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परिवार, प्रेम और सोशल मीडिया की व्यथा-कथा

सुपरिचित लेखक विमलेश त्रिपाठी के उपन्यास ‘हमन हैं इश्क मस्ताना’ की आजकल बहुत चर्चा है. हिन्द युग्म से प्रकाशित इस उपन्यास की समीक्षा लिखी है पीयूष द्विवेदी ने- मॉडरेटर

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विमलेश त्रिपाठी का उपन्यास ‘हमन हैं इश्क मस्ताना’ पारिवारिक जीवन के तनावपूर्ण यथार्थ की तरफ से आँखें मूंदे सोशल मीडिया पर अपने कल्पना लोकों की खोज में भटकते एक लेखक की कहानी है।  इस कहानी का मूल विषय तो परिवार और प्रेम है, परन्तु सोशल मीडिया भी इसके एक आवश्यक हिस्से के रूप में मौजूद है। याहू मैसेंजर से लेकर फेसबुक तक यह उपन्यास न केवल सोशल मीडिया की विकास-यात्रा की कथा कहता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि धीरे-धीरे सोशल मीडिया हमारे जीवन को किस कदर प्रभावित करने लगा है। सोशल मीडिया के इस पूरे चरित्र को अभिव्यक्ति देने में लेखक कामयाब रहे हैं, जिसकी तस्दीक किताब का ये एक अंश ही कर देता है, रात के बारह बजे जब पत्नी सो गयी थी, बच्चा उछलकूद मचाकर बिस्तर पर जा चुका थामैं कंप्यूटर पर था। पहले की बात होती तो मेरे हाथ में कोई अच्छीसी किताब होतीनिर्मल वर्मा या विनोद कुमार शुक्ल या कृष्णा सोबती। लेकिन यह आदत छूट गयी थी। ऐसा लगभग दस साल पहले हुआ था। और अब जब से फेसबुक प्रोफाइल बनाई थी, तब से खाली समय यहीं बीतने लगा था।इस कथांश में जिस स्थिति का वर्णन किया गया है, वो आज सोशल मीडिया पर सक्रिय होने वाले ज्यादातर लोगों के जीवन की कथा है। हम अक्सर सोशल मीडिया पर ही बहुतेरे लोगों को यह जाहिर करते हुए देखते हैं कि सोशल मीडिया पर सक्रिय होने के बाद से वे अध्ययन को समय नहीं दे पा रहे हैं।

अब उपन्यास की कहानी पर आएं तो इसका मुख्य पात्र अमरेश विश्वाल बचपन में लेखकों के विषय में यह सुनकर कि उनके अनेक प्रेम-प्रसंग होते हैं और उनकी रचनाओं से लड़कियां प्रभावित हो जाती हैं, लेखक बनने की ठान लेता है। कॉलेज में पहुँचने पर जब वह मन ही मन खुद को कवि मानने लगा होता है, तब अनुजा उसके जीवन में आती है जो उसकी रचनाओं की खूब तारीफ़ करती है। परिवार के विरोध के बावजूद वो अनुजा से इस उम्मीद में विवाह करता है कि वो उसके हुनर की सच्ची कद्रदान है, लेकिन विवाह के थोड़े ही समय बाद स्थिति पूरी तरह से बदल जाती है, जिसकी बानगी उपन्यास के इस अंश में देख सकते हैं, उन दिनों मेरी कविताओं का वह (अनुजा) बेसब्री से इन्तजार करती थी….लेकिन बाद के दिनों में वह सब खत्मसा हो गया था।..अब वह प्रेम नहीं रहा था। वह खूब गुस्से में कईकई बार मेरी कविताओं को शाप दे चुकी थी।   

अनुजा से तिरस्कृत अमरेश विश्वाल सोशल मीडिया पर अपनी कविताओं के प्रशंसकों की खोज में भटकने लगता है, जहां और कुछ तो नहीं होता लेकिन लेखनी के बहाने कई लड़कियों के साथ उसके संवाद और मुलाकात से होते हुए देह तक के सम्बन्ध जरूर बन जाते हैं। इसके समानांतर ही होता यह भी है कि आभासी दुनिया के संबंधों में मग्न अमरेश अपने वास्तविक जीवन के सम्बन्ध को समस्या मानकर उससे दिन-प्रतिदिन दूर होता चला जाता है। मोटे तौर पर तो इस उपन्यास की कहानी इतनी ही है, लेकिन इसकी बुनावट के क्रम में ऐसा बहुत कुछ रचा गया है, जिसको जानने-समझने के लिए किताब पढ़ना जरूरी है।

