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 जी. एस. पथिक : नवजागरण का स्त्री पक्ष

सुरेश कुमार युवा हैं, शोध छात्र हैं। इनको पढ़ते हुए, इनसे बातें करते हुए रोज़ कुछ नया सीखता हूँ। 19 वीं-20 वीं शताब्दी के साहित्य पर इनकी पकड़ से दंग रह जाता हूँ। फ़िलहाल यह लेख पढ़िए। स्त्री विमर्श पर एक नए नज़रिए के लिए लिखा गया है- मॉडरेटर

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हिन्दी साहित्य के इतिहास में सन् 1920 से लेकर 1930 तक स्त्री समस्या पर बड़ी गंभीरता से विचार किया गया था। लेखक और संपादक पत्रिकाओं में स्त्री समस्या को उठाने लगे थे। ‘माधुरी’,‘सुधा’,‘मनोरमा’  और ‘चांद’ आदि पत्रिकाओं में ‘महिला मनोरंजन, ‘वनिता विनोद’ आदि नाम से कालम लिखे जाने लगे थे। इस कालम के अंतर्गत खासकर महिलाएं लेख लिखती थी। इन कालमों के लेख देखने से पता चलता है कि अधिकतर लेख परम्परावादी ढर्रे पर लिखे जाते थे। स्त्री शिक्षा के नाम पर गृहणी और आदर्शवादी शिक्षा की पुरजोर वकालत की जाती थी। एक तरफ ऐसे लेखक थे जो स्त्रियों को धर्म और परम्परा के पल्ले से बांध कर रखना चाहते थे। वहीं दूसरी ओर ऐसे लेखक भी थे  जिन्होंने अपने लेखन में स्त्रियों पर हो रहे जुल्म और अत्याचार का प्रबल विरोध किया था। एक बड़ी दिलचस्प बात यह है कि 1920 से 1930 तक हिन्दी के साहित्य के जो स्टार लेखक माने जाते हैं, उन्होंने स्त्री समस्या पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना अपरिचित लेखकों न दिया था। इस लेख में  नवजागरण काल के एक ऐसे लेखक के स्त्री चिंतन पर विचार किया जायगा, जिसने अपने लेखन स्त्री का मुद्दा बड़ी गम्भीरता और शिद्दत के साथ उठाया था।

सन् 1927 में जी. एस. पथिक की किताब ‘अबलाओं पर अत्याचार’ चांद कार्यालय, प्रयाग से प्रकाशित हुई। देखा जाए तो यह किताब स्त्री दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण है। जी.एस. पथिक की यह किताब स्त्री का प्रश्न को बड़ी बेबाकी से उठाती है। जी. एस. पथिक ने पितृसत्ता सत्ता के कोल्हू में पीसती हुई स्त्रियों की व्यथा और दुर्दशा को बड़ी मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया था। जी. एस. पथिक ने अपनी किताब में स्त्री स्वतत्रंता, स्त्री शिक्षा, स्त्रियों की अधोगति, स्त्रियों पर अत्याचार, बाल विवाह, विधवा विवाह आदि मुद्दों की शिनाख्त पूरी शिद्दत के साथ की थी। जी.एस पथिक का कहना था कि हमारा पुरुष समाज स्त्रियों पर शैतानों की तरह से जुल्म और अन्नाय करता है। यहां के पुरुष स्त्री को ‘लठ सिद्धान्त’ के बल पर पशुओं की तरह हांक रहे हैं। जी.एस. पथिक का सामाजिक नियंताओं से सवाल था कि आधी आबादी को तोता-मैना की तरह पिजड़े में कैद कर के क्यों रखा जा रहा है? इन्होंने स्त्रियों की समाजिक दुर्दशा की बात करते हुए यह भी  पूछा था कि क्या स्त्रियां मनुष्य नहीं है जो उनके साथ पशुओं की तरह व्यहार किया जा रहा है। जी.एस. पथिक ने स्त्री स्वतंत्रा का सवाल उठाते हुए लिखा था:

‘‘हम तो यही पूछते है कि वे इस प्रकार पशुओं की तरह क्यों रखी जाती हैं। उनके जीवन के सुखोपभोग के लिए उन्हें कितनी स्वच्छंदता दी जाती है। आप कहेंगे कि उन्हें कष्ट किस बात का है? उनके खाने और पहिरने का पूरा प्रबन्ध है, उनके शयन और निवास का काफी इन्तजाम है। उन्हें किस बात की कमी है। वे इच्छा अनुसार पदार्थ पा सकती हैं और इच्छानुकूल धन और वैभव का उपयोग कर सकती हैं। ठीक है; हम मानते है कि ऐसा होता है। यद्यपि सभी कुटुम्बों में यह बाते नहीं पाई जाती है, पर हम पूछते है कि इच्छानुसार पदार्थ पाने पर भी क्या वे इच्छानुकूल जीवन व्यतीत कर सकती हैं। हम सामाजिक मर्यादा अथवा उचित रुढ़ियों की सीमा भी भंग नहीं करना चाहते। हम इन्हीं के अन्तर्गत जीवन की बाते करते हैं। क्या स्त्री जाति इस पद-मर्यादा के अन्तर्गत भी स्वतंत्र है।’’

दरअसल, सारी सुविधा होने के बावजूद, यदि स्त्री की इच्छाओं का निर्धारण पुरुष करें, तो स्त्री के लिए सुख की सामग्री का मतलब क्या रह जाता है? स्त्री के लिए इससे बड़ी दुख वाली बात क्या हो सकती है कि पुरोहितों ने  उससे मनुष्य होने की गरिमा ही छीन ली है। जी.एस पथिक ने लिखा हैं: ‘‘हम स्त्रियों को मनुष्य की कोटि में कैसे गिनें? ‘‘साहित्य संगीत कलाविहीनः साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीनः’’ बस ठीक यही दशा स्त्रियों की है। पशु भी एक बार स्वाधीनता का उपभोग कर सकता है, किन्तु स्त्रियां तो जन्म से ही पराधीन मानी जाती है।” पितृसत्ता की व्यवस्था में स्त्री जीवन महज दो-तीन कदमों के भीतर सीमित होकर रह गया था।  यह तथ्य परक  बात हैं कि घरों में कैद स्त्रियां तमाम तरह के बंधन मेँ जीवन व्यतीत करती हैं। घरों के भीतर स्त्री पर जो अन्याय हो रहा था, उसको जी.एस. पथिक ने बड़ी शिद्दत से रेखांकित किया था:

‘‘न जाने कितने अबलाएँ पुरुषों के अत्याचारों को चुपचाप सहन करती जाती हैं। वे रात दिन चुपके-चुपके आँसू बहाया करती हैं, किन्तु उनके प्रतिकार के लिए कुछ भी नहीं करतीं। न तो घर में और न बाहर ही उन्हें अपने दुखों को खुलकर प्रकट करने की स्वाधीनता प्राप्त है। पुरुष तो भोजन के समय और शयन के समय स्त्रियों की आवश्यकता का अनुभव करता है। इसके अतिरिक्त तो स्त्री उसे भार स्वरुप जान पड़ती है। उसका निर्वाह उसके लिए महान कष्टकर हो जाता है। अवसर पड़ने पर तभी तो वे स्त्रियों को ऐसी झिड़कियाँ देते हैं कि बाई जी का दिमाग ठीक हो जाता है-उन्हें ज्ञात हो जाता है कि वे क्या चीज हैं, मनुष्य होकर भी वे किस मूक भाव से पशुओं का अनुकरण करती हैं। हाय री दुर्बलता!’’

