढ़ने वाला बच्चा
इतनी अच्छी पतंग नहीं उड़ा सकता !

उस रोज मैं भी आकाश में उड़ रहा था
और मैंने पिताजी से कहा
कि आज रात को मैं आपके खूब पैर दबाऊँगा
फिर पीठ पर भी चढूँगा

दूसरे रोज भी आसमान खुला था
मैं और पतंग दोनों आसमान में थे
दूसरी छतों पर बच्चे कूद रहे थे
उनके पास भी पतंगें थीं
उनका भी आसमान था

हमारे घर के दरवाजे पर एक ट्रक लगा था
और उस समय घर का सारा सामान
उस पर लादा जा रहा था
माँ ने बहुत बाद में बताया कि
उस समय तक पता नहीं था
इसके बाद हमें जाना कहाँ पर है !

वह घर बिक चुका था
जो पिताजी ने पसीने से बनवाया था
इसका मतलब था कि
मैं बिके हुए घर की छत पर पतंग उड़ा रहा था !

माँ ऊपर आई और कहा,
चलो, पतंग को उड़ता छोड़ दो !
अब जिसकी छत है
पतंग भी उसी की है !

••••

पुल

_____________

(गीता के लिए)

कैसा विस्मय भरा दिन रहा होगा, अब सोचता हूँ
जबकि साथ चलने के इस सफ़र के तेइस- चौबीस साल हुए जाते हैं

दिसंबर 98 की वह शाम जब घर की
बस पकड़ने की हड़बड़ी में भरा था
तुम आए उस पुरानी इमारत में
जहाँ मेरा दफ़्तर था

आए थे तुम कुछ संकोच से घिरे
यह कहते हुए कि मेरे पास बैग में कुछ है
और मुझे डर लग रहा है
तुमने अपना बैग मेरी गोद में रख दिया था
तुम्हारी नौकरी के पहले पाँच महीने की तनख्वाह थी वहांँ !

तुम्हारे भीतर कि वह खुशी और किंचित संकोच की याद है मुझे !
मिठाई की दुकान में कोने वाली टेबल में हमने मिठाइयाँ खाई थीं
तुम चाहते थे कि मैं बहुत सारी खा लूँ
एक मिठाई तुमने अपने हाथों से मेरे मुंह में रखी थी
और मैं कैसे शरमा रहा था

फिर तुमने अपनी माँ के लिए एक स्वेटर लिया
एक अपने लिए भी
फिर मुझसे पूछा कि क्या मैं एक स्वेटर आपके लिए ले सकती हूँ ?

फिर न जाने क्यों कहा, पता नहीं किस अतिरेक में कि
अब नौकरी हो गई है, कुछ दिनों के बाद हम कहीं घूमने चलेंगे !

मार्निंग वाॅक के बाद तुम एक सुबह मेरे कमरे में आए
जब मैं रसोई की जुगत में लगा था झुंझलाहट से भरा
तुमने मुझे हटाया और रसोई बनाई

उस रोज कमरे में संगीत आया और जीवन में
बहुत सारी धूप आयी जो सुख देती थी
मैंने वह स्वेटर पहना उस रोज़
तुम्हारी बनाई रसोई का स्वाद लिया और देर शाम तक
उस छोटे से शहर के चक्कर काटता रहा

वह शहर मुझे अच्छा लगा पहली बार
मैं यहाँ रह सकता हूँ, इस ख़्याल में डूबा हुआ
ऑल इंडिया रेडियो पर पुराने गाने सुनता हुआ सो गया

तुम आत्मविश्वास से भरा एक पुल थे
कुछ रोज़ बाद यह जाना
जहाँ से जीवन के नए रास्ते बनते थे
फिर तुमने बताया इस धरती पर बहुत सारी
वनस्पतियों और फूलों के बारे में

वह कविता का नया संसार था
अंजाना अनदेखा अन्चीन्हा और अलक्षित !

पाए अनुभव के नये क्षितिज
तुम्हारे साथ जीवन के नए रास्तों पर

•••••

महानगर में बुजुर्ग

_________________

पौष- माघ के महीने में देर तक धूप, अलाव तापते
गाँवों के बुजुर्गों की स्मृतियाँ हैं।

कंक्रीट के इस जंगल में भी होंगे बुजुर्ग !

महानगरों के अपार्टमेंटों में कैद
घर की बालकनी में उदास उपेक्षित
कहीं दूर देखते हुए
वे दिखते हैं संसार से निर्लिप्त !

