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मुल्क तो बंटा, लोग भी बंट गये। वो एक लोग थे। अब दो लोग हो गये। 

गुलजार साहब ने उर्दू में एक उपन्यास लिखा. पहले वह अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ ‘टू’ नाम से. कुछ महीने बाद हिंदी में ‘दो लोग’ नाम से प्रकाशित हुआ. उर्दू में अभी तक प्रकाशित हुआ है या नहीं, पता नहीं. इसे पढ़ते हुए एक किस्सा याद आ गया. एक बड़े लेखक(जो उस समय युवा थे) ने एक उपन्यास लिखा और एक दूसरे बड़े लेखक के पास दिखाने के लिए गए. उस उपन्यास का नाम लेखक ने ‘दो’ रखा था. बड़े लेखक ने उपन्यास के पन्नों को उलटा-पुलटा और लेखक को वापस देते हुए कहा- उपन्यास तो अच्छा है, बस इसका नाम थोड़ा बड़ा है. इसका नाम ‘एक’ कर लो. बहरहाल, गुलजार साहब के उपन्यास ‘दो लोग’ की एक सम्यक समीक्षा पढ़िए. लिखा है कवयित्री स्मिता सिन्हा ने- मॉडरेटर
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” कैम्बलपुर जैसे खाली हो चुका था । सहमे सहमे मास्टर करम सिंह कमरे में दाखिल हुए तो एकदम सांस रुक गयी। बिस्तर पर बीवी आँखें खोले मरी पड़ी थी… मुंह से नीले थूथे की झाग बहते बहते तकिये पर सूख गयी थी। दिल मसोस कर वहीं बैठ गये। न पास गये। न छुआ उसे। न उसकी आँखें बंद कीं। अजीब सा एक चैन आ गया। दास्तान पूरी हो गयी …। “