पुरुषवादी नजरिया स्त्रियों को बच्चा पैदा करने वाली मशीन के रुप में देखता आया है। इस लेखक का स्पष्ट मत था कि स्त्री को बच्चा पैदा करने वाला यंत्र समझना पशु प्रवृति से भी घातक दृष्टि है।  इनका सवाल था कि यहां स्त्रियों को पशु से भी निम्न कोटि का क्यों समझा जाता है? स्त्रियों को लेकर जो पुरुष मनोवृति की गिरावट थी उसको बड़ी शिद्दत से यह लेखक सामने लाने का काम करता है। इस महान लेखक ने लिखा था:

‘‘पुरुषों ने तो स्त्रियों को वासनापूर्ति तथा सन्तानोत्पादन की मशीन बना रखा है। वे समय देखते हैं न असमय, न शरीर देखते है न स्वास्थ्य, पशुओं की तरह-नही नहीं, पशु तो इन बातों में एक बार बड़े नियमित होते हैं; अतः पशुओं से भी हीन जीवों की तरह-वे सदा स्त्री-प्रसंग ही श्रेय समझते हैं। उनकी इस अदम्य लालसा-प्रवृति  ने उनकी तो शक्ति नष्ट कर ही दी है साथ ही स्त्रियों की अपति और बढ़ा दी है। पुरुषों को न तो देश की दरिद्र अवस्था का कुछ ख्याल रहता है और न उन्हें अपनी गृह-स्थिति और शारीरिक परिस्थिति का कुछ ध्यान रहता है। वे अपने रंग में डूबे रहते हैं और उसके लिए स्त्रियों को भी घसीट कर उन्हें बरबाद कर देते हैं। यह दुर्वासना यहाँ तक बढ़ चली है किपुरुष एक स्त्री से सन्तुष्ट न होकर या तो वेश्या गमन करते हैं यह समाज में व्यभिचार का प्रचार करते हैं; और इस तरह भी स्त्रियों की घोर दुर्दशा कर देते हैं ।’’

 इस लेखक ने उन शास्त्रों, स्मृतियों और वेदों की कड़ी आलोचना प्रस्तुत की जिनमें स्त्री के अधिकारों संकुचित कर दिया गया था। लेखक ने पुराण, और मनुस्मृति को स्त्रियों का कारागार बताया था।  और, उन नियंताओं की बड़ी तीखी आलोचना प्रस्तुत की जिन्होंने स्त्री अधिकारों पर तलवार चलने का प्रयास किया था:

‘‘इसी से प्राचीन शास्त्रकारों ने जहां स्त्री के गुणों का गान किया है, वही उसके कार्य-क्षेत्र में सैकड़ों काँटे बो दिए हैं। हम शास्त्रों के उस अनुकूलभाव को भूलकर कृतघ्न नहीं बनना चाहते जो उन्होंने स्त्रियों के सम्मानार्थ प्रकट किया है। फिर भी हम उनकी उस कुप्रवृत्ति  की निंदा किए बिना भी नहीं रहते, जो उस समय के लिए भले ही अनुकूल हो, किन्तु आज हमारी उन्नति के मार्ग में अत्यन्त बाधक है। यह तो ठीक मोण्टफोर्ड शासन-सुधारों की तरह हो गया कि एक अधिकार दिया और उसकी रोक के लिए पांच बन्धन डाल दिए। स्त्रियों को देवियाँ, पूजनीया इत्यादि समस्त विशेषणों से अलंकृत तो कर दिया, किन्तु उनके अधिकारों का भी ध्यान रखा?’’

जी.एस. पथिक ने पुरोहितों और पोथाधारियों को स्त्री दुर्दशा का जिम्मेदार माना था। लेखक का आंकलल था कि स्त्री अधिकारों पर सबसे ज्यादा आघात मनु ने किया था। जी.एस. लिखते हैं:

‘‘स्मृतियों में सर्व प्रचलित, मान्य एवं श्रेष्ठ मनुस्मृति में भी नारी-धर्म का जहाँ वर्णन किया गया है, वहां अधिकारों की छीना-झपटी की अच्छी बहार दीख पड़ती है। एक स्थान पर तो मनु महराज लिखते हैं कि स्त्रियों का सम्मान करो, उनकी पूजा करो और उन्हें प्रसन्न रखो; परन्तु दूसरे ही स्थान पर वे कुछ ऐसी बाते लिख देते हैं, पुरूषों को कुछ ऐसे अधिकार दे देते हैं जिसके कारण स्त्रियों का सम्मन शेष नहीं रह जाता, उनके प्रति वह पूज्यबुद्धि स्थिर ही नहीं रह सकती। कह नहीं सकते कि हिन्दू-लॉ  का कभी यथार्थ में पालन भी किया गया है या नहीं; अन्यथा नियमों के निर्णय में ऐसी विषमता और भौंठापन तो देखने में नहीं आया।’’

