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शैलेश मटियानी का पहला इंटरव्यू

हिंदी में बेहतरीन प्रतिभाओं की उपेक्षा कितनी होती है शैलेश मटियानी इसके उदहारण हैं. 24 अप्रैल को उनकी पुण्यतिथि थी. इस अवसर पर 1993 के दीवाली विशेषांक में प्रकाशित उनका यह साक्षात्कार जिसे लिया जावेद इकबाल ने था. इस बातचीत में वे यह कहते हैं कि 42 वर्षों के लेखन …

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मैं तुम्हें छू लेना चाहता था, मार्केस!

युवा लेखक श्रीकांत दुबे पिछले दिनों मेक्सिको में थे. मार्केस के शहर मेक्सिको सिटी में. तब मार्केस जिन्दा थे. उनका यह संस्मरणात्मक लेख लैटिन अमेरिका में मार्केस की छवि को लेकर है, मार्केस से मिलने की उनकी अपनी आकांक्षा को लेकर है. पढ़ते हुए समझ में आ जाता है कि …

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सुनील ने संन्यासी सा जीवन जिया

समाजवादी जन परिषद् के महामंत्री सुनील का महज 54 साल की आयु में निधन हो गया. जेएनयू से अर्थशास्त्र की डिग्री लेने के बाद उन्होंने मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के गाँवों में किसानों के बीच काम करने को प्राथमिकता दी. उनको श्रद्धांजलि देते हुए वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर ने यह लेख …

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कोई लटक गया फांसी किसी ने छोड़ दिया देश

इस बार आम चुनावों में जमीन से जुड़े मुद्दे गायब हैं. खेती, किसान, अकाल, दुर्भिक्ष, पलायन- कुछ नहीं. जमीन से जुड़े कवि केशव तिवारी की कविताएं पढ़ते हुए याद आया. बुंदेलखंड के अकाल और पलायन को लेकर कुछ मार्मिक कविताएं आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन  ============================================= 1. ऋतु पर्व घोर …

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कथाकार काशीनाथ सिंह की बातें उनके बेटे सिद्धार्थ की जुबानी

लेखक काशीनाथ सिंह को सारा हिंदी समाज जानता है. लेकिन उनके यशस्वी पुत्र प्रोफेसर सिद्धार्थ सिंह उनके बारे में क्या सोचते हैं यह पढने को मिला ‘चौपाल’ नामक पत्रिका के प्रवेशांक में. इसकी तरफ ध्यान दिलाया युवा संपादक-आलोचक पल्लव कुमार ने. आइये पढ़ते हैं. पिता की नजर से पुत्र को …

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कोश कोश कितने कोस!

वर्धा कोश पर ‘जनसत्ता’ में एक लम्बी बहस चली. कुछ हद तक सार्थक भी रही. वैसे मेरा विचार यह है कि हिंदी के विद्वानों को मिलकर यह प्रयास करना चाहिए कि विशेषज्ञों के माध्यम से हिंदी के कोशों को अद्यतन बनाए जाने का काम हो. भाषा आगे बढती जा रही …

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आम चुनाव में शिक्षा सुधार मुद्दा क्यों नहीं?

वरिष्ठ शिक्षाविद प्रेमपाल शर्मा ने शिक्षा को लेकर राजनीतिक पार्टियों, ख़ासकर ‘आप’ से अपील की है. उनका यह सवाल महत्वपूर्ण है कि चुनावों में शिक्षा कोई मुद्दा क्यों नहीं बन पाता है? इससे शिक्षा कोलेकर प्रेमपाल जी के सरोकारों का भी पता चलता है- जानकी पुल  =================================    ‘आप’ से …

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क्या ग़ज़ब की बात है कि जिंदा हूँ

कविताओं में नयापन कम दिखता है जबकि मार-तमाम कविताएं रोज छपती हैं. इसका एक कारण यह है कि ज्यादातर कवि बनी -बनाई लीकों पर चलते हैं. इसमें एक सहूलियत रहती है कि सफलता का फार्मूला मिल जाता है. कोई सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की तरह नहीं कहता- मुझे अपनी यात्रा से …

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मेरे मरने के बाद मेरी कहानियों का नोटिस लिया जाएगा

 70 के दशक में जिन्होंने ‘सारिका’ पढ़ा होगा वह कथाकार आलमशाह खान को नहीं भूल सकता. उनकी एक कहानी ‘किराए की कोख’ के खिलाफ कितने पत्र छपे थे, उनको धमकियाँ मिला करती थी. उनकी हर कहानी से उस दौर में सामाजिक संतुलन का नाटक भंग होता था. वे सच्चे अर्थों …

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हिंदी की पहली एडल्ट किताब पर एक लेख

फ्रैंक हुज़ूर की किताब आई है ‘सोहो: जिस्म से रूह का सफ़र’. पोर्न इंडस्ट्री की हैरतनाक सच्चाइयों से रूबरू करवाती हिंदी में पहली किताब है. इसके आरम्भ में लिखा हुआ है ‘18 वर्ष से अधिक आयु के पाठकों के लिए.’ मेरे जानते यह घोषित रूप से हिंदी की पहली वयस्क किताब …

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