उनके जीवन में भी अलाव और बोरसियों के दिन होंगे
जिन्हें वे छोड़ आए गाँवों में, पुरानी जगहों में
उन्हें अब रहना है जीवन के बाक़ी दिनों में अपनी संतानों के साथ

वे ताकते रहते हैं दिनभर छत के नीचे
कॉलोनियों के साफ सुथरे रास्तों को, जो व्यवस्थित हैं
और वे उन्हें और अकेला बना डालते हैं

वे ऊब जाते हैं बैठे-सोते!
धूप जब बालकनी से हटती है और छत पर होती है
वे पुराने दिनों को याद करते हैं
अपनी नौकरी के दिनों को
खेती- किसानी के दिनों को
दिवंगत दोस्तों- रिश्तेदारों को
कुछ अपनों को, जो पता नहीं अब कहाँ होंगे!

जीवन की सुविधाएं उन्हें अब लुभातीं नहीं
उन्हें अब वह पुराना घर ही याद आता है
वह चाहे जैसा भी था –
वहाँ चार लोगों की आमद तो थी !

चाहते हैं कोई उनसे उनके बारे में बात करें
कोई उन्हें सहगल या हेमंत के गीत सुना दे
उनका स्मार्ट फ़ोन उनके पास में पड़ा होता है
जो उनके बच्चे उन्हें देकर किसी
मल्टीनेशनल की चाकरी में गये हुए हैं
जिसमें उनकी दिलचस्पी अब खत्म हो गयी दिखती है।

••••

कोठारी घर

____________

बहुत थोड़े से अनाज रहते थे उसमें
कुछ पुरखों के समय से संजोये कांसे-पीतल के बरतन
डालडा और अमूल के पुराने डब्बे और माँ के
ब्याह के समय के फूलदान, अनाज के कनस्तर,
उपहार में मिला लोहे का नक्काशीदार बक्शा
और थोड़े कबाड़ जिनके मोह से हम
ताजिन्दगी नहीं निकल पाते !

हम कोठारी घर कहते थे उसे
छुटपन से ही देवताओं की कुछ तस्वीरें भी
रखी देखीं हमने
इस तरह से वह पूजा घर भी था
पर हमने उसे कोठारी घर ही कहा उसे

मैं चाहता हूँ –
हमारा बच्चा भी उसे
कोठारी घर ही कहे
माँ के कमरे को दादी का कमरा कहे !

वह कहीं भी रहे
नोनीहाट को अपना घर कहे !

••••

क्या हम सब एक अच्छे पड़ोसी हैं ?

____________________

कुछ लोग हमारे पड़ोसी भी थे
और हम भी थे किसी के पड़ोसी
अब जाकर यह ख्याल आता है !

“पड़ोसियों को कह कर आए हैं
दो-चार दिन घर देख लेना ”
यह वाक्य कहे- सुने अब एक अरसा हुआ है !

एक बच्चे को देखता हूं पड़ोस में
दस- ग्यारह का होगा
पता चला सुकांत का नाती है
सुकांत से मुलाक़ात के बरसों हुए
इंटर में था जब शादी हुई थी उसकी
इस तरह उसका नाना हो जाना लाज़िम था
लेकिन मैं अफ़सोस में था कि
सुकांत के जीवन के बारे में मुझे कितना कम पता था
जो हमारा पड़ोसी था और हमसे तीन क्लास आगे था स्कूल में

पड़ोसियों से उस रिश्ते को याद कीजिए
जब बनी हुई सब्जियां और दाल तक आती थीं
एक – दूसरे घरों में

हथौड़ी कुदाल कुँए से बाल्टी निकालने वाला
लोहे का कांटा, दतुवन, नमक, हल्दी, सलाई
एक दूसरे से ले- देकर लोगों ने निभाया है
लंबे समय तक पड़ोसी होने का धर्म

हालांकि चीजों को दे देते हुए तब भी लोग कुढ़ते बहुत थे
जब कुछ ही दिनों में कोई एक ही चीज
फिर- फिर मांगने आ धमकता था
यह भुनभुनाते हुए कि
“कंजूस है साला !
इतनी छोटी चीज खरीदने में जाने क्या जाता है!”

लेकिन वह रवायत थी और किसी
भरोसे से ही क़ायम रही होगी !

धीरे-धीरे लोगों ने समेटना कब शुरू कर दिया ख़ुद को,
यह ठीक-ठीक याद नहीं आता
अब इन चीज़ों के लिए कोई पड़ोसियों के पास नहीं जाता

याद में शादी ब्याह का वह दौर भी कौतूहल से भर देता है
जब पड़ोसियों से ही नहीं पूरे गांव से
कुर्सियां और लकड़ी की चौकियाँ तक
बारातियों के लिए जुटाई जाती थीं
और लोग सौपते हुए कहते थे-
बस जरा एहितियात से ले जाइएगा!