यह तथ्यपरक बात है कि पतिव्रता धर्म के नाम पर स्त्रियों के साथ घोर सामाजिक अन्याय किया गया है। पितृसत्ता समाज की क्रूरता देखिये कि वह पतिव्रता धर्म के पालन के लिए स्त्रियों को  जलती आग में झोंक दिया करता था। कल्पना करके देखिए कि इस कुप्रथा ने स्त्रियों को कितनी पीड़ा और यातना दी होगी। स्त्री की इस पीड़ा के सम्बन्ध में जी.एस. पथिक के यह विचार देखिए:

‘‘पुरुष-समाज जैसे-जैसे स्त्रियों को अपने हाथ में लाता गया, वैसे-वैसे उसका विश्वास भी उनमें कम होता गया। यह बिल्कुल कायदे की बात है कि जिसको हम जितना अधिक कानूनों से बांध कर रखेंगे, उतना ही उसमें अधिक विश्वास का अभाव होता जाएगा। पतिव्रत की लगाम कड़ी रखी गई। यहां तक कि पुरुष के मर जाने के बाद स्त्री को अग्नि मेँ भस्म तक कर डालने का ‘भंयकर’ विधान हुआ। क्योंकि सम्भव है, पति की मृत्यु के बाद स्त्री कदाचित् अपने पतिव्रत को न निभावे। इसी से उन्होंने निभाने न निभाने का झगड़ा ही उड़ा दिया और धर्म की रक्षा के निमित्त वे आग में जिन्दा जला दी गईं। कहिए, इससे अधिक धार्मिक अत्याचार और क्या हो सकता है ?’’

इस दौर मेँ  वृद्ध-विवाह की प्रथा का विस्तार अपने चरम था। समाज में वृद्ध-विवाह के प्रचलन से बाल विधवाओं की संख्या प्रतिदिन बढ़ रही थी। वृद्ध-विवाह स्त्रियों के लिए कितना अमानवीय था। इस का खुलासा करते हुए जी.एस. पथिक ने  लिखा है :

भारतीय स्त्रियों की जेल

स्रोत- चाँद, नवबंर 1930, वर्ष 9, खण्ड 1, संख्या 1

‘‘वृद्ध-विवाह के कारण स्त्रियों की जो दुर्गति हुई है वह हमारे समाज के लिए बड़ी लज्जा का विषय है। बेचारी सुकुमार कोमलांगी बालिकाओं का जीवन नष्ट कर दिया है। विधवाओं की जितनी अभिवृद्धि वृद्ध-विवाह के कारण हुई है, उतनी किसी से नहीं हुई। व्यभिचार का बाजार भी इसी से गर्म हुआ है। जहाँ पुरुषों ने स्त्रियों के प्रति पतिव्रता धर्म का कठोर बन्धन रच रखा है, वहीं उन्होंने ने अपने लिए इस बात का ध्यान नही रखा कि इस बुढापे में अब विवाह करने की आवश्यकता नहीं है। उस समय तो वे एक दो क्या, चार चार, छः छः विवाह कर डालते है और अंत में किसी दिन मुंह बाए इस संसार से चल बसते हैं। तब विचारी अबला की जो अवस्था होती है वह बड़ी ही करुणाजनक है। यदि पास में धन हुआ; सुख, चैन आराम का आयोजन हुआ तो काम-वासना जाग्रत होने में देर नहीं लगती; यदि घर दरिद्र हुआ तो रोटी के टुकड़े के लिए तरसना पड़ता है, पापी जीवन के निर्वाह के लिए न जाने क्या-क्या कुकर्म करने पड़ते है। यह सब अपराध किसका है? स्त्रियों? हरगिज नहीं। दोष सरासर पुरुषों का है। यह बेमेल विवाह का अत्याचार है? स्त्री समाज की अद्योगति विशेषतः वैवाहिक कारणों से ही हुई है। पुरुष यह नहीं सोचते कि पचास-साठ और कभी-कभी सत्तर- अस्सी वर्ष की उम्र में विवाह कर वे कोमलांगी या तरुणी बाला का जीवन नष्ट कर रहे हैं और समाज के नाम पर कलंक  का टीका लगा रहे है। यह तो विवाह की ओट मेँ घोर अत्याचार है। सामाजिक पाप का यह अत्यंत  भयंकर दृश्य है।’’