विचार करें तो उपन्यास का मुख्य पात्र अमरेश विश्वाल कोई एक व्यक्ति नहीं है, वो मौजूदा दौर के एक वर्ग-विशेष का प्रतिनिधित्व करता है। वो वर्ग जो अपने वास्तविक जीवन की तरफ से आँख मूंदकर अपनी महत्वाकांक्षी कल्पनाओं को संतुष्ट करने की चाह लिए सोशल मीडिया के मायाजाल में आकंठ डूबा हुआ है। इस वर्ग की हालत ऐसी है कि इससे घर का आपसी झगड़ा भले न सुलझता हो, लेकिन सोशल मीडिया पर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान सुझाकर विद्वान् बनने में जरा भी देरी नहीं करता। अमरेश विश्वाल इसी किस्म का एक चरित्र है, जो फेसबुक पर मिली लड़कियों से सम्बन्ध बनाने में जितना यत्न करता है, उसकी तुलना में अपनी पत्नी से अपने सम्बन्ध को बचाने के लिए उसमे कोई ठोस समर्पण, कोई यत्न नहीं दिखाई देता। और इस तरह आखिरकार एक दिन ऐसा भी आता है, जब उसके पास न आभासी जीवन के सम्बन्ध शेष रह जाते हैं और न ही वास्तविक जीवन के। इसी बिंदु पर उसे यह भी अनुभव होता है कि वास्तविक जीवन की समस्याओं से भागकर वो जिस सोशल मीडिया की शरण में गया था, वो ही उसके लिए सबसे बड़ी समस्या बन चुका है।

ये उपन्यास कथानक के स्तर पर इस मामले में कामयाब है कि इसमें जिन विषयों को उठाया गया है, उनकी प्रस्तुति लगभग-लगभग यथार्थ के निकट और नाटकीयता से दूर रही है। इसलिए पाठक को कहानी से जुड़ने में बहुत मुश्किल नहीं होती। सोशल मीडिया पर सक्रिय साहित्यिक बिरादरी से सम्बंधित कुछेक हिस्से पाठकों का ध्यान विशेष रूप से खींच सकते हैं। लेकिन यथार्थ की निकटता के निर्वाह में कई जगहों पर कहानी आवश्यकता से अधिक धीमी हो गयी है, जो कि इसका एक कमजोर पक्ष है। मुख्य पात्र का ऑफिस से लौटते हुए जहां-तहां बैठकर सोच में मग्न हो जाना, इसी तरह घर से बाहर बैठकर सोच में डूब जाना जैसे दृश्यों और एक जैसी बातों का दुहराव इस उपन्यास को पठनीयता के स्तर पर उबाऊ बनाता है। हो सकता है कि लेखक की दृष्टि में ये दुहरावपूर्ण लेखन, शैली के स्तर पर कोई कलात्मक प्रयोग रहा हो, परन्तु इस प्रयोग से उपन्यास में कोई सकारात्मक प्रभाव उत्पन्न होता नहीं दिखाई देता। दूसरी कमजोरी इसकी कहानी के अंत से सम्बंधित है। सोशल मीडिया के अतिरिक्त उपन्यास के किसी अन्य विषय को लेकर इसका अंत कोई ठोस निष्कर्ष प्रस्तुत नहीं करता बल्कि एक अस्पष्ट-सा संकेत करके सबकुछ पाठक के विवेक पर छोड़ देता है। पाठक के विवेक पर आश्रित ऐसे अंत हिंदी साहित्य में बहुतेरे मिलेंगे, लेकिन एक गंभीर कथानक के लिए ऐसे अंत को बहुत प्रभावी नहीं कहा जा सकता।

उपन्यास की भाषा उन हिस्सों में विशेष रूप प्रभावित करती है, जहां बंगाली शब्दों और लहजे का प्रयोग हुआ है जैसे यह उदाहरण देखिये, ‘…घर में दीवार होता है वह भस जाता है। भालोबासा मरता है पहलेआत्मीयताजिसको तुम प्रेम बोलता है, वह मरता है। फिर जो बाग़ में तुम फूल लगाया रहता है, वह पुड़ (जल) जाता है। इसमें सराहनीय यह है कि बंगाली शब्दों और लहजे के बावजूद लेखक ने इसकी प्रस्तुति ऐसे की है कि किसी भी हिंदी भाषा-भाषी के लिए इसे समझना कठिन नहीं है।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इस उपन्यास का कथानक प्रेम, परिवार और सोशल मीडिया इन तीनों विषयों की व्यथा-कथा को स्वर तो देता है, लेकिन कोई निष्कर्ष प्रस्तुत नहीं कर पाता। अगर लेखक इसका अंत किसी ठोस निष्कर्ष के साथ करते तो ये इस सीमा तक प्रभावी बन सकता था कि एक लम्बे समय तक याद और प्रासंगिक रहने वाले उपन्यासों में शुमार हो जाता।

 
      

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5 comments

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