बस अब इस नयी जीवन शैली में
हमें पड़ोसियों बारे में कुछ पता नहीं होता
कैसी है उनकी दिनचर्या और उनके बच्चे कहां पढ़ते हैं ?
वह स्त्री जो बीमार-सी दिखती है, उसे हुआ क्या है ?
किसके जीवन में क्या चल रहा है ?
कौन कितनी मुश्किलों में है?

आमंत्रण कार्ड आने से पहले नहीं जान पाते कि
लड़की या लड़के की शादी कहाँ तय हुई ?

अपार्टमेंट के किसी फ्लैट में अकेली औरत मर जाती है
एक चर्चित कवि को हो जाता है ब्रेन हेमरेज
और देर से दुनिया को पता चलता है
मृत पाया जाता है कमरे मे दुनिया भर की ख़बर देने वाला
अकेला रह रहा एक पत्रकार
रोज ही आती है आत्महत्या की खबरें अकेले रहते
किसी आदमी या औरत की !

ये सब किसी के पड़ोसी ही रहे होंगे!

हमने एक ऐसी दुनिया रची है
जिसमें खत्म होता जा रहा है हमारा पड़ोस
पार्टियां होती हैं -लोग आते हैं दोस्त आते हैं
पड़ोसी नहीं आते !
उनसे अब ज्यादातर अबोला ही रहता है हमारा !

खिड़कियों से आधी रात आवाज़ देते ही
कोई अगर आज भी भागता हुआ आता है तो
यक़ीन करो वह एक शानदार मनुष्य है
और तुम भाग्यशाली हो कि वह तुम्हारे पड़ोस में है

और मन होता है, जाते- जाते पूछ ही लूँ कि
क्या हमसब एक अच्छे पड़ोसी हैं ?

••••

सहपाठी

______________

वह हमारा सहपाठी था
पर यह बात अब दूसरे सहपाठियों को शायद ही याद हो
नवीं के वे दिन थे जब उसने किसी महीने में स्कूल आना छोड़ दिया

उसके स्कूल छोड़ने को भी नोटिस नहीं किया गया
पिछली बेंच पर छुप-छुपा कर बैठते लजाते गरीब बच्चों की
सुध कौन लेता है सरकारी स्कूलों में?

उसके पिता थोड़ी सूखी शक्ल और हमेशा बढ़ी रहने वाली
खिचड़ी दाढ़ी लिए नोनीहाट के बस स्टॉप पर दिख जाते थे
लकड़ी के कोयले पर पके भूट्टों के लिए गाहक खोजते
बस में बैठी सवारियों को आवाज़ लगाते

एक दिन वह भी दिखा कोयले की आंच तेज़ करता हुआ
उस पर भुट्टे पकाता हुआ
ऐसा करते हुए कुछ महीनों तक वह हमसे नजरें चुराता रहा
वह दूसरी तरफ़ देखने लग जाता था
अपने परिचितों को सामने पाकर
या किसी पेड़ की ओट में खड़ा हो जाता था

कहा नहीं जा सकता कि उसे सहज होने में कितना वक्त लगा होगा!
पर अब हमें देखकर धीमे में से मुस्कुरा देता था
इस तरह उसका लजाना धीरे-धीरे कम हुआ !

भुट्टे का मौसम खत्म हुआ तो देखा
उसके कंधे पर भुनी हुई मूंगफलियों और चने वाला झोला था

धीरे-धीरे हम भूल गए कि वह हमारा सहपाठी भी था
उसके जैसे बच्चों को स्कूल आते- जाते कोई याद नहीं रखता
जैसे वे स्कूल जाते ही ना हो
उनके लिए लक्ष्य करने वाली कोई बात
उनकी भंगिमाओं  दिखाई नहीं देती
उनके कपड़े हवाई चप्पल और प्लास्टिक के झोले में
किताबें यह कभी तस्दीक नहीं करते कि वे स्कूल ही जा रहे हैं
वे काम पर भी जाते हुए लग सकते हैं

वे बच्चे जमीन पर गिरे हुए सूखे पत्ते की तरह होते हैं
हवा धूल मिट्टी में मिलकर बिला जाने वाले!

एक ही टोले में घर था हमारा
साथ खेलते बच्चों की स्मृति है
पर उसकी नहीं है !

पिछले दिनों उसका घर दिखा मुझे
एकदम जीर्ण-शीर्ण अवस्था में
अब वहां कोई नहीं रहता
एक बड़ा भाई था उसका
देहात की जमीन संभालने वह उसी ओर लौट गया
पिता के न रहने पर
एक युवा बहन थी जो लंबी उम्र पार कर अनब्याही थी
पता नहीं, फिर  क्या हुआ उसका !