        हाँ, दास्तान पूरी हो गयी। दास्तान ऐसी जिसने जिंदा आंखों को क़ब्रों में तब्दील कर दिया। दास्तान ऐसी जिसने दोस्तों को दुश्मन और दिलों को पत्थर बना दिया। दास्तान ऐसी जिसकी छटपटाहट और खौफ़ को हम जीते आ रहे हैं गुलज़ार , मंटो या कि भीष्म साहनी के कथन व पुनर्कथन में।
          1946 की सर्दियां थीं। विभाजन की ख़बर फैलने के बाद रात के अंधेरे में ‘ कैम्बलपुर ‘ से एक ट्रक निकलता है। इसमें वे लोग हैं जो अब तक यह समझने में लगे हैं कि कैसे एक लाइन खींच देने से इनका मुल्क बदल गया ! मुल्क तो बंटा, लोग भी बंट गये। वो एक लोग थे। अब दो लोग हो गये।
         गुलज़ार का पहला उपन्यास ” दो लोग ” इस ट्रक में बैठे इन्हीं लोगों के जीवन को रेखांकित करता है। यह लोग 1946 से लेकर कारगिल तक मिलते हैं और ढूंढ़ते रहते हैं एक जगह जिसे वे घर कह सकें। कैम्बलपुर से चलते वक्त उन्हें यह कहां पता था कि वे ताउम्र सफ़र में ही रहेंगे। ” दो लोग “विभाजन की त्रासदी के बारे में है, जिसने जाने कितनी ज़िंदगियों को हादसों में बदल दिया। त्रासदी भी ऐसी कि इधर आज़ादी की बेला आने को है और उधर ब्रिटिश नक्शानवीस विभाजित होने वाले दो देशों , भारत व पाकिस्तान की हदें उकेरने में बेहद मशगूल थे। जो एक अटूट था, वह टूटकर दो ऐसा मुल्क बना, जिनके बीच का फासला फिर कभी पाटा न जा सका। करोड़ों लोग बेघरबार हुए। एक अनुमान के मुताबिक़ विभाजन की खूनी वहशियत ने क़रीब दो करोड़ जाने लील लीं।
          कुछ तारीखें कभी ख़त्म नहीं होतीं। वे हमारा हाथ थामे सदियों तक लगातार चलती रहती हैं, अपने बेशुमार ज़ख्मों के साथ। ” दो लोग ” ऐसी ही काली तारीखों का एक कोलाज़ है। मेरे लिये इस किताब को पढ़ना चारों ओर बिखरी हुई नफ़रत और दरिंदगी के तमाम रूपकों के बीच से होकर गुज़रना था। और यही वजह थी कि जब मैं अंदर तक भर जाती तो वहीं उसी जगह, उसी वक्त किताब को पढ़ना बंद कर देती। मुश्किल था मेरे लिये एक लगातार इसके किरदारों का सामना करना। मैं रुकती, ठहरती, देर तक शांत, बिल्कुल चुपचाप बैठी रहती और धीमे धीमे कुछ उतरता रहता मेरे भीतर, कहीं गहरे तक। हर बीतते पन्ने के साथ एक टीस, एक छ्टपटाहट, एक बेबसी और बस एक ही सवाल … क्या बंटवारा इतना ज़रूरी था ? ?
       लगता कभी कि यहीं मेरे बिल्कुल क़रीब मोनी अपने बेटे को टकटकी लगाये देखते हुए कह रही है, “सोनी देख – इसकी शकल उसी पर गयी है। बिल्कुल वही नहीं लगता जो रोज हमारे साथ बलात्कार किया करता था ? “
” पागल है तू …हट यहाँ से। “और सोनी लौकी को उठाकर बाहर ले गयी।
और फिर एक दिन कुएं में लौकी की लाश मिली।
“मोनी तुझे मालूम है तूने क्या किया है? “
” हाँ ! कैम्बलपुर में उसने इतने हिन्दू मारे थे। मैने एक छोटा सा मुसलमान मार दिया तो क्या हुआ ? ? “
      और फिर एकदम से अवाक हो जाती,  जब दिखता मुनिरका की तरफ़ एक सिख को घसीटता हुआ हुजूम। बिजली के खम्भे से बांधता हुआ। उसके गले में टायर डालकर आग लगाता हुआ हुजूम। और अब हर तरफ़ गाढ़ा काला उठता हुआ धुंआ। डिफेंस कॉलोनी तक गूंजता हुआ शोर। और और ……फिर एक सन्नाटा। ओह ! तो क्या दिल्ली हमेशा से ही पागल थी।
   मास्टर फ़ज़लदीन कहा करते,” लाखों मगरूर तवारीख के पांव तले पिस गये। जिनके ज़ख्म भरने में दहाईयां गुज़र गयीं। सदियाँ मुन्तज़िर थी। “
       यह सब वक्ती सच्चाई की बानगी है। इसमें कहीं कुछ गल्प नहीं। इतिहास ने लोगों के दिल और दिमाग पर ऐसे नासूर दिये जिन्हें शब्दों में बयाँ करना नामुमकिन है। लेकिन यह गुलज़ार साहब के लेखन की सबसे बड़ी ख़ासियत है कि वे हमारे दिलों से होकर अपने सफ़्हों के लिये रास्ता बनाना बख़ूबी जानते हैं। हालांकि “दो लोग ” के नॉवेल या नॉवेला होने पर लोगों ने कई सवाल भी उठाये। लेकिन इसकी भूमिका को पढक़र यह स्पष्ट हो जाता है कि शब्दों की संख्या के आधार पर किसी रचना को श्रेणी विशेष में बांटना उचित नहीं। ख़ासकर “दो लोग” जो एक उपन्यास के सभी जरूरी मानकों पर खरी उतरती हो। एक पटकथा का फ़ैलाव, शब्दों की सघनता और किरदारों की बुनावट जो इस किताब में देखने को मिलती है, वह गैर मामूली है। अपने किरदारों के कहन, कथन, उनकी ठसक और बोली,  हर एक बात में गुलज़ार लाज़वाब बन पड़े हैं।
      गुलज़ार कहते हैं, ” इस किताब को लिखने के पीछे मेरा मकसद सिर्फ़ इतना था कि जो मेरे अंदर इतना कुछ जमा है, उसे इसके बाद ना लिखना पड़े। इसके बाद मैं पार्टीशन भूल जाऊं। दफ़न कर दूँ इस बात को कहीं न कहीं, क्योंकि यह इतिहास हो चुका है। “
         खैर! एक ऐसा किरदार जो बँटवारे से होता हुआ कारगिल तक पहुंचा। फौजी, चलता रहा लगातार। बेशुमार दिन। बेशुमार रातें। घूमते -घूमते पचास साल कश्मीर की पगडंडियों पर गुज़ार दिये। उसके भी दो हिस्से हो गये। उफ़्फ़! ये बँटवारे थमते ही नहीं। उसे अब तक पता ही नहीं वो किस तरफ़ है ?
उपन्यास हार्पर कॉलिन्स से प्रकाशित है 
 
      

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