पुरोहित और पोथाधारी विधवा पुनर्विवाह के खिलाफ थे। इनके अनुसार विधवाओं को ब्रह्मचर्य का जीवन बीतना चाहिए। दरअसल, पुरोहित, पुजारी और कामाचारी पुरुष कभी नहीं चाहते थे कि विधवाओं का पुनर्विवाह किया जाय। इन लोगों ने विधवाओं का नरम चारा समझ लिया था। विधवाओं का यौन शोषण घर से लेकर बाहर तक हो रहा था। विधवाओं का यौन शोषण एक बड़ी समस्या के रुप में उभर चुक थी। विधवा स्त्रियों का पुनर्विवाह न होने उनको अनेकों कष्टों का सामना करना पड़ता था। इन विधवाओं का पर तरह-तरह के लांछन लगाकर उनके चरित्र पर शक किया जाता था। लेखक बाल्य विवाह जैसी स्त्री विरोधी प्रथा की तीखी आलोचना करता है। इस लेखक का कहना था कि विधवाओं की मुक्ति का उपाय केवल पुनर्विवाह है। जी.एस. पथिक ने पुरोहितों और पोथाधारियों का राक्षस संज्ञा दी थी। जी.एस. पथिक ने लिखा था: ‘‘आप ही कहें, स्त्रियों साथ पुरुषों का यह पाशविक अत्याचार नहीं है कि एक-एक और दो-दो वर्ष की बालिकाओं के विवाह कर दिए जाते हैं। और उनके विधवा होने पर सारा जीवन उन्हें क्लेश, चिन्ता और परिताप में बिताने का आदेश करते हैं। साथ ही जब ये बालिकाएं अपनी पूर्ण अवस्था को प्राप्त होती हैं उन्हें पतित करने के लिए सैकड़ों प्रलोभन दिखाए जाते हैं। फिर उनके जरा इधर-उधर होते ही कलंक और लांछन का टीका लगाकर उन्हें  जाति-च्युत और समाज से बहिष्कृत कर देते हैं। हा हन्त! स्त्रियों को स्वयं ही जाल में फँसाएँ और स्वयं ही उन्हें  फँस जाने का अपराधी बनाएं। यह पशु-लीला, यह राक्षसी अत्याचार भारतीय स्त्रियाँ कहां तक सहती रहेंगी।’’

नवजागरण कालीन यह लेखक स्त्री स्वतंत्रता का प्रबल पैरोकार और पक्षपाती था। यह लेखक स्त्रियों की स्वाधीनता के लिए पुरोहित, पुजारियों और चौधरियों से टकरा रहा था। इनके तंत्र और पाखंड की कठोर आलोचना करता है। विधवा विवाह का पक्षपाती यह लेखक खुलकर बाल्य विवाह की मुखा़लफत करता है। स्त्री शिक्षा की प्रबल पैरोकारी की और पितृसत्ता के मुखौटों को बेनकाब किया। नवजागरण काल का यही वही दौर था जब पुरोहितों के वचन को ईश्वर से भी अधिक माननीय समझा जाता था। ऐसे माहौल में जी.एस. पथिक ने पुरोहितों की विद्या पर सवाल ही नहीं उठाया बल्कि उन्हें स्त्रियों दुर्दशा का जिम्मेदार भी ठहराया है। विडम्बना देखिए, स्त्री मुक्ति और स्वतंत्रता की बात करने वाले इस लेखक पर हिन्दी साहित्य के विद्वानों ने नोटिस लेना तक उचित नहीं समझा।

 
      

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