आज भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े लेखक-शायर अहमद नदीम क़ासमी की जयंती है। जब छोटा था तो टीवी पर किसी मुशायरे की रेकार्डिंग आ रही थी तो उसमें वह भी सुना रहे थे। उनका एक शेर आज तक याद रह गया- ‘सुबह होते ही निकल पड़ते हैं बाज़ार में लोग/गठरियाँ सर में उठाए हुए ईमानों की’। ख़ैर, आज शायर, पुलिस अधिकारी सुहैब अहमद फ़ारूक़ी का लिखा यह लेख पढ़िए, जो क़ासमी साहब की कहानियों पर है-
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हज़रात! मार्च 2013 में, रवि पाकेट बुक्स, 33, हरी नगर, मेरठ-250002, उत्तर प्रदेश फोन 0121-2531011, 2521067 ने ‘पाकिस्तान के मशहूर लेखक अहमद नदीम क़ासमी की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ’ नाम से एक पुस्तक प्रकाशित की थी। इस किताब में क़ासमी साहब के ग्यारह चुनिन्दा अफ़सानों को शामिल किया गया था। पुस्तक की भूमिका ‘ख़ाकसार’ ने लिखी थी। आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है।
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अहमद नदीम क़ासमी : भारतीय उपमहाद्वीप का सरमाया
बंटवारे से हिन्दुस्तानी अदबी दुनिया को दो बड़े नुक़सान हुए। पहला उर्दू ज़ुबान को एक धर्म-विशेष की ‘भाषा’ बना देना व दूसरा यह कि साहित्यकारों को सियासत द्वारा रातों-रात बिना उनकी मर्ज़ी से पाकिस्तानी अदीबों और भारतीय साहित्यकारों में बाँट देना। इसका दायमी नुक़सान यह हुआ कि मेरी पीढ़ी जो कि आज़ादी के बाद की दूसरी है को, ज़बरन प्रायद्वीप के उर्दू साहित्यकारों को ‘यहाँ’ और ‘वहाँ’ के अदीबों में बाँट व समझ कर ही उर्दू साहित्य को पढ़ना पढ़ा। अहमद नदीम क़ासमी का शुमार ऐसे ही अदीबों में करना पड़ता है जो पैदा तो ‘हिन्द’ में हुए लेकिन वक़्त के हाथों पाकिस्तानी बना दिए गए….. ख़ैर इस नाम से वाक़फ़ियत सन 1989 ई. में जब हुई जब कि मैं ‘जामिया उर्दू बोर्ड, अलीगढ़’ द्वारा संचालित ‘अदीब-ए-कामिल’ परीक्षा में बैठा था। बैठा यूँ कि मैं वैसे तो विज्ञान का छात्र रहा हूँ मगर साहित्य की ओर थोड़ा बहुत रुझान शुरू से ही था। इसी रुझान को बाक़ायदगी से परवान चढ़ाने के लिए उर्दू अदबी दुनिया से हम-आहंगी इसी परीक्षा के दौरान हुई थी।
“कौन कहता है कि मौत आएगी तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूं, समन्दर में उतर जाऊँगा
हर तरफ़ धुंद है, जुगनू न चिराग़,
कौन पहचानेगा बस्ती में अगर जाऊँगा
फूल रह जायेंगे गुलदानों में यादों की नज़र
मैं तो खुशबू हूँ फिज़ाओं में बिखर जाऊँगा
चारासाज़ों से अलग है मेरा मेयार कि मैं
ज़ख्म खाऊँगा तो कुछ और संवर जाऊँगा
ज़िन्दगी शम्मा की मानिंद जलाता हूं ‘नदीम’
बुझ तो जाऊँगा मगर, सुबह तो कर जाऊँगा”
‘अदीब-ए-कामिल’ इम्तिहान की तैय्यारी के दौरान नज़रों से गुज़रे ‘क़ासमी’ साहब के उपरोक्त अश’आर जवानी के उस नए-नए आलम में ऐसे जिस्म-ओ-ज़ेहन में उतर कर छाये कि अब भी कभी जब इनसे सामना होता है वही कैफ़ियत नौखेज़ जवानी के सरूर की तारी हो जाती है। उन्हीं दिनों दुबई में कार्यरत एक इंजीनियर चचा पाकिस्तान से प्रकाशित “किरन’ लाये थे उसमें क़ासमी साहब का अफसाना “रईस-ख़ाना” पढ़ा….. मरियां का अप्रत्याशित क्लाईमेक्स अभी तक याद आकर रोंगटे खड़े कर देता है… अप्रत्याशित अंत सिर्फ क़ासमी साहब के ही सामाजिक अफ़सानों में मिल सकता है।
अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत में ज़िला ख़ुशाब के एक छोटे से गाँव ‘अंगा’ में बीस नवम्बर 1916 ई. को पैदा होने वाले क़ासमी साहब का अदबी सफ़र उस वक़्त शुरू हुआ जब हिन्दुस्तान में उर्दू साहित्य का ‘प्रगतिशील आन्दोलन’ अभी शैशवावस्था में ही था और परिपक्वता से हम किनार होने के लिए तत्कालीन साहित्यकारों का एक बड़ा ग्रुप ‘विचार’ व ‘क्रियाशीलता’ के दौर से गुज़र ही रहा था, चाहे वह दुखों को सीने से लगाने वाला कवि ‘फ़ैज़’ रहा हो या फिर पूंजीवाद के चिर-विरोधी क़लम के सिपाही प्रेमचन्द हों, प्रगतिशील विचार से ‘हर कोई’ बच रहा था। ऐसे वक़्त में क़ासमी साहब ने ख़ुद अपनी ज़िम्मेदारी और ख़्वाजा अहमद अब्बास , मुईन अहमद जज़्बी, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ , अली सरदार जाफ़री, मजरूह सुल्तानपुरी और सज्जाद ज़हीर जैसे नक़ीबों (ADJUTANTS ) के सहयोग से इस ‘विचार’ को “आन्दोलन” में परिणित किया।
क़ासमी साहब ने अपनी पूरी ज़िन्दगी अदब के लिए वक़्फ़ कर दी थी, साहित्य की प्रत्येक विधा ग़ज़ल, नज़्म, ड्रामा, स्तम्भ-लेखन, फिल्मकथा-लेखन, डायलौग-लेखन में उनका दख़ल रहा है। बस ‘नावल’ ही उनकी क़लम से न जाने कैसे बच पाया था। अपने लम्बे साहित्यक जीवन में क़ासमी साहब ने पचास के लगभग किताबें लिखी है। 1975 ई. में उनकी कहानी ‘गंडासा’ पर हसन अस्करी ने एक फिल्म “वहशी जट्ट” के नाम से बनायी थी जिसने पाकिस्तानी पंजाबी फिल्मों का स्टाईल ही बदल कर रख दिया था। सभी साहित्यिक विधाओं पर कमाल हासिल होने के साथ-साथ क़ासमी साहब ने एक कामयाब सम्पादक के तौर पर भी ख्याति अर्जित की। ‘अदब-लतीफ़’, ‘सवेरा’, ‘फ़नून’, ‘इमरोज़’ आदि पत्र-पत्रिकाओं उनके संपादन में अदबी बुलंदियों तक पहुंची। इसके अलावा क़ासमी साहब स्तम्भ-लेखन भी करते रहे।
अहमद नदीम क़ासमी उर्दू अदबी दुनिया का वह अप्रतिम नाम है जो सीमाओं की परिधि में न बंध सका एवं उनकी बड़ाई के समक्ष नतमस्तक होते हुए तमाम उर्दू बिरादरी ने उनकी महत्ता स्वीकारी बल्कि यूँ कहें कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में उनकी हैसियत एक सुदृढ़ कवि, वरिष्ठ साहित्यकार और बेबाक पत्रकार के रूप में मानी गयी वरना शीत-युद्ध के जैसा वातावरण जो इस समय ‘साहित्य’ और ‘पत्रकारिता’ के बीच पैदा हो चला है कि मजबूरन क़लमकारों को इन दोनों विभागों से किसी एक ही को अपने लेखन के लिए चुनना पड़ता है।
इस संकलन में शामिल अफ़साना ‘चोरी’ का नायक “मंगू” आज भी कॉमन-मेन के रूप में प्रासांगिक है, जिसको अपनी सत्यता साबित करने के लिए सिर्फ भाग्य और ऊपरवाले के सहारे रहना पड़ता है, उस से बेगार कराने वाला ग्राम-मुखिया, थाने का अमला यहाँ तक कि धर्म के ध्वजवाहक ‘इमाम-साहब’ भी मुसीबत की घड़ी में उसका साथ नहीं देते।
क़ासमी साहब के इस शे’र के साथ बात अपनी, अंजाम तक लाता हूँ–
वो एक बार मरे, जिनको था हयात से प्यार,
जो ज़िन्दगी से गुरेज़ाँ थे, रोज़ मरते थे.
सुहैब अहमद फ़ारूक़ी
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