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पटना ब्लूज’ में बिहार की वर्तमान राजनीति की पृष्ठभूमि है

अब्दुल्ला खान का उपन्यास ‘पटना ब्लूज’ मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ लेकिन इस उपन्यास को दो साल के अंदर सभी भारतीय भाषाओं ने अपनाया है। यह हाल के वर्षों में सबसे अधिक भाषाओं में अनूदित होने वाला उपन्यास बन गया है। इस उपन्यास पर एक टिप्पणी लिखी है कुमारी रोहिणी ने। कुमारी रोहिणी कोरियन भाषा पढ़ाती हैं-

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पिछले कुछ महीने में “लॉकडाउन” “प्रेम” के बाद दुनिया का दूसरा सबसे ज़्यादा दोहराया जाने वाला शब्द हो गया है शायद। कोरोना ने होमो सेपियंस को कहीं न कहीं नीयंडरथल बना दिया है। पिछले दिनों के पर्यावरणीय घटनाक्रम की ख़बरें देखें और पढ़ें तो ऐसा लगता है कि पूरी पृथ्वी एक साथ एक ऐसी छुट्टी पर चली गई है जिसकी उसे नितांत आवश्यकता थी। हो भी क्यों न हम होमोसेपियंस ने इस धरती के साथ जो अत्याचार किए हैं उसकी कोई सीमा भी तो नहीं है। एक तरफ़ जहाँ जलवायु और प्रकृति अपने स्वास्थ्य लाभ पर है वहीं हम मानव को भी रुककर थोड़ा सोचने, समझने और अपने मन का करने का समय मिल गया है।

औरों की तरह मेरा भी मानना है कि जब कुछ न करने का मन करे तो किताबें पढ़नी चाहिए, वह आपको कभी निराश नहीं करती हैं। और निराशा के इस दौर में मैंने भी वही किया। इस लाक्डाउन में घर का काम करने (जो सभी कर रहे हैं) के बाद जो काम मैंने सबसे ज़्यादा किया है वह किताबें पढ़ने का काम है। पिछले दिनों पढ़ी गई किताबों में एक किताब है “पटना ब्लूज”।

मूलत: अंग्रेज़ी में लिखी गई अब्दुल्लाह खान की लिखी किताब “पटना ब्लूज” अपने विषय और कई भाषाओं में हुए अपने अनुवाद के कारण पिछले दिनों चर्चा में रही।

इस किताब की तरफ़ आकर्षित होने का मुख्य कारण इसका टाइटल था। “पटना ब्लूज” नाम का यह शीर्षक पटना से जुड़े हुए किसी इंसान को एक़बारगी अपनी तरफ़ बिलकुल उसी तरह खींचता है जैसे चुम्बक लोहे को।

पटना ब्लूज की कहानी मुस्लिम परिवेश वाले एक परिवार की कहानी है जिसका मुख्य पात्र आरिफ़ नाम का एक लड़का है जो अभी-अभी युवा हुआ है। हर आम मध्यमवर्गीय परिवार के लड़के की तरह उसका सपना भी प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षा में पास होना और आईएएस बनना है लेकिन कई बार इंटरव्यू तक पहुँचने के बावजूद भी उसकी क़िस्मत साथ नहीं देती ही और वह आईएएस बन नहीं पाता है और कई सालों के प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी के बाद एक सरकारी विभाग में उर्दू अनुवादक के रूप में नौकरी पाता है। उसके पिता एक ईमानदार पुलिसकर्मी हैं जिसकी वजह से उन्हें अपने दफ़्तर में ईमानदारी और भ्रष्टाचार के बीच की लड़ाई लगातार लड़नी पड़ती है। उसका एक छोटा भाई है जिसे अभिनय का शौक़ है और अपने इसी शौक़ को पूरा करने के लिए वह मुंबई तक जाता है लेकिन जल्द ही असलियत का सामना करके वापस अपने शहर आ जाता है। घर में माँ, दादी के अलावा तीन छोटी बहनें हैं और समय-समय पर दहेज और शादी के ख़र्च की चिंता और इंतज़ाम के बीच उनकी शादियाँ निबटाई जाती हैं।

