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शहादत के कहानी संग्रह ‘आधे सफर का हमसफ़र’ की समीक्षा

युवा लेखक शहादत का कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ है ‘आधे सफर का हमसफ़र’। हिंद युग्म से प्रकाशित इस कहानी संग्रह की समीक्षा पढ़िए, लिखी है मोहम्मद अब्दुल शरीफ़ ने, जो अजमेर में रहते हैं-

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युवा लेखक शहादत का कहानी संग्रह ‘आधे सफ़र का हमसफ़र’ एक अद्भुत, कल्पना पर आधारित और हमारे समाज के परिदृश्य की सभी तरह की वास्तविकताओं को पूरी सच्चाई और ईमानदारी से उजागर करने वाला संग्रह है। संग्रह की कुछ कहानियां इतनी बेबाक और बोल्ड हैं कि एक बार को तो पढ़ने पर यकीन ही नहीं होता कि आज के सामाजिक और राजनीतिक जैसे दमघोंटू समाज में कोई लेखक इतनी बेबाकी से भी अपनी कलम चला सकता है।

संग्रह में कुल 14 कहानियां है। हर कहानी अपने कवेलर और विषय में अलग घटना और कथ्य को बयान करती है। संग्रह की अधिकतर कहानियां मुस्लिम समाज से संबंधित है। इसका कारण शायद यह है कि लेखक खुद मुस्लिम समाज से ताल्लुक रखता है तो उसने वही लिखा, जो जिया है। इसके बावजूद संग्रह की कहानियां समाज में लड़कियों की स्थिति, सांप्रदायिक उन्माद, धर्म और सामाज का शोषणवादी गठजोड़, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में अल्पसंख्यकों की हालात और समलैंगिक प्रेम जैसे विषयों को उठाती हैं।

संग्रह की सबसे पहली कहानी है ‘अल्लाह बेटियां न दे’। इस कहानी में एक मुस्लिम परिवार को चरितार्थ किया गया है। कहानी शुरू होती हैं ‘पूत पड़ोसी और धी पराई से’ वाक्य से। जहां छः भाई-बहनों के परिवार को दर्शाया गया हैं। इसमें चार बहने हैं, जिनके प्रति उनकी मां की समझ बस इतनी हैं कि उनका पैदा होना ही इस परिवार के लिए संकट हैं। चारों बेटियों परिवार पर बोझ हैं। बेटों की चाहत में ही चार बेटियां पैदा हुई हैं। मां उन्हें कोसती रहती हैं, गालियां देती हैं और हमेशा धिक्कारती है। उन्होंने बेटों को तो पढ़ने भेजा परंतु बेटियों को सिर्फ़ दीनी तालिम यानी कुरान पढ़ने के लिए भेजा, जो अक्सर वे सुबह फ़जर की नमाज़ के समय पढ़ा करती हैं। इसके बावजूद लड़कियों ने पूरा घर संभाला हुआ है और वे मां को किसी काम को हाथ नहीं लगाने देती। फिर मां को बेटियां तुच्छ और कोई बेकार की वस्तु लगती है। जिनकी शादियां एक अर्थिक संकट के सिवा कुछ नहीं है।

कहानी के आखिर में पता चलता हैं कि ये सब चीज़े तब तक थी जब तक कि यह परिवार गरीब था। सऊदी अरब से जब उनके अब्बू खूब सारा धन कमाकर लौटते हैं तो परिस्थितिया बदल जाती हैं। उन्हीं बेटियों की वही मां धूमधाम से उनकी शादी करती हैं। बेटियां ससुराल चली जाती है। बेटियों के ससुराल जाने के बाद जब मां को रमजान में सहरी के लिए सुबह तीन बजे उठकर खाना बनाने के लिए रसोई में जाना पड़ता है तो उसे घर में बेटियों की अहमियत को पता चलता है और वह अपनी बेटियों याद करके फूट-फूटकर रोने लगती हैं। बेटियों को लंबी उम्र की दुआएं देती हैं। उस समय उनके दोनों बेटे बिस्तर में सो रहे होते हैं।