मां अस्थमा की मरीज थी
बेदम कर देने वाली खांसी की आवाजें
बाहर तक आती थीं
बस अड्डे पर पके भुट्टे बेचने वाला उसका बाप
एक बार अस्पताल गया और वहीं मर गया

उसका घर किसी ने खरीदा नहीं है
जबकि वह उस जगह पर है जहां उसकी
अच्छी कीमत मिल सकती है

नोनीहाट गया हूं तो एक -दो बार वह मुझे दिखा है
कई जगह से दरक और ढ़ह गये अपने उस घर के
पाँच फीट चौड़े उस बरामदे पर फैले मलबे के बीच बैठा हुआ
जैसे यह कह रहा हो-
यह मेरा ही है
मैं अभी जीवित हूं और यह मेरा घर है!

इस घर को याद करता हूं
सामने से गुजरने पर मूंगफली या चने के भुने जाने की
सुवासित गंध बाहर आती थी
वह उसी खुले बरामदे पर बैठा एकदम सुबह-सुबह
मूंगफली और चने की छोटी- बड़ी  पुड़िया बांधता
दिख जाता था अपने भाई- बहन के साथ

सब की कहानियां थोड़ी-बहुत बदल जाती हैं-
थोड़ी बहुत ही सही !
पर वह वहीं खड़ा मिला !
उसके लिए सुख का कोई रास्ता
जैसे बना ही नहीं था जीवन में!

वह पचास साल का हो गया है
उसे कोई लड़की नहीं मिली विवाह के लिए
इधर कुछ सालों पहले उसके पैरों में एक गहरा घाव हो गया है
जो अब तक ठीक नहीं हुआ है
वह कहता है कि भागलपुर तक डॉक्टर को दिखाया
मगर कोई फायदा नहीं हुआ!

नोनीहाट में दिख जाने पर
हंसते हुए इशारे से पूछता है मेरा हाल
और दूसरी तरफ देखने लग जाता है

उसे किसी भोज में न भी बुलाओ तो वह चला आता है
और अपनी पत्तल लिए कहीं किनारे बैठ कर खा लेता है
या चुपचाप लेकर चला जाता है

इधर के गाँव-कस्बे में अभी इतनी मनुष्यता बची हुई है
कि कोई उसे दूरदूराता नहीं है
हमारे बीच का ही है वह
इतना याद रखा है लोगों ने

सोचता हूं घटती जाती सामाजिकता के बीच
यह भी क्या कम है !

किसी के मरने की खबर पाते ही
वह सब कुछ छोड़-छाड़ कर शवयात्रा में शामिल हो जाता था
यह उन दिनों की बात है
जब उसके पैर में घाव नहीं हुआ था और वह स्वस्थ था

मूंगफली या चने के भूने जाने की गंध
आज जब भी मुझ तक आती है
मुझे उसकी याद हो आती है
और उस धर की याद भी
जब वह अपने भाई बहनों और
माता-पिता के साथ वहाँ रहता था

उसका नाम रमेश था!
अच्छा वाला नाम!
अब ऐसे सब उसे ‘लिट्टी’कहते थे
पर यकीन मानिए मैंने उसे कभी ‘लिट्टी’ नहीं कहा
आज इस कविता में भी क्यों कर कहूंगा भला!

“लिट्टी- चोखे” जैसा किसी मनुष्य का नाम
अपमानजनक तो है ही
पर उसने कभी इसका बुरा नहीं माना
वह इसी नाम से पहचाना जाता है अब कस्बे में

हीनता बोध के बीच जी रहे लोगों में
यह बोध भी नहीं होता कि वह मना ही कर दें
कि यह सब मत कहिए
मेरा नाम ‘लिट्टी’ नहीं ‘रमेश’ है!

जब आप मेरे गांव- कस्बे से होकर गुजरें
और कोई बस की खिड़कियों के पास
गरम पके भुट्टों, मूंगफली या चने के लिए आवाज़ लगाता
थोड़ा चपटा चेहरे वाला, बालों में खूब सरसों का तेल चुपड़े,
खूंटी  दाढ़ी लिए कोई दिख जाए

और बहुत संभव है कि उसके पास
कोई छड़ी हो सहारे के लिए
समझ लीजिएगा –
वह हमारा सहपाठी रमेश ही है!
••••

साइकिल के दिन

________________

कोई मीठी सी पुलक जागती है
साइकिल के दिन पीछा करते हैं
एक पंचर बनाने वाले का चेहरा
साथ चलता आता है

स्कूल में गुलमोहर के नीचे खड़ी
सैकड़ों साइकिलों की याद तो
होगी तुम्हें !

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