निजी और पारिवारिक जीवन के साथ साथ करीयर में एक मुक़ाम पर पहुँचने के जद्दोजहद की इस कहानी में कहीं कहीं प्रेम का छिड़काव भी है लेकिन आरिफ़ का प्रेम कभी भी उसकी ज़िम्मेदारी या उसकी पढ़ाई पर हावी होता नहीं दिखता है। एक शादीशुदा औरत के प्रेम में पड़ने के बाद भी वह हर जगह दिल और दिमाग़ के बीच जूझता दिखता है जहाँ उसका दिमाग़ और विवेक उसके दिल और भावनाओं से ऊँचे साबित होते हैं और वह हर बार समाज के द्वारा तय नियमों और मानकों पर खरा उतरता है। हालाँकि मुझे पढ़ते हुए यह बात थोड़ी खली लेकिन इसे लेखक का एकाधिकार मानते हुए आगे बढ़ा जा सकता है।

कहानी को एकबारगी पढ़ने पर आप कह सकते हैं कि इसमें ऐसा कुछ ख़ास नहीं है जो पहले ना लिखा गया हो या पढ़ गया हो लेकिन साथ ही यह आपको ख़ुद को छोड़ने भी नहीं देती है। आरिफ़ के व्यक्तिगत और पारिवारिक उथल-पुथल के साथ साथ लेखक ने इस उपन्यास में 1980-2005 के बीच के राजनीतिक परिवेश को भी बहुत बेहतर तरीक़े से दर्शाया है। बाबरी मस्जिद, दिल्ली के बम धमाके, पशुपालन घोटाला, लालू यादव के कार्यकाल के दौरान यादव- मुस्लिम गठजोड़ (MY equation), पुलिस विभाग की कमियाँ, फेंक एंकाउंटर के किससे, चुनावों में हुए समय-समय पर बिहार और अन्य क्षेत्रों में होने वाले हिंदू-मुस्लिम दंगे और ऐसे कई महत्वपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक घटनों को लेखक ने बड़ी ही सहजता से इस तरह आरिफ़ के जीवन की घटनाओं के साथ जोड़कर व्यक्त किया है कि कहीं पर कहानी न तो बझिल होती है और ना ही कहीं ऐसा लगता है कि आप सामान्य ज्ञान या समकालीन इतिहास की कोई किताब पढ़ रहे हैं। इन सबके अतिरिक्त लेखक ने इस्लाम और मुसलमान समाज की एक मौलिक रेखाचित्र भी खींचा है। ग़ैर-इस्लामी समाज में इस्लाम को लेकर कई ऐसी धारणाएँ हैं जो इस किताब को पढ़ने के बाद टूट सकती हैं या फिर यूँ कहें कि इस्लाम के बारे में कुछ मौलिक जानकारियाँ हासिल करने के लिए यह उपन्यास एक अच्छा रेफ़्रेंस पोईंट हो सकता है। जिसकी मदद से बिना बोझिल हुए आम जानकारियाँ मिल सकती हैं।

हालाँकि कहानी कहीं कहीं पर थोड़ी खिंचती हुई महसूस होती है लेकिन अगले ही पल लेखक नया एंगल ले आने में सफल हो जाता जाता है और कहानी की बोरियत ख़त्म हो जाती है।

भाषा के स्तर पर भी यह किताब खरी उतरती है। पूरे उपन्यास में टाइपो मुश्किल से दो या तीन जगह ही मिलते हैं। कोलोकियल भाषा और प्रिंट की न के बराबर की ग़लतियाँ किताब को और अधिक पठनीय बनाती है। लगभग 290 पन्नों वाली यह किताब हाल के दिनों में एक मध्यमवर्गीय परिवार और उसके युवाओं के जीवन और संघर्ष पर आधारित लिखी गई अपनी तरह की एकमात्र किताब है। इस किताब को और अलग यह बात बनाती है कि इसकी पृष्ठभूमि में मुस्लिम परिवार है।

मंजुल प्रकाशन से प्रकाशित यह किताब देश के वर्तमान राजनीतिक माहौल के कारण भी पढ़ने लायक लगती है। हालाँकि कहानी आज से बीस साल पहले की है लेकिन पढ़ते हुए टाइमफ़्रेम का इस कहानी पर असर न के बराबर महसूस होता है।

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5 comments

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