‘15 दिसम्बर, 2019 की बात’ कहानी आज के परिदृश्य में सच्चाई के इर्द-गिर्द घूमती हैं। कुछ राजनीतिक पार्टियां इस कहानी में बताई घटना के अनुरूप ही व्यवहार कर रही हैं। यही पार्टी जब सत्ता में आ जाती हैं तो अपने पावर का इस्तेमाल जो लोग उनका वोट बैंक नहीं होते या फिर उस जाति, धर्म या वर्ग को देशविरोधी गतिविधियों में लिप्त बताकर अन्य बहुसंख्यक जाति, वर्ग, धर्म समुदाय के लोगों मे डर पैदा कर वोट बैंक साधते रहते हैं। यह कहानी वास्तव में कानून का गलत ढंग से प्रयोग करने वालों पर सवाल खड़ा करती हैं।

हालांकि मेरा अनुभव हैं कि शहादत नें अपने ही धर्म से ताल्लुकात रखने वाले लोगों पर होने वाली ज्यादती और कानून के गलत इस्तेमाल को लेकर सवाल उठाएं हैं। व्यापक दृष्टि से देखा जाए तो बहुत बड़े लेवल पर ऐसा हो रहा है। कानून का गलत इस्तेमाल हमेशा गरीब, दबे-कुचले वर्ग या राजनीतिक पहुंच न रखने वाले हर उस व्यक्ति पर किया जाता हैं जो सवाल खड़े करता हैं या सच्चाई के लिए लड़ता हैं। चाहे वह व्यक्ति किसी भी वर्ग, संप्रदाय या धर्म से ताल्लुकात रखता हों।

‘गुलिस्तां’ (मेरे अनुसार इस कहानी को खासतौर से मुस्लिम वर्ग के लोगों को तो पढ़ना ही चाहिए) कहानी धर्म के ठेकेदारों और मुसलमानों के झूठे पैरोकारों मुल्लाओ, उलेमाओं पर सवाल खड़े करती है, जिन्होनें चंद राजनीतिक और धार्मिक पदों के स्वार्थ के वशीभूत होकर कुरान की और उसकी पाक आयतों की गलत व्याख्या की।

इस कहानी में इस्लाम को मानने वाले अधिकतर लोग जिन्हें कुरान का तर्जुमा या व्याख्या करना नहीं आता हैं, उसके शिकार होते चले गए। शिकार होने वाले लोगों में सबसे ज्यादा प्रभावित आधी आबादी हुई। इससे समाज में उनकी स्थिति और दयनीय होती चली गई। कहानी में तीन तलाक और हलाला का ज़िक्र इस तरह किया गया है कि कहानी अपने अंत तक इतनी मार्मिक हो जाती है कि इसने मेरी आंखों में भी आंसू ला दिए। इस कहानी के बारे में बस इतना ही कहा सकता हूं कि एक इस्लाम को मानने वाले लोगों ने एक सामान्य-सी औरत को वेश्या बना दिया।

‘रहबर-ए-दिन’ कहानी किस तरह धार्मिक संगठनों द्वारा युवाओं का ब्रेन वॉश किया जाता, उस और ध्यानाकर्षण करती हैं। साथ ही इन्ही संगठनों में कुछ लोगों द्वारा सेक्सुअल हरासमेंट और धार्मिक स्थलों पर नवयुवकों के होने वाले यौन शोषण को भी उजागर करती हैं।

‘हाउस टेक्स की रसीद’ कहानी हालांकि एक मुस्लिम जरूरतमंद गरीब रमजानी नाम के व्यक्ति पर आधारित हैं, जो समाजवादी पेंशन पाने के लिए कागजात की पूर्ति हेतू हाउस टेक्श की रसीद के लिए नगर पालिका ऑफिस के चक्कर काटता हैं। उसे टेक्स की रसीद सरकारी कर्मचारी सिर्फ इसलिए नहीं देते हैं, क्योंकि वह मुस्लिम हैं और कर्मचारी उसे धिक्कारते हैं, मुस्लिम होने पर गालियां देते हैं, उसका मज़ाक उड़ाते हैं और किसी अनचाही मनोरंजक वस्तु की एक टेबल से दूसरी टेबल पर घूमाते रहते हैं। उसे टेक्स की रसीद देने के बजाय पाकिस्तान चले जाने की सलाह देते। परंतु यह कहानी वास्तविक रूप से मुस्लिम ही नहीं बल्कि हर उस तबके की कहानी है जो गरीब हैं, अनपढ़ हैं और राजनीतिक पहुंच से दूर है। यह कहानी समाज के उन सभी दबे-कुचले वर्गों को संबोधित करती हैं, जो तथाकथिक हमारी विकासवादी व्यवस्था में हाशिये पर चले गए हैं। इस कहानी में रमजानी की जो हालत है, वह हमारे समाज के हर गरीब तबके की है। चाहे वह किसी धर्म या संप्रदाय से संबंध रखता हो।

‘लड़की भगाने की कीमत’ कहानी दो अलग अलग धर्मों के वयस्कों के मिलन और उससे समाज में जो सोच व्याप्त हैं उस और ध्यान दिलाती हैं। आज भी हमारा समाज दो विभिन्न जाति, वर्ग और धार्मिक समुदाय के लड़के-लड़की की शादी को घृषा की दृष्टि से देखता है। उसी घृणा की प्रतिक्रिया स्वरूप कि हमारे समाज में बहुत आसानी से बड़े-बड़े अपराध हो जाते हैं और लोग उतनी ही आसानी से उन्हें स्वीकार भी कर लेते हैं। और केवल स्वीकार ही नहीं करते, उसे बढ़ावा भी देते हैं। समाज की इसी सोच में को उजागर करते हुए लेखक संग्रह की एक दूसरी कहानी ‘फातिमा गुल’ में लिखता है, हमारा समाज हिंसा पसंद समाज है। हत्याओं का उत्सव मनाने वाला समाज। हम प्रेम, सुख, शांति और समृद्धि नहीं चाहते, हम विनाश और तबाही चाहते हैं।

वह समाज जो प्रेम जैसी ईश्वरीय देन से घृणा करे वह वाकई हिंसा पसंद नहीं है तो फिर क्या है? यह एक सोचने वाली बात है।

     संग्रह की शीर्षक कहानी ‘आधे सफ़र का हमसफ़र’ एक छात्र के जीवन में घटने वाली घटना से संबंधित है। छात्र पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपने किसी रिश्तेदारी में शामिल होने जाता है। दो दिन वहां से लौटते हुए उसे पता चलता है कि किसी स्थानीय राजनीतिक दल ने बंद आह्वान किया हुआ है। इससे परिवहन के सभी साधन बंद है। वह पैदल सफ़र तय करने का सोचता है कि तभी उसे लिफ्ट लेने का ख्याल आता है। काफी मशक्कत के बाद एक ट्रक ड्राईवर उसे लिफ्ट भी दे देता है। बस यहीं इसे इस कहानी की शुरुआती है, जो हमें बताती कि धार्मिक रथ पर सवार राष्ट्रवादी दलों ने मनुष्य का कितनी ज़हरीला और उन्मादी बना दिया है।

संग्रह की एक और कहानी है जिसका मैं ज़िक्र कहना चाहूंगा। वह कहानी है ‘आशिक-ए-रसूल’। यह कहानी मुस्लिम धर्म गुरुओं को दोहरे मानदंड को इतनी रोचकता और दिलचस्पी से बयान करती है कि जो कोई भी इस कहानी को पढ़ेगा वह खुद को हैरान होने से नहीं रोक पाएगा।

 
      

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